तंत्र-सूत्र–विधि–35 (ओशो)

Parvati Shiva Photo

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देखने के संबंध में छट्टी विधि:

‘’किसी गहरे कुएं के किनारे खड़े होकर उसकी गहराइयों में निरंतर देखते रहो—जब तक विस्‍मय-विमुग्‍ध न हो जाओ।‘’

ये विधियां थोड़े से फर्क के साथ एक जैसी है।

‘’किसी गहरे कुएं के किनारे खड़े होकर उसकी गहराईयों में निरंतर देखते रहो—जब तक विस्‍मय-विमुग्‍ध न हो जाओ।‘’

किसी गहरे कुएं में देखो; कुआं तुममें प्रतिबिंबित हो जाएगा। सोचना बिलकुल भूल जाओ; सोचना बिलकुल बंद कर दो; सिर्फ गहराई में देखते रहो। अब वे कहते है कि कुएं की भांति मन की भी गहराई है। अब पश्‍चिम में वे गहराई का मनोविज्ञान विकसित कर रहे है। वे कहते है कि मन कोई सतह पर ही नहीं है। वह उसका आरंभ भर है। उसकी गहराइयां है, अनेक गहराइयां है, छिपी गहराइयां है।

किसी कुएं में निर्विचार होकर झांको; गहराई तुममें प्रतिबिंबित हो जाएगी। कुआं भीतर गहराई का बाह्य प्रतीक है। और निरंतर झाँकते जाओ—जब तक कि तुम विस्‍मय विमुग्‍ध न हो जाओ। जब तक ऐसा क्षण न आए झाँकते चले जाओ, झाँकते ही चले जाओ। दिनों हफ्तों, महीनों झाँकते रहो। किसी कुएं पर चले जाओ। उसमे गहरे देखो। लेकिन ध्‍यान रहे कि मन में सोच-विचार न चले। बस ध्‍यान करो, गहराई में ध्‍यान करो। गहराई के साथ एक हो जाओ। ध्‍यान जारी रखो। किसी दिन तुम्‍हारे विचार विसर्जित हो जाएंगे। यह किसी क्षण भी हो सकता है। अचानक तुम्‍हें प्रतीत होगा। कि तुम्‍हारे भीतर भी वही कुआं है। वही गहराई है। और तब एक अजीब बहुत अजीब भाव का उदय होगा, तुम विस्‍मय विमुग्‍ध अनुभव करोगे।

च्वांत्सु अपने गुरु लाओत्से के साथ एक पुल पर से गुजर रहा था। कहा जाता है कि लाओत्से ने च्वांत्सु से कहा कि यहां रुको और यहां से नीचे देखो—और तब तक देखते रहो जब तक कि नदी रूक न जाये। और पुल न बहने लगे।

अब नदी बहती है, पुल कभी नहीं बहता। लेकिन च्वांत्सु को यह ध्‍यान दिया गया कि इस पुल पर रहकर नदी को देखते रहो। कहते है कि उसने पुल पर झोपड़ी बना ली और वहीं रहने लगा।

महीनों गुजर गये और वह पूल पर बैठकर नीचे नदी में झाँकता रहा, और उस क्षण की प्रतीक्षा करने लगा जब नदी रूक जाए और पुल बहने लगे। ऐसा होने पर ही उसे गुरु के पास जाना था।

और एक दिन ऐसा ही हुआ। नदी ठहर गई और पुल बहने लगा।

यह कैसे संभव है? यदि विचार पूरी तरह ठहर जाये तो कुछ भी संभव है। क्‍योंकि हमारी बंधी बंधाई मान्‍यता कि कारण‍ ही नदी बहती हुई मालूम पड़ती है। और पुल ठहरा हुआ। यह सापेक्ष है, महज सापेक्ष।

आइन्सटीन कहता है, भौतिकी कहती है कि सब कुछ सापेक्ष है। तुम एक तेज चलने वाली रेलगाड़ी में यात्रा कर रहे हो। क्‍या होता है, पेड़ भाग रहे है। भागे जा रहे है। और अगर रेलगाड़ी में हलन-चलन न हो, जिससे रेल चलने का एहसास होता है। तो तुम खिड़की से बाहर देखो तो गाड़ी नहीं, पेड़ भागते हुए नजर आयेंगे।

आइन्सटीन ने कहा है कि अगर दो रेलगाड़ियाँ या दो अंतरिक्ष यान अंतरिक्ष में अगल-बगल एक ही गति से चले तो तुम्‍हें पता भी नहीं चलेगा कि वे चल रहे है। तुम्‍हें चलती गड़ी का पता इसलिए चलता है। क्‍योंकि उसके बगल में ठहरी हुई चीजें है। यदि वे न हों, या समझो कि पेड़ भी उसी गति से चलने लगे, तो तुम्‍हें गति का पता नहीं चलेगा। तुम्‍हें लगेगा कि सब कुछ ठहरा हुआ है। या दो गाड़ियाँ अगल-बगल विपरीत दिशा में भार रही हो तो प्रत्‍येक की गति दुगुनी हो जाएगी। तुम्‍हें लगेगा की वह बहुत तेज भाग रही है।

वे तेज नहीं भाग रही है। गाड़ियाँ वही है, गति वहीं है। लेकिन विपरीत दिशाओं में गति करने के कारण तुम्‍हें दुगुनी गति का अनुभव होता है। और अगर गति सापेक्ष है तो यह मन का कोई ठहराव है जो सोचता है कि नदी बहती है और पुल ठहरा हुआ है।

निरंतर ध्‍यान करते-करते च्वांत्सु को बोध हुआ कि सब कुछ सापेक्ष है। नदी बह रही है; क्‍योंकि तुम पुल को थिर समझते हो। बहुत गहरे में पुल भी बह रहा है। इस जगत में कुछ भी थिर नहीं है। परमाणु घूम रहे है; इलेक्ट्रॉन घूम रहे है। पुल भी अपने भीतर निरंतर घूम रहा है। सब कुछ बह रहा है। पुल भी बह रहा है। च्वांत्सु को पुल की आणविक संरचना की झलक मिल गई होगी।

अब तो वे कहते है कि यह जो दीवार थिर दिखाई देती हे। वह सच में थिर नहीं है। उसमे भी गति है। प्रत्‍येक इलेक्ट्रॉन भाग रहा है। लेकिन गति इतनी तीव्र है कि दिखाई नहीं देती। इसी वजह से तुम्‍हें थिर मालूम पड़ती है।

यदि यह पंखा अत्‍यंत तेजी से चलने लगे तो तुम्‍हें उसके पंख या उनके बीच के स्‍थान नहीं दिखाई देंगे। और अगर वह प्रकाश की गति से चलने लगा तो तुम्‍हें लगेगा की वह कोई थिर गोला है। क्‍योंकि इतनी तेज गति को आंखें पकड़ नहीं पाती।

च्वांत्सु को पुल के अणु-अणु की झलक जरूर मिल गई होगी। उसने इतनी प्रतीक्षा की कि उसकी बंधी बंधाई मान्‍यता विलीन हो गई। तब उसने देखा कि पुल बह रहा है और पुल का बहाव इतना तीव्र है कि उसकी तुलना में नदी ठहरी हुई मालूम हुई। तब च्वांत्सु भागा हुआ लाओत्से के पास गया। लाओत्से ने कहा कि ठीक है, अब पूछने की भी जरूरत नहीं है। घटना घट गई।

क्‍या घटना घटी? अ-मन घटित हुआ है।

यह विधि कहती है: ‘’किसी गहरे कुएं के किनारे खड़े होकर उसकी गहराईयों में निरंतर देखते रहो—जब तक विस्‍मय विमुग्‍ध न हो जाओ।‘’

जब तुम विस्‍मय-विमुग्‍ध हो जाओगे। जब तुम्‍हारे ऊपर रहस्‍य का अवतरण होगा। जब मन नहीं बचेगा। केवल रहस्‍य और रहस्‍य का माहौल बचेगा। तब तुम स्‍वयं को जानने में समर्थ हो जाओगे।

ओशो

विज्ञान भैरव तंत्र, भाग—2

प्रवचन—23

साभार:-(oshosatsang.org)

तंत्र-सूत्र–विधि–34 (ओशो)

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देखने के संबंध में पांचवी विधि:

‘’जब परम रहस्‍यमय उपदेश दिया जा रहा हो, उसे श्रवण करो। अविचल, अपलक आंखों से; अविलंब परम मुक्‍ति को उपलब्‍ध होओ।‘’

‘’जब परम रहस्‍यम उपदेश दिया जा रहा हो। उसे श्रवण करो।‘’

यह एक गुह्म विधि है। इस गुह्म तंत्र में गुरु तुम्‍हें अपना उपदेश या मंत्र गुप्‍त ढंग से देता है। जब शिष्‍य तैयार होता है तब गुरु उसे उसकी निजता में वक परम रहस्‍य या मंत्र संप्रेषित करता है। वह उसके कान में चुपचाप कह दिया जाएगा। फुसफुसा दिया जाएगा। यह विधि उस फुसफुसाहट से संबंध रखती है।

‘’जब परम रहस्‍यमय उपदेश दिया जा रहा हो, उसे श्रवण करो।‘’

जब गुरु निर्णय करे कि तुम तैयार हो और उसके अनुभव का गुह्म रहस्‍य तुम्‍हें बताया जा सकता है। जब वह समझो कि वह क्षण आ गया है कि तुम्‍हें वह कहा जा सकता है। जो अकथनीय है। तब इस विधि का उपयोग होता है।

‘’अविचल, अपलक आंखों से; अविलंब परम मुक्‍ति को उपलब्‍ध होओ।‘’

जब गुरु अपना गुह्म ज्ञान या मंत्र तुम्‍हारे कान में कहे तो तुम्‍हारी आंखों को बिलकुल स्‍थिर रहना चाहिए। उनमें किसी तरह की भी गति नहीं होनी चाहिए।

इसका मतलब है कि मन निर्विचार हो, शांत हो। पलक भी नहीं हीले; क्‍योंकि पलक का हिलना आंतरिक अशांति का लक्षण है। जरा सी गति भी न हो। केवल कान बन जाओ। भीतर कोई भी हलचल न रहे। और तुम्‍हारी चेतना निष्‍क्रिय, खुली ग्राहक की अवस्‍था में रहे—गर्भ धारण करने की अवस्‍था में। जब ऐसा होगा, जब वह क्षण आएगा जिसमें तुम समग्रता: रिक्‍त होते हो, निर्विचार होते हो, प्रतीक्षा में होते हो—किसी चीज की प्रतीक्षा में नहीं। क्‍योंकि वह विचार कहना होगा, बस प्रतीक्षा में—जब यह अचल क्षण, ठहरा हुआ क्षण घटित होगा, जब सब कुछ ठहर जाता है, समय का प्रवाह बंद हो जाता है, और चित समग्ररतः: रिक्‍त है, तब अ-मन का जन्‍म होता है। और अ-मन में ही गुरु उपदेश प्रेषित करता है।

और गुरु कोई लंबा प्रवचन नहीं देगा। वह बस दो या तीन शब्‍द ही कहेगा। उस मौन में उसके वे एक या दो या तीन शब्‍द तुम्‍हारे अंतर्तम में उतर जाएंगे। केंद्र में प्रविष्‍ट हो जायेंगे। और वे वहां बीज बनकर रहेंगे।

इस निष्‍क्रिय जागरूकता में, इस मौन में ‘’अविलंब परम मुक्‍ति को उपलब्‍ध होओ।‘’

मन से मुक्‍त होकर ही कोई मुक्‍त हो सकता है। मन से मुक्‍ति ही एकमात्र मुक्‍ति है; और कोई मुक्‍ति नहीं है, मन ही बंधन है, दासता है, गुलामी है।

इसलिए शिष्‍य को गुरु के पास उस सम्‍यक क्षण की प्रतीक्षा में रहना होगा जब गुरु उसे बुलाएगा और उपदेश देगा। उसे पूछना भी नहीं है। क्‍योंकि पूछने का मतलब चाह है, वासना है। उसे अपेक्षा भी नहीं करना है; क्‍योंकि अपेक्षा का अर्थ शर्त है। वासना है, मन है। उसे सिर्फ अनंत प्रतीक्षा में रहना है। और जब वह तैयार होगा। जब उसकी प्रतीक्षा समग्र हो जाएगी तो गुरु कुछ करेगा। कभी-कभी तो गुरु छोटी सी चीज करेगा और बात घट जाएगी।

और सामान्‍यत: यदि शिव एक सौ बारह विधियां भी समझा दें तो कुछ नहीं होगा। कुछ भी नहीं होगा। क्‍योंकि तैयारी नहीं है। तुम पत्‍थर पर बीज बोओ तो क्‍या होगा। उसमें बीज का दोष भी नहीं है। ऋतु के बाहर बीज बोने से कुछ नहीं होता है। उसमे बीज का दोष नहीं है। सम्‍यक मौसम चाहिए, सम्‍यक घड़ी चाहिए, सम्‍यक भूमि चाहिए। तो ही बीज जीवित हो उठेगा, रूपांतरित होगा।

तो कभी-कभी छोटी सी चीज काम कर जाती है। उदाहरण के लिए, लिंची ज्ञान को प्राप्‍त हुआ जब वह अपने गुरु के दालान में बैठा था। गुरु आया और हंसा। गुरु ने लिंची की आंखों में देखा और ठहाका मारकर हंस पडा। लिंची भी हंसा। गुरु के चरणों में सिर रखा और वहां से विदा हो गया।

लेकिन वह छह वर्षों से मौन प्रतीक्षा में था। वह दालान छह वर्षों तक उसका घर बना था। गुरु रोज आता था और लिंची को आँख उठाकर भी नहीं देखता था। और वह वहीं रहता था। दो वर्षों के बाद उसने पहली बार उसे देखा। जब और दो वर्ष बीते तो उसने उसकी पीठ थपथपाई। और लिंची प्रतीक्षा करता रहा, प्रतीक्षा करता रहा। छह वर्ष पूरे होने पर गुरु आया और उसकी आँख में आँख डालकर जोर से हंसा।

अवश्‍य ही लिंची ने इस विधि का अभ्‍यास किया होगा।

‘’जब परम रहस्‍यमय उपदेश दिया जा रहा हो। उसे श्रवण करो। अविचल, अपलक आंखों से; अविलंब परम मुक्‍ति को उपलब्‍ध होओ।‘’

गुरु ने देखा और हंसी को अपना माध्‍यम बनाया। वह महान सदगुरू था। सच तो यह है कि शब्‍द जरूरी नहीं थे। मात्र हंसी से काम हो गया। अचानक वह हंसी फूटी और लिंची के भीतर कुछ घटित हो गया। उसने सिर झुकाया, वह भी हंसा और विदा हो गया। उसने लोगो को बताया कि मैं अब नहीं हूं, कि मैं मुक्‍त हो गया।

वह अब नहीं था, यही मुक्‍ति का अर्थ है। तुम मुक्‍त नहीं होते, तुम अपने से मुक्‍त होते हो। और लिंची ने बताया की यह कैसे हुआ।

वह छह वर्षों तक प्रतीक्षा में रहा। यह लंबी प्रतीक्षा थी, धैर्य पूर्ण प्रतीक्षा थी। वह दालान में बैठा रहता था। गुरु रोज ही आता था। और वह ठीक घड़ी की प्रतीक्षा करता कि जब लिंची तैयार हो तो वह कुछ करे। और छह वर्षों तक प्रतीक्षा करते-करते तुम ध्‍यान में उतर ही जाओगे। और क्‍या करोगे। लिंची ने कुछ दिनों तक पुरानी बातों को सोचा विचारा होगा। लेकिन वह कब तक चलेगा।

अगर तुम मन को रोज-रोज भोजन न दो तो धीरे-धीरे मन ठहर जाता है। एक ही चीज को तुम कितने दिनों तक बार-बार चबाते रहोगे। वह बीती बातों पर विचार करता रहा। फिर धीरे-धीरे नया ईंधन न मिलने के कारण उसका मन ठहर गया। उसे न पढ़ने की इजाजत थी, न गपशप करने की। उसे घूमने-फिरने और किसी से मिलने की भी मनाही थी। उसे अपनी शारीरिक जरूरतों को पूरा करके चुपचाप इंतजार करना था। दिन आए और गए; रातें आई और गई। गर्मी आई और गई; जाड़ा आया और गया; वर्षा आई और गई। धीरे-धीरे वह समय की गिनती भूल गया। उसे पता नहीं था कि वह कहां कितने दिनों से टिका था।

और तब एक दिन सहसा गुरु आया और उसने लिंची की आंखों में झाँका। लिंची की आंखें भी सहसा ठहर गई होगी। अचल हो गई होगी। यही क्षण था। छह वर्षों की तपस्‍या के फल का। छह वर्ष लगे इसमें। उसकी आंखों में जरा भ गति नहीं थी। गति होती तो वह चूक जाता। सब कुछ मौन हो चुका था। और तब अचानक अट्टहास। गुरु पागल की तरह हंसने लगा। और वह हंसी लिंची के अंतर्तम से सुनी गई होगी। वहां तक पहुंच गई होगी।

तो जब लिंची से लोगो ने पूछा कि तुम्‍हें क्‍या हुआ तो उसने कहा: ‘’जब मेरे गुरु हंसे सहसा मुझे प्रतीति हुई कि सारी संसार एक मजाक है। उनकी हंसी में से संदेश था: सारा संसार महज एक मजाक है, नाटक है। उस प्रतीति के साथ गंभीरता विदा हो गई। अगर संसार एक मजाक है तो फिर कौन बंधन में है। और किसे मुक्‍त चाहिए।‘’ लिंची ने कहा कि, अब बंधन नहीं रहा। मैं सोचता था कि मैं बंधन में हूं। और इसलिए मैं बंधन-मुक्‍त होने की चेष्‍टा करता था गुरु की हंसी के साथ बंधन गिर गया।‘’

कभी-कभी इतनी छोटी-छोटी बातों से घटना घट गई है कि उसकी तुम कल्‍पना भी नहीं कर सकते। ऐसी अनेक झेन कहानियां है। एक झेन गुरु मंदिर के घंटे की आवाज सुनकर संबोधि को प्राप्‍त हो गया। घंटे की आवाज सुनते-सुनते उसके भीतर कुछ चकनाचूर हो गया। एक झेन साध्‍वी पानी की बहँगी ढो रही थी। और ज्ञान को प्राप्‍त हो गई। एकाएक बांस टूट गया। और घड़े फूट गये। उसकी आवाज, घड़ों का फूटना पानी का बहना, और साध्‍वी आत्‍मोपलब्‍ध हो गई। क्‍या हुआ।

तुम बहुत से घड़े फोड़ दे सकते हो, और कुछ नहीं होगा। लेकिन साध्‍वी के लिए ठीक क्षण आ गया था। वह पानी भरकर लौट रही थी। उसके गुरु ने कहा था, आज रात मैं तुम्‍हें गुह्म मंत्र देने वाला हूं। इसलिए जाकर स्‍नान कर ले और मेरे लिए दो घड़े पानी ले आ। मैं भी स्‍नान कर लुंगा। और तब तुम्‍हें वह मंत्र बताऊंगा जिसके लिए तुम इंतजार कर रही थी।‘’ साध्‍वी जरूर आह्लादित हो उठी होगी कि सौभाग्‍य का क्षण आ गया। उसने स्‍नान किया, घड़े भरे और उन्‍हें लेकिन वापस चली।

पूर्णिमा की रात थी। और जब वह नदी से आश्रम को जा रही थी कि राह में ही बांस टूट गया। और जब वह पहुंची तो गुरु उसकी प्रतीक्षा कर रहा था। गुरु ने उसे देखा और कहा कि अब जरूरत न रही; घटना घट गई। अब मुझे कुछ नहीं कहना। तुमने पा लिया।

वह बूढी साध्‍वी कहा करती थी कि बांस के टूटने के साथ ही मेरे भीतर कुछ टूट गया, मेरे भीतर भी कुछ मिट गया। ये दो घड़े क्‍या फूटे मेरा शरीर ही टूट गिरा। मैने आकाश में चाँद को देखा और पाया कि मेरे भीतर सब कुछ शांत हो गया। और तब से मैं नहीं हूं। मुक्‍त या मोक्ष का यही अर्थ है।

ओशो

विज्ञान भैरव तंत्र, भाग—2

साभार:-(oshosatsang.org)

तंत्र-सूत्र–विधि–04 (ओशो)

Shiv-Tantra

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या जब श्‍वास पूरी तरह बाहर गई है और स्‍वय: ठहरी है, या पूरी तरह भीतर आई है और ठहरी है—ऐसे जागतिक विराम के क्षण में व्‍यक्‍ति का क्षुद्र अहंकार विसर्जित हो जाता है। केवल अशुद्ध के लिए यह कठिन है।

लेकिन तब तो यह विधि सब के लिए कठिन है, क्‍योंकि शिव कहते है कि ‘’केवल अशुद्ध के लिए कठिन है।‘’

लेकिन कौन शुद्ध है? तुम्‍हारे लिए यह कठिन है; तुम इसका अभ्‍यास नहीं कर सकते। लेकिन कभी अचानक इसका अनुभव तुम्‍हें हो सकता है। तुम कार चला रहे हो और अचानक तुम्‍हें लगता है कि दुर्धटना होने जा रही है। श्‍वास बंद हो जाएगी। अगर वह बाहर है तो बाहर ही रह जाएगी। और भी अगर वह भीतर है तो वह भीतर ही रह जायेगी। ऐसे संकट काल में तुम श्‍वास नहीं ले सकते: तुम्‍हारे बस में नहीं है। सब कुछ ठहर जाता है। विदा हो जाता है।

‘’या जब श्‍वास पूरी तरह बाहर गई है और स्‍वत: ठहरी है, या पूरी तरह भीतर आई है और ठहरी है—ऐसे जागतिक विराम के क्षण में व्‍यक्‍ति का क्षुद्र अहंकार विसर्जित हो जाता है।‘’

तुम्‍हारा क्षुद्र अहंकार दैनिक उपयोगिता की चीज है। संकट की घड़ी में तुम उसे नहीं याद रख सकते। तुम जो भी हो, नाम बैंक बैलेंस, प्रतिष्‍ठा, सब काफूर हो जाता है। तुम्‍हारी कार दूसरी कार से टकराने जा रही है। एक क्षण, और मृत्‍यु हो जाएगी। इस क्षण में एक विराम होगा, अशुद्ध के लिए भी विराम होगा। ऐसे क्षण में अचानक श्‍वास बंद हो जाती है। और उस क्षण में अगर तुम बोधपूर्ण हो सके तो तुम उपलब्‍ध हो जाओगे।

जापान में झेन संतों ने इस विधि का बहुत उपयोग किया। इसीलिए उनके उपाय अनूठे है। बेतुके और चकित करने वाले होते है। उन्‍होंने बहुत से ऐसे काम किए है जिन्‍हें तुम सोच भी नहीं सकते। एक गुरु किसी को घर के बाहर फेंक देगा। अचानक और अकारण गुरु शिष्‍य को चांटा मारने लग जायेगा। तुम गुरु के साथ बैठे थे। और अभी तक सब कुछ ठीक था। तुम गपशप कर रहे थे। और वह तुम्‍हें मारने लगा ताकि विराम पैदा हो।

अगर गुरु सकारण ऐसा करे तो विराम नहीं पैदा होगा। अगर तुमने गुरु को गाली दी होती और गुरु तुम्‍हें पीटता तो पीटना सकारण होता है। तुम्‍हारा मन समझ जाता कि मेरी गाली के लिए मुझे मार लगी। असल में तुम्‍हारा मन उसकी अपेक्षा करता। इसलिए विराम नहीं पैदा होगा। लेकिन याद रहे, झेन गुरु गाली देने पर तुम्‍हें नहीं मारेगा। वह हंसेगा, क्‍योंकि तब हंसी विराम पैदा कर सकती है। तुम गाली दे रहे थे, अनाप-शनाप बक रहे थे, और क्रोध का इंतजार कर रहे थे। लेकिन गुरु हंसना या नाचना गुरु कर देता है। यह अचानक है और इससे विराम पैदा होगा। तुम उसे नहीं समझ पाओगे। और अगर नहीं समझ सके तो मन ठहर जाएगा। और जब मन ठहरता है तो श्‍वास भी ठहर जाती है।

दोनों ढंग से घटना घटती है। अगर श्‍वास रूक जाती है। या अगर मन रुकता है तो श्‍वास रूक जाती है। तुम गुरु की प्रशंसा कर रहे थे, तुम अच्‍छी मुद्रा में थे और सोचते थे कि गुरु प्रसन्‍न ही होगा। और गुरु अचानक डंडा उठा लेता है और तुम्‍हें मारने लगता है, वह भी बेरहमी से, क्‍योंकि झेन गुरु बेरहम होते है। वह तुम्‍हें पीटने लगता है और तुम समझ नहीं पाते हो कि क्‍या हो रहा है। उस क्षण मन ठहर जाता है, विराम घटित होता है। और अगर तुम्‍हें विधि मालूम है तो तुम आत्‍मोपलब्‍ध हो सकते हो।

अनेक कथाएं है कि कोई बुद्धत्‍व को उपलब्‍ध हो गया जब गुरू अचानक उसे मारने लगा था। तुम नहीं समझोगे। क्‍या नासमझी है। किसी से पीटने पर या खिड़की से बाहर फेंक दिए जाने पर कोई बुद्धत्‍व को कैसे उपलब्‍ध हो सकता है। अगर तुम्‍हें कोई मार भी डाले तो भी तुम बुद्धत्‍व को उपलब्‍ध नहीं हो सकते। लेकिन अगर इस विधि को तुम समझते हो तो इस तरह की घटनाओं को समझना आसान होगा।

पश्‍चिम में पिछले तीस-चालीस वर्षों के दरम्‍यान झेन बहुत फैला है। फैशन की तरह। लेकिन जब तक वे इस विधि को नहीं जानेंगे, वे झेन को नहीं समझ सकते है। वह इसका अनुकरण कर सकते है, लेकिन अनुकरण किसी काम का नहीं होता है। बल्‍कि वह खतरनाक है। यह चीज अनुकरण करने की नहीं है।

समूची झेन विधि शिव की चौथी विधि पर आधारित है। लेकिन कैसे दुर्भाग्‍य कि अब हमें जापान से झेन का आयात करना होगा; क्‍योंकि हमने पूरी परंपरा खो दी है। हम उसे नहीं जानते। शिव इस विधि के बेजोड़ विशेषज्ञ थे। जब वे अपनी बरात लेकर देवी को ब्याहने पहुंचे थे, समूचे नगर ने विराम अनुभव किया होगा।

देवी के पिता अपनी बेटी को इस हिप्‍पी के साथ ब्‍याहने को बिलकुल राज़ी नहीं थे। शिव मौलिक हिप्‍पी थे। देवी के पिता उनके बिलकुल खिलाफ थे। कोई भी पिता ऐसे विवाह की अनुमति नहीं दे सकता है। इसलिए हम देवी के पिता के खिलाफ कुछ नहीं कह सकते। कौन पिता शिव से विवाह की अनुमति देगा? और तब देवी हठ कर बैठी। और उन्‍हें अनिच्‍छा से , खेद पूर्वक अनुमति देनी पड़ी।

और फिर बरात आई। कहा जाता है कि शिव और उनकी बरात देखकर लोग भागने लगे। समूची बराम मानो एल. एस. डी. मारीजुआना, भाँग और गांजा जैसी चीजें खाकर आये थे। लोग नशे में चूर थे। सच तो यह है कि एल. एस. डी. और मारीजुआना आरंभिक चीजें है। शिव और उनके दोस्‍तों और शिष्‍यों को उस परम मनोमद्य का पता था जिसे वह सोमरस कहते थे। अल्डुअस हक्‍सले ने शिव के कारण‍ ही परम मनोमद्य को सोमा नाम दिया है। वे मतवाले थे, नाचते थे, गाते थे, चीखते-चिल्‍लाते थे। समूचा नगर भाग खड़ा हुआ। अवश्‍य ही विराम का अनुभव हुआ होगा।

अशुद्ध के लिए कोई भी आकस्‍मिक, अप्रत्‍याशित, अविश्वसनीय चीज विराम पैदा कर सकती है। लेकिन शुद्ध के लिए ऐसी चीजों की जरूरत नहीं है। शुद्ध के लिए तो हमेशा विराम उपलब्‍ध है। विराम ही विराम है। कई बार शुद्ध चित के लिए श्‍वास अपने आप ही रूक जाती है। अगर तुम्‍हारा चित शुद्ध है—शुद्ध का अर्थ। है कि तुम किसी चीज की चाहना नहीं करते, किसी के पीछे भागते नहीं—मौन और शुद्ध है, सरल और शुद्ध है, तो तुम बैठे रहोगे और अचानक तुम्‍हारी श्‍वास रूक जाएगी।

याद रखो कि मन की गति के लिए श्‍वास की गति आवश्‍यक है; मन के तेज चलने के लिए श्‍वास का तेज चलना आवश्‍यक है। यही कारण है कि जब तुम क्रोध में होते हो तो तुम्‍हारी श्‍वास तेज चलती है। और यही कारण है कि आयुर्वेद में कहा गया है कि मैथुन अतिशय होगा तो तुम्‍हारी आयु कम हो जायेगी। आयुर्वेद श्‍वास से आयु का हिसाब रखता है। अगर तुम्‍हारी श्‍वास-क्रिया बहुत तीव्र है तो तुम चिरायु नहीं हो सकते।

आधुनिक चिकित्‍सा कहती है कि काम भोग रक्‍त प्रवाह में और विश्राम में जाने में सहयोगी होता है। और जो लोग कामवासना का दमन करते है, वे मुसीबत में पड़ते है। खासकर ह्रदय रोग के शिकार होते है।

आधुनिक चिकित्‍सा ठीक कहती है। अपनी-अपनी जगह आयुर्वेद भी सही है और आधुनिक चिकित्‍सा भी; यद्यपि दोनों परस्‍पर विरोधी मालूम होते है।

आयुर्वेद का आविष्‍कार आज से पाँच हजार साल पहल हुआ था। तब आदमी काफी श्रम करता था; जीवन ही श्रम था। इसलिए विश्राम की जरूरत नहीं थी। और रक्‍त प्रवाह के लिए कृत्रिम उपायों की भी जरूरत नहीं थी। लेकिन अब जिन लोगों को बहुत शारीरिक श्रम नहीं करना पड़ता है उनके लिए काम भोग ही श्रम है।

इसलिए आधुनिक आदमी के बाबत आधुनिक चिकित्‍सा सही है। वह शारीरिक श्रम नहीं करता है, उनके लिए काम भोग श्रम है। काम मे उसकी ह्रदय की धड़कन तेज हो जाती है, उसका रक्‍त प्रवाह बढ़ जाता है और उसकी श्‍वास क्रिया गहरी होकर केंद्र तक पहुंच जाती है। इसलिए संभोग के बाद तुम शिथिल अनुभव करते हो और आसानी से नींद में उतर जाते हो। फ्रायड कहता है कि संभोग सबसे बढ़िया नींद की दवा है। ट्रैंक्विलाइजर है। और आधुनिक आदमी के लिए फ्रायड सही भी है।

काम भोग में क्रोध में श्‍वास क्रिया तेज हो जाती है। काम भोग में मन वासना से, लोग से अशुद्धियों से भरा होता है। जब मन शुद्ध होता है, मन में कोई वासना नहीं होती है, कोई चाह, कोई दौड़ कोई प्रयोजन नहीं होता है, तुम कहीं जा नहीं रहे होते हो, तुम निर्दोष जलाशय की तरह अभी और यहीं ठहरे हुए होते हो, कोई लहर भी नहीं होती है। तब श्‍वास अपने आप ही ठहर जाती है—अकारण।

इस मार्ग पर क्षुद्र अहंकार विसर्जित हो जाता है। और तुम उच्‍चात्‍मा को, परमात्‍मा को उपलब्‍ध हो जाते हो।

ओशो

विज्ञान भैरव तंत्र

(तंत्र-सूत्र—भाग-1)

प्रवचन-2

साभार:-(oshosatsang.org)

अप्प दीपो भव! : एस धम्मो सनंतनो

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भगवान बुद्ध ने ज्ञानोपलब्धि के तुरंत बाद कहा : स्वयं ही जानकर किसको गुरु कहूं और किसको सिखाऊं, किसको शिष्य बनाऊं? और फिर उन्होंने चालीस वर्षों तक लाखों लोगों को दीक्षित भी किया और सिखाया भी। लेकिन महापरिनिर्वाण के पहले उनका अंतिम उपदेश था : अप्प दीपो भव! भगवान इस पर कुछ प्रकाश डालने की अनुकंपा करें।

जिसने भी जाना, सदा स्वयं से जाना।

गुरु हो, तो भी निमित्तमात्र है। गुरु न हो, तो भी चल जाएगा।

असली सवाल ध्यान रखना गुरु के होने, न होने का नहीं है। असली सवाल स्वयं में प्रवेश का है। कुछ साहसी लोग अकेले भी स्वयं में प्रविष्ट हो जाते हैं। कुछ को सहारे की जरूरत पड़ती है। जिनको सहारे की जरूरत पड़ती है, वे भी प्रविष्ट तो अकेले ही होते हैं। सहारा निमित्तमात्र है।

सहारा वस्तुत: सत्य के मिलने में सहयोगी नहीं है, सिर्फ तुम्हारी हिम्मत बढ़ाने में सहयोगी है।

जैसे तुम डरते हो गहरे पानी में जाने में। और कोई कहता है घबड़ाओ मत, मैं किनारे पर खड़ा हूं। तुम जाओ। जरूरत होगी, तो मैं हूं। मैं कूद पड़गा। बचा लूंगा। तुम जाते हो।

जरूरत कभी पड़ती नहीं। क्योंकि वह गहराई तुम्हारी ही गहराई है। उसमें ड़बकर आदमी मिटता नहीं, पहली दफा होता है। इसलिए ड़बने में कोई खतरा ही नहीं है। न ड़बो, तो ही झंझट है। डूबगए, तब तो कोई खतरा नहीं है। डूबगए, तो पहुंच गए। लेकिन जिसने गहराई नहीं जानी, वह डरता है।

गुरु इतना ही करता है कि तुम्हारे झूठे डर को…….। तुमसे अगर वह कहे कि यह डर झूठा है, घबड़ाओ मत; कोई कभी डूबा नहीं है। या डूबभी गए जो, वे पहुंच गए ड़बकर, तो शायद तुम भाग खड़े होओगे। तुम कहोगे, क्या पक्का भरोसा कि कोई कभी डूबा नहीं! और न डूबा हो कोई, मुझे तो लगता है कि मैं डूबजाऊंगा। मैं असहाय, मैं अल्प शक्तिवान, इस विराट सागर में अकेला जाऊं—नहीं होगा। या अगर गुरु कहे तुमसे सच्ची बात—कि डूबगए, तो पहुंच गए। ड़बना सौभाग्य है। मृत्यु महाजीवन का द्वार है। तब तो तुम इस आदमी को बिलकुल ही छोड़कर भाग जाओगे। यहां रुकना भी खतरनाक है! मिटने कोई नहीं आता गुरु के पास; होने आता है। लेकिन होने की प्रक्रिया मिटना है।

तो गुरु ये बातें नहीं कहता। इन बातों को छिपाकर रखता है। यह तो तुम जानोगे, तब जानोगे। तुम्हें आश्वासन देता है. घबड़ाओ मत, मैं तो खड़ा हूं। देखते नहीं मुझे कि इतनी गहराइयों में तैरता हूं। तुम ड़बोगे, तो मैं बचा लूंगा।

यह एक झूठ को दूसरे झूठ से सहारा देकर तुम्हें हिम्मत, तुम्हें साहस देने की चेष्टा है। यह उपाय है। इस भांति तुम उतर जाते हो। उतर गए, तो तुम स्वयं जानोगे कि बचाने की कोई जरूरत न थी। बचाना तो महंगा पड़ जाता। उतरकर तो ड़बना ही है। ड़बकर गहराई हो जाना है। उसी गहराई में समाधि है, निर्वाण है।

तो गुरु को तुम्हें बचाने कभी जाना नहीं पड़ता। गुरु तो तुम्हें इस बहाने भेज रहा है कि बचा लूंगा, घबडाओ मत, जाओ तो।

एक दफा गए, तो खुद ही स्वाद लग जाएगा। और ड़बने का स्वाद लग गया, तो राज समझ में आ गया। जब तुम पा लोगे, तब तुम कहोगे अरे! यह तो अपने से हो गया! तब तुम जानोगे भलीभांति कि गुरु को कुछ भी न करना पड़ा।

फिर भी तुम अनुग्रह मानोगे, यद्यपि गुरु ने कुछ भी नहीं किया। इतना तो किया कि तुम एक व्यर्थ की बात से डरे थे, तुम्हें सहारा दिया। उस समय सहारा बड़ा जरूरी था।

अब यह जरा जटिल मामला है। सहारा गुरु देता भी नहीं, क्योंकि सहारे की कोई जरूरत नहीं है। और देता भी है। क्योंकि तुम झूठ हो। तुम अंधेरे में खड़े हो। तुम्हें कुछ दिखायी नहीं पड़ता। तुम्हें सहारे की जरूरत है, तो तुम्हें सहारा देता है। यद्यपि सहारे की जरूरत कभी नहीं पड़ती।

तुम्हें बेसहारा छोड़ने में ही गुरु की कला है। अगर कोई गुरु तुम्हें सहारा सच में दे दे, तो तुम वंचित रह जाओगे। वही सहारा अटकाव हो जाएगा।

एस धम्मो सनंतनो

ओशो