जहां भी ध्यान जा रहा हो वहीं भगवान को स्थापित कर लें

अभी एक डच महिला मेरे पास थी। वह किसी आश्रम में संन्यासिनी है। बच्चा उसका है छोटा। वह मेरे पास आई, उसने कहा कि जब से यह बच्चा हुआ है, तब से मैं ध्यान नहीं कर पाती।

कितना ही ध्यान लगाकर बैठूं ।बस मुझे इसका ही। जब ध्यान लगाती हूं, तो और इसका खयाल आता है कि पता नहीं,
कहीं बाहर न सरक गया हो; कहीं झूले से नीचे न उतर गया हो,
कहीं गाय के नीचे न आ जाए; कहीं कुछ हो न जाए!
तो मेरा सब ध्यान नष्ट हो गया है।

दो साल से आश्रम में हूं इस बच्चे की वजह से मेरा सब ध्यान नष्ट हो गया है।

तो अब मैं क्या करूं ???

मैंने उससे कहा, ध्यान को छोड़, बच्चे पर ही ध्यान कर। अब ध्यान को बीच में क्यों लाना! बच्चा काफी है।

मैं क्या करूं ???

ध्यान मत कर, जब बच्चा झूले में लेटा हो, तो तू पास बैठ जा और बच्चे पर ही आंख से ध्यान कर।

बच्चे को ही भगवान समझ। अच्छा मौका मिल गया। बच्चे पर इतना ध्यान दौड़ रहा है सहज,
बच्चे में भगवान देखना शुरू कर।

पंद्रह दिन में उसे लगा कि मैंने वर्षों ध्यान करके जो नहीं पाया, वह इस बच्चे पर ध्यान करके पा रही हूं। और अब बच्चा मुझे दुश्मन नहीं मालूम पड़ता; बीच में जब मुझे ध्यान में बाधा पड़ती थी, बच्चा दुश्मन मालूम पड़ता था। अब बच्चा मुझे सच में ही भगवान मालूम पड़ने लगा है; क्योंकि इसके ऊपर मेरा ध्यान जितना गहरा हो रहा है, उतना किसी भी प्रक्रिया से कभी नहीं हुआ था।

अनन्य भाव का अर्थ है, जहां भी आपका भाव दौड़ता हो, वहीं भगवान को स्थापित कर लें।

दो उपाय हैं।
एक तो यह है कि कहीं भगवान है, आप सब तरफ से अपने ध्यान को खींचकर भगवान पर ले जाएं।
यह बहुत मुश्किल है; इसमें आप हारेंगे; इसमें जीत की संभावना न के बराबर है। कभी हजार में एक आदमी जीत पाता है सब तरफ से खींचकर भगवान की तरफ ले जाने में। कठिन है। शायद नहीं हो पाएगा।

पर एक बात हो सकती है, जहां भी ध्यान जा रहा हो, वहीं भगवान को रख लें। अगर वेश्या के घर भी आपके पैर जा रहे हैं, और ध्यान वेश्या की तरफ जा रहा है,
तो चूके मत मौका; वेश्या को भी भगवान ही समझ लें। और आपके पैर की धुन बदल जाएगी, और आपकी चेतना का भाव बदल जाएगा, और एक न एक दिन आप पाएंगे कि वेश्या के घर गए थे, लेकिन मंदिर से वापस लौटे हैं!

🌼 गीता दर्शन–(भाग–4) प्रवचन–111 🌼

🌹 *ओशो🌹

तुम्हारी प्यास ही परमात्मा के होने का प्रमाण है!

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तुम जीवन को “हां’ कहो, बेशर्त “हां’ कहो।
और तुम पाओगे, दिल की लगी पूरी होती है,
निश्चित होती है। होने के ही लिए लगी है।
नहीं तो लगती ही न।
यह जो प्यास तुम्हारे भीतर है परमात्मा को पाने की, यह होती ही न, अगर परमात्मा न होता।
तुमने जीवन में कभी देखा, ऐसी किसी चीज की प्यास देखी, जो न हो ?
प्यास लगती है तो पानी है; प्यास के पहले पानी है। भूख लगती है तो भोजन है; भूख के पहले भोजन है। प्रेम उठता है तो प्रेयसी है, प्रेमी है; प्रेम के पहले मौजूद है। इस जगत में जो भी तुम्हारे भीतर है प्यास, उसको तृप्त करने का कहीं न कहीं उपाय है।
अगर परमात्मा की प्यास है तो प्रमाण हो गया कि परमात्मा भी कहीं है। तुम्हारी प्यास प्रमाण है।
तुम प्यास पर भरोसा करो। प्यास को “हां’ कहो।
आस्था रखो। और प्यास में सब भांति अपने को डुबा दो–इस भांति, कि प्यास ही बचे और तुम न बचो।
तुम गये नहीं कि परमात्मा आया नहीं।
तुम्हारा जाना ही उसका आना है।

🌹🙏 ओशो 🙏🌹✍

संग का रंग लगता ही है या कि यह…

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भगवान,
संग का रंग लगता ही है या कि यह केवल संयोग मात्र है? कृपा कर समझावें!

ओशो:-
राजेंद्र भारती, सब तुम पर निर्भर है। वर्षा होती हो और तुम छाता लगा कर खड़े हो जाओ, तो भीगोगे नहीं। छाता बंद कर लो, और भीग जाओगे। वर्षा होती हो, तुम छिद्र वाला घड़ा ले जाकर आकाश के नीचे रख दो; भर भी जाएगा और फिर भी खाली हो जाएगा। छिद्र बंद कर दो, भरेगा और भरा रह जाएगा। वर्षा होती हो, छिद्रहीन घड़े को भी आकाश के नीचे ले जाकर उलटा रख दो; तो वर्षा होती रहेगी और घड़ा खाली का खाली रहेगा। सब तुम पर निर्भर है।
सदगुरु तो वर्षा है–अमृत की वर्षा! तुम लोगे तो तुम्हारे प्राणों को रंग जाएगा। तुम न लोगे, द्वार-दरवाजे बंद किए बैठे रहोगे, तो चूक जाओगे।
तुम पूछ रहे हो: “संग का रंग लगता ही है या कि यह केवल संयोग मात्र है?’
अनिवार्यता नहीं है और संयोग भी नहीं। संग का रंग लगता ही होता, तब तो जो भी सदगुरु के पास आ जाता उसी को रंग लग जाता। फिर तो जिन्होंने जीसस को सूली दी, वे सूली देते-देते रंग गए होते। फिर तो जिन्होंने बुद्ध को पत्थर मारे, वे पत्थर मारते-मारते रंग गए होते।
संग का रंग लगे ऐसी कोई अनिवार्यता नहीं है। ऐसी अनिवार्यता तो जगत में किसी चीज की नहीं है। आग भी तभी जलाएगी जब तुम हाथ डालोगे। हाथ तुम दूर रखो, आग नहीं जलाएगी। आग जलती रहेगी। आग अपने को जलाती रहेगी। मगर अगर हाथ डालोगे तो जलोगे।
सदगुरु के पास आओगे तो रंग लगेगा। हाथ डालोगे तो जलोगे। प्राण डाल दोगे तो जो भी व्यर्थ है, कूड़ा-कर्कट है, सब कचरा हो जाएगा; सोना निखर आएगा।
और यह संयोग मात्र भी नहीं है। संयोग मात्र का तो अर्थ है: कभी हो जाए, कभी न हो। हो जाए तो हो जाए, न हो तो न हो; कोई नियमबद्धता नहीं है। ऐसा भी नहीं है।
आग में हाथ का जलना संयोग मात्र नहीं है। आग में हाथ डालोगे तो जलोगे ही, नियम से जलोगे। ऐसा नहीं कि कभी जलो और कभी न जलो। कभी आग कहे कि आज दिल ही जलाने का नहीं है। और कभी कहे कि आज जरा दूर ही रहना, आज दुगना जलाऊंगी। संयोग नहीं है आग में हाथ डाल कर जलना और अनिवार्यता भी नहीं है। क्योंकि अनिवार्यता होती तो तुम कहीं भी होते तो जल जाते। दूर खड़े रहते तो भी जल जाते।…

ओशो ✍उत्सव आमार जाति आनंद आमार गोत्र-प्रवचन-०१

मृत्यु का आध्यात्मिक अर्थ

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एक ही उपाय है: पांचवां दिन।

चार दिन जिंदगी के।
ये जिंदगी के चार दिन ऐसे ही बीत जाते हैं—
दो आरजू में, दो इंतजार में।
दो मांगने में, दो प्रतीक्षा करने में।
कुछ हाथ कभी लगता नहीं।
पांचवां दिन असली दिन है।

जब भी तुम्हें समझ आ गई इस बात की, कि मेरा होना ही मेरे होने में अड़चन है…

क्योंकि मेरे होने का मतलब है कि मैं परमात्मा से अलग हूं।
मेरे होने का मतलब है कि मैं इस विराट से अलग हूं।
मेरे होने का मतलब है कि मैं एक नहीं, संयुक्त नहीं, इस परिपूर्ण के साथ एकरस नहीं।
यही तो अड़चन है।
यही दुख है।
यही नरक है।
दीवाल हट जाए।
यह मेरे होने का भाव खो जाए —मृत्यु।

मृत्यु का अर्थ यह नहीं कि तुम जाकर गरदन काट लो अपनी। मृत्यु का यह अर्थ नहीं कि जाकर जहर पी लो।

मृत्यु का अर्थ है: अहंकार काट दो अपना।

मैं हूं तुझसे अलग, यह बात भूल जाए।
मैं हूं तुझमें।
मैं हूं ऐसे ही तुझमें जैसे लहर सागर में।
लहर सागर से अलग नहीं हो सकती। कितनी ही छलांग ले और कितनी ही ऊंची उठे, जहाजों को डुबाने वाली हो जाए। पहाड़ों को डूबा दे—लेकिन लहर सागर से अलग नहीं हो सकती। लहर सागर में है, सागर की है।

ऐसे ही तुम हो—
विराट चैतन्य के सागर की एक छोटी सी लहर।
एक ऊर्मि!
एक किरण!

अपने को अलग मानते हो, वहीं अड़चन शुरू हो जाती है। वहीं से परमात्मा और तुम्हारे बीच संघर्ष शुरू हो जाता है।

और उससे लड़ कर क्या तुम जीतोगे?
कैसे जीतोगे?
क्षुद्र विराट से कैसे जीतेगा?
अंश अंशी से कैसे जीतेगा?
लहर सागर से लड़ कर कैसे जीतेगी?

कितनी ही बड़ी हो, सागर के समक्ष तो बड़ी छोटी है। यह भाव तुम्हारा चला जाए, उसका नाम मृत्यु। मैं सागर की लहर हूं। सागर मुझमें, मैं सागर में। मेरा अलग—थलग होना नहीं है।

और उसी क्षण तुम पाओगे पांचवां दिन घट गया। फिर भी तुम जी सकते हो।

बुद्ध का पांचवां दिन घटा, फिर चालीस साल और जीए। मगर वह जिंदगी फिर और थी। कुछ गुण धर्म और था उस जिंदगी का। उस जिंदगी का रस और था, उत्सव और था। फिर सच में जीए। उसके पहले जिंदगी क्या जिंदगी थी?

ओशो ✍ : पद घुंघरू बांध – मीरा बाई

हम कभी काम पर ध्यान नहीं करते

पुरुष, चार हजार व स्त्री लाख बार सम्भोग से गुजर सकती है: ओशो
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कामवासना उठती है हजार बार। थोड़े अनुभव नहीं हैं। एक पुरुष अपने जीवन में, साधारण स्वस्थ पुरुष, चार हजार संभोग कर सकता है, करता है । चार हजार बार काम के अनुभव से गुजरता है एक पुरुष। स्त्री तो लाख बार गुजर सकती है। उसकी क्षमता गहन है। इसलिए पुरुष वेश्याएं नहीं हो सके; स्त्रियां वेश्याएं हो सकीं।

लाख बार भी काम के अनुभव से गुजरकर यह पता नहीं चलता कि यह काम-ऊर्जा, यह सेक्स-एनर्जी क्या है?
क्योंकि हम कभी काम पर ध्यान नहीं करते
कभी हम सेक्स पर मेडिटेशन नहीं करते

इस जगत में जो भी ज्ञान उपलब्ध होता है, वह ध्यान से उपलब्ध होता है–जो भी ज्ञान
चाहे विज्ञान की प्रयोगशाला में उपलब्ध होता हो; और चाहे योग की अंतःप्रयोगशाला में उपलब्ध होता हो। जो भी ज्ञान जगत में उपलब्ध होता है, वह ध्यान से उपलब्ध होता है।
ध्यान ज्ञान को पाने का इंस्ट्रूमेंट, उपाय, विधि, मेथड है ।

कभी आपने ध्यान किया है सेक्स पर?

आप कहेंगे, बहुत बार किया है
चिंतन किया है, ध्यान नहीं किया
सोचते तो बहुत हैं; जितना करते नहीं, उतना सोचते हैं।

काम के अनुभव से जितना गुजरते हैं, उससे लाख गुना ज्यादा काम के विचार से गुजरते हैं
चौबीस घंटे घूम-फिरकर काम मन में सरकता रहता है।

चिंतन तो किया है, ध्यान नहीं किया
चिंतन का अर्थ है, जो भीतर वासना घटती है, उसके साथ ही बह जाते हैं; दूर खड़े होकर देख नहीं पाते । मन में उठा काम का विचार, तो आप भी काम के विचार के साथ आइडेंटिफाइड हो जाते हैं; तादात्म्य हो जाता है।

आप ही काम हो जाते हैं, यू बिकम दि सेक्स
फिर ऐसा नहीं होता कि काम की ऊर्जा उठी है, मैं दूर खड़ा देखता हूं, क्या है?

एक वैज्ञानिक प्रयोगशाला में प्रवेश करता है, परीक्षण करता, खोज करता, प्रयोग करता, निरीक्षण करता, दूर खड़े होकर देखता, क्या हो रहा है?

अगर वैज्ञानिक जो कर रहा है, उसके साथ आइडेंटिफाइड हो जाए…जैसे एक वैज्ञानिक एक केमिकल पर, एक रासायनिक द्रव्य पर खोज कर रहा है।

वह खुद को ही समझ ले कि मैं ही रासायनिक द्रव्य हूं, तो हो गई खोज फिर कभी नहीं होगी। वह आदमी ही खो गया, जो खोज कर सकता था।

केमिकल द्रव्य खोज कर सकते होते, तो उन्होंने कभी की खोज कर ली होती वैज्ञानिक की शर्त यह है कि वह आब्जर्व कर सके, निरीक्षण कर सके आब्जर्वेशन विज्ञान का मूल आधार है।

जिसे विज्ञान आब्जर्वेशन कहता है, निरीक्षण कहता है, उसे ही योग, धर्म, ध्यान कहता है
वह धर्म की पारिभाषिक शब्दावली ध्यान है
ध्यान का मतलब है, जो भी देख रहे हैं, उससे दूर खड़े होकर देख सकें, टु बी ए विटनेस। एक गवाह की तरह देख सकें; सम्मिलित न हो जाएं

जिस इंद्रिय के साथ आपका एकात्म हो जाता है, उसे आप कभी न जान पाएंगे जिस इंद्रिय के रस के साथ आप इतने डूब जाते हैं कि भूल जाते हैं कि मैं देखने वाला हूं, बस, फिर ध्यान नहीं हो पाता फिर कभी इंद्रियों के रस का ज्ञान नहीं हो पाता क्रोध उठे, तो क्रोध से जरा दूर खड़े होकर देखें, क्या है?

लेकिन हम भगवान पर तो ध्यान करते हैं, जिसका हमें कोई पता नहीं जिसका हमें पता नहीं, उस पर तो ध्यान होगा कैसे ध्यान तो उस पर हो सकता है, जिसका हमें पता है। भगवान पर ध्यान करते हैं, जिसका हमें कोई पता नहीं है। क्रोध पर, काम पर कभी ध्यान नहीं करते, जिसका हमें पता है।

और मजा यह है कि जो काम, क्रोध और बाकी इंद्रियों के समस्त उपद्रव के प्रति, ऊर्जा के प्रति, विस्फोट के प्रति ध्यान करने में समर्थ हो जाता है; जैसे-जैसे उसका ध्यान बढ़ता है इंद्रियों पर, वैसे-वैसे इंद्रियां विजित होती चली जाती हैं, हारती चली जाती हैं
वह जीतता चला जाता है; उतना रिकवर करता चला जाता है; उतनी जमीन वापस लेता चला जाता है
उतनी-उतनी इंद्रिय अपनी ताकत छोड़ती चली जाती है, जहां-जहां ध्यान की किरण प्रवेश कर जाती है

क्रोध को जिसने जान लिया, वह क्रोध नहीं कर सकता। काम को जिसने जान लिया, वह कामातुर नहीं हो सकता लोभ को जिसने जान लिया, वह लोभ में नहीं पड़ सकता
अहंकार को जिसने पहचाना, वह अहंकार के बाहर है।

ओशो, गीता दर्शन, प्रवचन- 35

जो बोओगे, वही काटोगे भी

जो भी आप देते है अंततः वही आपके पास वापस लौटता है।

इसकी भी फिकर मत करो कि इस आदमी को दिया तो यही लौटाए। कहीं से लौट आएगा, हजार गुना होकर लौट आएगा, तुम फिकर मत करो। प्रेम लौटता ही है।

अगर न लौटे, तो सिर्फ एक प्रमाण होगा कि तुमने दिया ही न होगा। अगर न लौटे, तो फिर से सोचना—तुमने दिया था? या सिर्फ धोखा किया था? देने का दिखावा किया था या दिया था? अगर दिया था तो लौटता ही है। यह इस जगत का नियम है। जो तुम देते हो, वही लौट आता है—घृणा तो घृणा, प्रेम तो प्रेम, अपमान तो अपमान, सम्मान तो सम्मान।

तुम्हें वही मिल जाता है हजार गुना होकर, जो तुम देते हो। यह जगत प्रतिध्वनि करता है, हजार—हजार रूपों में।

अगर तुम गीत गुनगुनाते हो तो गीत लौट आता है। अगर तुम गाली बकते हो तो गाली लौट आती है।

जो लौटे, समझ लेना कि वही तुमने दिया था। जो बोओगे, वही काटोगे भी।

– ओशो

स्वर्णिम बचपन ( सत्र – 15 ) ~ ओशो

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मृत्यु अंत नहीं है लेकिन वह सिर्फ समस्त जीवन का चरम बिंदु है, पराकाष्ठा है । ऐसा नहीं है कि तुम समाप्त हो गए,
बल्कि तुम दूसरे शरीर में चले गए । पूर्व के लोग इसी को चक्र कहते हैं । यह घूमता रहता है, घूमता रहता है ।
हां, इसको रोका जा सकता है, लेकिन इसको रोकने का उपाय मरते समय नहीं किया जा सकता ।

नाना की मृत्यु से मैंने सबसे बड़ा पाठ यही सीखा ।
वे रो रहे थे और आंखो में आंसू भर कर वे हमें चक्र रोकने के लिए कह रहे थे । हमें समझ नहीं आ रहा था कि क्या करें, चक्र को कैसे रोके । अब उनका चक्र तो उनकी अपनी चेतना थी और वे ही इसे करा सकते थे ।
इसलिए उनके आंसू बह रहे थे और उसे रोकने को हमसे बार-बार कह रहे थे । जैसे कि हम बहरे हो, हमने उनसे कहा: नाना आपकी बात को सुन लिया है और हम समझ रहे हैं । कृपया आप चुप हो जाइए ।ʼ
उस क्षण कुछ हुआ, कुछ घटा । मैंने इसके बारे में कभी किसी को कुछ नहीं बताया । शायद इससे पहले समय उपयुक्त नहीं था । मैं उनसे कह रहा था, आप चुप हो जाइए ।ʼ…उस कच्ची ऊबड़-खाबड़ सड़क पर बैलगाड़ी खड़खड़ करती हुई चल रही थी और वे कह रहे थे,

राजा, चक्र को रोको, तुम सुन रहे हो । चक्र को रोको ।ʼ
मैं भी उनसे बार-बार कह रहा था, कृपया आप चुप हो जाइए और मैं आपकी सहायता करने की कोशिश
करूंगा । मेरी नानी तो हैरान हो गई । उन्होंने अपनी
बड़ी-बड़ी आंखों से आश्चर्यचकित होकर मुझे देखा कि
मैं क्या कह रहा हूं । और मैं कैसे उनकी सहायता कर सकता हूं ?
मैंने कहा : इतना हैरान होने की कोई बात नहीं है ।
अचानक मुझे अपने पिछले एक जीवन की याद आ
गई है । इस मृत्यु को देख कर मुझे अपनी एक मृत्यु की याद आ गई है । ʼ

मेरा वह जन्म और मृत्यु तिब्बत में हुआ था । वही एकमात्र ऐसा देश है जो वैज्ञानिक ढंग से जानता है कि इस चक्र को कैसे रोका जा सकता है । इसके बाद मैंने कुछ जपना आरंभ कर दिया । न तो मेरी नानी समझ सकी, न मरते हुए नाना और न मेरा नौकर भूरा जो
बाहर बैठा हुआ बड़े ध्यान से सुन रहा था ।
बाहर-तेरह वर्ष के बाद मेरी समझ में आया कि
वह क्या था । इतना समय लगा उसको खोजने में ।
तिब्बत के इस कर्मकांड को ” बारदो -थोड़ाल ” कहते है ।
तिब्बत में जब कोई आदमी मरता है तो वे लोग एक विशेष मंत्र जाप करते है । उस मंत्र को बारदो कहते है ।
वह मंत्र उस मरते हुए आदमी से कहता है,

‘शांत हो जाओ, मौन हो जाओ
अपने केंद्र पर जाओ और वहीं रहो ।
शरीर को कुछ भी हो, तुम केंद्र से मत हटो ।
केवल साक्षी बने रहो । जो हो रहा है उसे होने दो,
बीच में बाधा मत डालो । याद रखो, याद रखो, कि
तुम केवल साक्षी हो और वही तुम्हारा सच्चा स्वभाव है ।अगर उसे याद रखते हुए तुम मरोगे तो यह चक्र रूक जाएगा ।

मैंने अपने मरते हुए नाना को बारद-थोड़ाल का
जाप किया, बिना यह जाने कि मैं क्या कर रहा हूं ।
अजीब बात तो यह थी की मैं जब इस मंत्र का जप कर रहा था तो मेरे नाना इसको सुन कर बिल्कुल शांत हो
गए । शायद तिब्बत भाषा का एक शब्द भी इससे पहले न सुना हो । उनको तो शायद यह भी नहीं मालूम था कि तिब्बत नाम का कोई देश भी है । मृत्यु के समय में भी
वे चुप और एकाग्र हो गए …बारदो ने अपना काम किया,
हलांकि वे उसे समझ नहीं सके । कभी-कभी वे बाते काम कर देती है जो समझ में नहीं आती, क्योंकि तुम उन्हें नहीं समझ पाते इसलिए वे काम कर देती है । मैं बारदो को दोहरा रहा था । हालांकि मैं उसका अर्थ नहीं समझ रहा था । नहीं मुझे मालूम था कि वह कहां से आ रहा है ।
क्योंकि मैंने तब तक इसको नहीं पढ़ा था ।
लेकिन जब मैं उसका जाप कर रहा था तो उन विचित्र शब्दों की आवाज से ही मेरे नाना शांत हो गए । उस
मौन में ही उनकी मृत्यु हुई । मौन में जीना तो सुंदर है ही,
लेकिन मौन में मरना उससे भी अधिक सुंदर है ।
क्योंकि मृत्यु हिमालय की सबसे ऊंची चोटी एवरेस्ट
जैसी है । जब किसी ने मुझे सिखाया नहीं फिर भी मौन के उस क्षण में मैंने बहुत कुछ सीखा । मैंने अपने आपको अजीब शब्द दोहराते हुए देखा । इस शाक ने मेरी चेतना को नए स्तर पर पहुंचा दिया और मुझे एक नये आयाम
में प्रविष्ट कर दिया । मैं एक नई खोज पर निकल पड़ा-एक नई तीर्थयात्रा पर । इस तीर्थयात्रा में मेरी भेंट जिन असाधारण अद्भुत लोगो से हुई उनकी संख्या उन अनोखे लोगो से कहीं अधिक है जिनक उल्लेख गुरजिएफ ने अपनी पुस्तक
‘मीटिंग विद द रिमार्केबल में किया गया है।

स्वर्णिम बचपन ( सत्र – 15 ) ~ ओशो

तुम ऐसे मिट जाओ कि आत्मा भी न बचे

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जो दावा करे कि उसने धर्म को पा लिया है, उसने तो निश्चित ही न पाया होगा। दावेदारी का धर्म से कोई संबंध नहीं है। यह तो बात ही छोटी हो गई। जिसे तुम पा लो, वह धर्म ही बड़ा छोटा हो गया। जो तुम्हारी मुट्ठी में आ जाए, वह विराट न रहा। जिसे तुम्हारी बुद्धि समझ ले, वह समझने के योग्य ही न रहा। जिसे तुम्हारे तर्क की सरणी में जगह बन जाए, जो तुम्हारे कटघरों में समा जाए, वह धर्म का आकाश न रहा।

बुद्ध ने कहा है, जब तुम ऐसे मिट जाओ कि आत्मा भी न बचे, अनात्मा हो जाओ, अनात्मावत हो जाओ, अनत्ता हो जाओ, शून्य हो जाओ, तभी जिसका आविर्भाव होता है, वही धर्म है—एस धम्मो सनंतनो।

पंडित की मुट्ठी में धर्म होता है। ज्ञानी धर्म की मुट्ठी में होता है। पंडित धर्म को जानता है, ज्ञानी को धर्म जानता है। जिसने जाना, उसने यही जाना कि जानने वाला बचता कहां है! जिसने जाना, उसने यही जाना कि अपने कारण ही न जान पाते थे, हम ही बाधा थे, जब हम मिट गए, जब हम न रहे, तब अवतरण हुआ।

ऐसा नहीं है कि तुम्हारे भीतर कुछ बाधाएं हैं, जिनके कारण तुम धर्म को नहीं जान पा रहे हो—तुम बाधा हो। तुम्हारे कारण तुम धर्म को नहीं जान पा रहे हो। तुम्हें समझाया गया है, अज्ञान के कारण नहीं जान पा रहे हो; गलत है बात। तुम्हें समझाया गया है, पाप के कारण नहीं जान पा रहे हो; गलत है बात।

____मैं तुमसे कहता हूं तुम्हारे कारण नहीं जान पा रहे हो। अगर तुम रहे और पुण्य भी किया तो भी न जान पाओगे। अगर तुम रहे और अज्ञान की जगह ज्ञान भी पकड़ लिया तो भी न जान पाओगे। पाप तो रोकेगा ही, पुण्य भी रोकेगा। अज्ञान तो रोकेगा ही, ज्ञान भी रोकेगा।

➡एस धम्‍मो सनंतनो-प्र–34

🍁ओशो🍁

Meditation is rest, absolute rest

Meditation is rest, absolute rest, a full stop to all activity — physical, mental, emotional. When you are in such a deep rest that nothing stirs in you, when all action as such ceases, as if you are fast asleep yet awake, you come to know who you are. Suddenly the window opens.

It cannot be opened by effort, because effort creates tension and tension is the cause of our whole misery. Hence this is something very fundamental to be understood,,that meditation is not effort.

One has to be very playful about meditation, one has to learn to enjoy it as fun. One has not to be serious about it — be serious and you miss. One has to go into it very joyously. And one has to keep aware that it is falling into deeper and deeper rest. It is not concentration, just the contrary, it is relaxation.

When you are utterly relaxed, for the first time you start feeling,,your reality, you come face to face with your being. When you are engaged in activity you are so occupied that you cannot see yourself. Activity creates much smoke round you, it raises much dust around you; hence all activity has to be dropped, at least for a few hours every day.

That is only so in the beginning. When you have learned the art of being at rest then you can be both active and restful together, because then you know that rest is something so inner that it cannot be disturbed by anything outer, the activity goes on on the circumference and at the centre you remain restful.

So it is only for beginning that activity has to be dropped for a few hours. Then one has learned the art then there is no question: for twenty-four hours a day one can be meditative and one can continue all the activities of ordinary life.

But remember, the key word is rest, relaxation.

💓Osho💓
Abridged from
The Golden Wind
A Darshan Dairy
Ch# 15

तुम बुद्धत्व की खोज नहीं कर रहे हो

buddha

“अब तुम पूछोगे कि तो मुझे क्या करना चाहिए? मैं कहूँगा कि सुख के प्रति अपनी आसक्ति त्याग दो। तुम बुद्धत्व की खोज नहीं कर रहे हो, बल्कि तुम तो सुख की खोज में लगे हुए हो। बुद्धत्व तो सिर्फ एक बहाना है।

जीवन से प्रेम करो, और अधिक खुश रहो। जब तुम एकदम प्रसन्न होते हो, संभावना तभी होती है, वरना नहीं। कारण यह है कि दुख तुम्हें बंद कर देता है, सुख तुम्हें खोलता है। क्या तुमने यही बात अपने जीवन में नहीं देखी? जब भी तुम दुखी होते हो, बंद हो जाते हो, एक कठोर आवरण तुम्हें घेर लेता है। तुम खुद की सुरक्षा करने लगते हो, तुम एक कवच-सा ओढ़ लेते हो।

वजह यह है कि तुम जानते हो कि तुम्हें पहले से काफी तकलीफ है और अब तुम और चोट बर्दाश्त नहीं कर सकते। दुखी लोग हमेशा कठोर हो जाते हैं। उनकी नरमी खत्म हो जाती है, वे चट्टानों जैसे हो जाते है……