अभी एक डच महिला मेरे पास थी। वह किसी आश्रम में संन्यासिनी है। बच्चा उसका है छोटा। वह मेरे पास आई, उसने कहा कि जब से यह बच्चा हुआ है, तब से मैं ध्यान नहीं कर पाती।
कितना ही ध्यान लगाकर बैठूं ।बस मुझे इसका ही। जब ध्यान लगाती हूं, तो और इसका खयाल आता है कि पता नहीं,
कहीं बाहर न सरक गया हो; कहीं झूले से नीचे न उतर गया हो,
कहीं गाय के नीचे न आ जाए; कहीं कुछ हो न जाए!
तो मेरा सब ध्यान नष्ट हो गया है।
दो साल से आश्रम में हूं इस बच्चे की वजह से मेरा सब ध्यान नष्ट हो गया है।
तो अब मैं क्या करूं ???
मैंने उससे कहा, ध्यान को छोड़, बच्चे पर ही ध्यान कर। अब ध्यान को बीच में क्यों लाना! बच्चा काफी है।
मैं क्या करूं ???
ध्यान मत कर, जब बच्चा झूले में लेटा हो, तो तू पास बैठ जा और बच्चे पर ही आंख से ध्यान कर।
बच्चे को ही भगवान समझ। अच्छा मौका मिल गया। बच्चे पर इतना ध्यान दौड़ रहा है सहज,
बच्चे में भगवान देखना शुरू कर।
पंद्रह दिन में उसे लगा कि मैंने वर्षों ध्यान करके जो नहीं पाया, वह इस बच्चे पर ध्यान करके पा रही हूं। और अब बच्चा मुझे दुश्मन नहीं मालूम पड़ता; बीच में जब मुझे ध्यान में बाधा पड़ती थी, बच्चा दुश्मन मालूम पड़ता था। अब बच्चा मुझे सच में ही भगवान मालूम पड़ने लगा है; क्योंकि इसके ऊपर मेरा ध्यान जितना गहरा हो रहा है, उतना किसी भी प्रक्रिया से कभी नहीं हुआ था।
अनन्य भाव का अर्थ है, जहां भी आपका भाव दौड़ता हो, वहीं भगवान को स्थापित कर लें।
दो उपाय हैं।
एक तो यह है कि कहीं भगवान है, आप सब तरफ से अपने ध्यान को खींचकर भगवान पर ले जाएं।
यह बहुत मुश्किल है; इसमें आप हारेंगे; इसमें जीत की संभावना न के बराबर है। कभी हजार में एक आदमी जीत पाता है सब तरफ से खींचकर भगवान की तरफ ले जाने में। कठिन है। शायद नहीं हो पाएगा।
पर एक बात हो सकती है, जहां भी ध्यान जा रहा हो, वहीं भगवान को रख लें। अगर वेश्या के घर भी आपके पैर जा रहे हैं, और ध्यान वेश्या की तरफ जा रहा है,
तो चूके मत मौका; वेश्या को भी भगवान ही समझ लें। और आपके पैर की धुन बदल जाएगी, और आपकी चेतना का भाव बदल जाएगा, और एक न एक दिन आप पाएंगे कि वेश्या के घर गए थे, लेकिन मंदिर से वापस लौटे हैं!
🌼 गीता दर्शन–(भाग–4) प्रवचन–111 🌼
🌹 *ओशो🌹