संग का रंग लगता ही है या कि यह…

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भगवान,
संग का रंग लगता ही है या कि यह केवल संयोग मात्र है? कृपा कर समझावें!

ओशो:-
राजेंद्र भारती, सब तुम पर निर्भर है। वर्षा होती हो और तुम छाता लगा कर खड़े हो जाओ, तो भीगोगे नहीं। छाता बंद कर लो, और भीग जाओगे। वर्षा होती हो, तुम छिद्र वाला घड़ा ले जाकर आकाश के नीचे रख दो; भर भी जाएगा और फिर भी खाली हो जाएगा। छिद्र बंद कर दो, भरेगा और भरा रह जाएगा। वर्षा होती हो, छिद्रहीन घड़े को भी आकाश के नीचे ले जाकर उलटा रख दो; तो वर्षा होती रहेगी और घड़ा खाली का खाली रहेगा। सब तुम पर निर्भर है।
सदगुरु तो वर्षा है–अमृत की वर्षा! तुम लोगे तो तुम्हारे प्राणों को रंग जाएगा। तुम न लोगे, द्वार-दरवाजे बंद किए बैठे रहोगे, तो चूक जाओगे।
तुम पूछ रहे हो: “संग का रंग लगता ही है या कि यह केवल संयोग मात्र है?’
अनिवार्यता नहीं है और संयोग भी नहीं। संग का रंग लगता ही होता, तब तो जो भी सदगुरु के पास आ जाता उसी को रंग लग जाता। फिर तो जिन्होंने जीसस को सूली दी, वे सूली देते-देते रंग गए होते। फिर तो जिन्होंने बुद्ध को पत्थर मारे, वे पत्थर मारते-मारते रंग गए होते।
संग का रंग लगे ऐसी कोई अनिवार्यता नहीं है। ऐसी अनिवार्यता तो जगत में किसी चीज की नहीं है। आग भी तभी जलाएगी जब तुम हाथ डालोगे। हाथ तुम दूर रखो, आग नहीं जलाएगी। आग जलती रहेगी। आग अपने को जलाती रहेगी। मगर अगर हाथ डालोगे तो जलोगे।
सदगुरु के पास आओगे तो रंग लगेगा। हाथ डालोगे तो जलोगे। प्राण डाल दोगे तो जो भी व्यर्थ है, कूड़ा-कर्कट है, सब कचरा हो जाएगा; सोना निखर आएगा।
और यह संयोग मात्र भी नहीं है। संयोग मात्र का तो अर्थ है: कभी हो जाए, कभी न हो। हो जाए तो हो जाए, न हो तो न हो; कोई नियमबद्धता नहीं है। ऐसा भी नहीं है।
आग में हाथ का जलना संयोग मात्र नहीं है। आग में हाथ डालोगे तो जलोगे ही, नियम से जलोगे। ऐसा नहीं कि कभी जलो और कभी न जलो। कभी आग कहे कि आज दिल ही जलाने का नहीं है। और कभी कहे कि आज जरा दूर ही रहना, आज दुगना जलाऊंगी। संयोग नहीं है आग में हाथ डाल कर जलना और अनिवार्यता भी नहीं है। क्योंकि अनिवार्यता होती तो तुम कहीं भी होते तो जल जाते। दूर खड़े रहते तो भी जल जाते।…

ओशो ✍उत्सव आमार जाति आनंद आमार गोत्र-प्रवचन-०१

मृत्यु का आध्यात्मिक अर्थ

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एक ही उपाय है: पांचवां दिन।

चार दिन जिंदगी के।
ये जिंदगी के चार दिन ऐसे ही बीत जाते हैं—
दो आरजू में, दो इंतजार में।
दो मांगने में, दो प्रतीक्षा करने में।
कुछ हाथ कभी लगता नहीं।
पांचवां दिन असली दिन है।

जब भी तुम्हें समझ आ गई इस बात की, कि मेरा होना ही मेरे होने में अड़चन है…

क्योंकि मेरे होने का मतलब है कि मैं परमात्मा से अलग हूं।
मेरे होने का मतलब है कि मैं इस विराट से अलग हूं।
मेरे होने का मतलब है कि मैं एक नहीं, संयुक्त नहीं, इस परिपूर्ण के साथ एकरस नहीं।
यही तो अड़चन है।
यही दुख है।
यही नरक है।
दीवाल हट जाए।
यह मेरे होने का भाव खो जाए —मृत्यु।

मृत्यु का अर्थ यह नहीं कि तुम जाकर गरदन काट लो अपनी। मृत्यु का यह अर्थ नहीं कि जाकर जहर पी लो।

मृत्यु का अर्थ है: अहंकार काट दो अपना।

मैं हूं तुझसे अलग, यह बात भूल जाए।
मैं हूं तुझमें।
मैं हूं ऐसे ही तुझमें जैसे लहर सागर में।
लहर सागर से अलग नहीं हो सकती। कितनी ही छलांग ले और कितनी ही ऊंची उठे, जहाजों को डुबाने वाली हो जाए। पहाड़ों को डूबा दे—लेकिन लहर सागर से अलग नहीं हो सकती। लहर सागर में है, सागर की है।

ऐसे ही तुम हो—
विराट चैतन्य के सागर की एक छोटी सी लहर।
एक ऊर्मि!
एक किरण!

अपने को अलग मानते हो, वहीं अड़चन शुरू हो जाती है। वहीं से परमात्मा और तुम्हारे बीच संघर्ष शुरू हो जाता है।

और उससे लड़ कर क्या तुम जीतोगे?
कैसे जीतोगे?
क्षुद्र विराट से कैसे जीतेगा?
अंश अंशी से कैसे जीतेगा?
लहर सागर से लड़ कर कैसे जीतेगी?

कितनी ही बड़ी हो, सागर के समक्ष तो बड़ी छोटी है। यह भाव तुम्हारा चला जाए, उसका नाम मृत्यु। मैं सागर की लहर हूं। सागर मुझमें, मैं सागर में। मेरा अलग—थलग होना नहीं है।

और उसी क्षण तुम पाओगे पांचवां दिन घट गया। फिर भी तुम जी सकते हो।

बुद्ध का पांचवां दिन घटा, फिर चालीस साल और जीए। मगर वह जिंदगी फिर और थी। कुछ गुण धर्म और था उस जिंदगी का। उस जिंदगी का रस और था, उत्सव और था। फिर सच में जीए। उसके पहले जिंदगी क्या जिंदगी थी?

ओशो ✍ : पद घुंघरू बांध – मीरा बाई

तुम ऐसे मिट जाओ कि आत्मा भी न बचे

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जो दावा करे कि उसने धर्म को पा लिया है, उसने तो निश्चित ही न पाया होगा। दावेदारी का धर्म से कोई संबंध नहीं है। यह तो बात ही छोटी हो गई। जिसे तुम पा लो, वह धर्म ही बड़ा छोटा हो गया। जो तुम्हारी मुट्ठी में आ जाए, वह विराट न रहा। जिसे तुम्हारी बुद्धि समझ ले, वह समझने के योग्य ही न रहा। जिसे तुम्हारे तर्क की सरणी में जगह बन जाए, जो तुम्हारे कटघरों में समा जाए, वह धर्म का आकाश न रहा।

बुद्ध ने कहा है, जब तुम ऐसे मिट जाओ कि आत्मा भी न बचे, अनात्मा हो जाओ, अनात्मावत हो जाओ, अनत्ता हो जाओ, शून्य हो जाओ, तभी जिसका आविर्भाव होता है, वही धर्म है—एस धम्मो सनंतनो।

पंडित की मुट्ठी में धर्म होता है। ज्ञानी धर्म की मुट्ठी में होता है। पंडित धर्म को जानता है, ज्ञानी को धर्म जानता है। जिसने जाना, उसने यही जाना कि जानने वाला बचता कहां है! जिसने जाना, उसने यही जाना कि अपने कारण ही न जान पाते थे, हम ही बाधा थे, जब हम मिट गए, जब हम न रहे, तब अवतरण हुआ।

ऐसा नहीं है कि तुम्हारे भीतर कुछ बाधाएं हैं, जिनके कारण तुम धर्म को नहीं जान पा रहे हो—तुम बाधा हो। तुम्हारे कारण तुम धर्म को नहीं जान पा रहे हो। तुम्हें समझाया गया है, अज्ञान के कारण नहीं जान पा रहे हो; गलत है बात। तुम्हें समझाया गया है, पाप के कारण नहीं जान पा रहे हो; गलत है बात।

____मैं तुमसे कहता हूं तुम्हारे कारण नहीं जान पा रहे हो। अगर तुम रहे और पुण्य भी किया तो भी न जान पाओगे। अगर तुम रहे और अज्ञान की जगह ज्ञान भी पकड़ लिया तो भी न जान पाओगे। पाप तो रोकेगा ही, पुण्य भी रोकेगा। अज्ञान तो रोकेगा ही, ज्ञान भी रोकेगा।

➡एस धम्‍मो सनंतनो-प्र–34

🍁ओशो🍁

विज्ञान भैरव तंत्र विधि–83 (ओशो)

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(कामना के पहले और जानने के पहले मैं कैसे कह सकता हूं कि मैं हूं। विमर्श करो। सौंदर्य में विलीन हो जाओ।)

कामना के पहले और जानने के पहले मैं कैसे कह सकता हूं कि मैं हूं?

एक कामना पैदा होती है और कामना के साथ यह भाव पैदा होता है कि मैं हूं। एक विचार उठता है और विचार के साथ यह भाव उठता है कि मैं हूं। इसे अपने अनुभव में ही देखो; कामना के पहले और जानने के पहले अहंकार नहीं है।

मौन बैठो और भीतर देखो। एक विचार उठता है। और तुम उस विचार के साथ तादात्म्य कर लेते हो। एक कामना पैदा होती है और तुम उस कामना के साथ तादात्म्य कर लेते हो। तादात्म्य में तुम अहंकार बन जाते हो। फिर जरा सोचो: कोई कामना नही है। कोई ज्ञान नहीं है। कोई विचार नहीं है—तुम्‍हारा किसी के साथ तादात्‍म्‍य नहीं हो सकता है। अहंकार खड़ा नहीं हो सकता।

बुद्ध ने इस विधि का उपयोग किया है। और उन्‍होंने अपने शिष्‍यों से कहा कि और कुछ मत करो,सिर्फ इतना ही करो कि जब कोई विचार उठे तो उसे देखो। बुद्ध कहा करते थे कि जब कोई विचार उठे तो देखो कि यह विचार उठ रहा है। अपने भीतर ही देखो कि अब विचार उठ रहा है, अब विचार है। अब विचार विदा हो रहा है। बस देखते भर रहो। कि अब विचार उठ रहा है। अब विचार पैदा हो रहा है। अब विचार विलीन हो रहा है। ऐसा देखने से तादात्‍म्‍य नहीं होता।

यह विधि सुंदर है और बहुत सरल है। एक विचार उठता है। तुम सड़क पर चल रहे हो, एक सुंदर कार गुजरती है और तुम उसे देखते हो। और तुमने अभी देखा भी नहीं कि उसे पाने की कामना पैदा हो जाती है। इस पर प्रयोग करो। आरंभ में धीमे शब्‍दों में कहो, धीरे से कहो कि मैं कार देखता हूं, कार सुंदर है और उसे पाने की कामना पैदा हो रही है। पूरी घटना को शब्‍दिक रूप दो।

शुरू-शुरू में शाब्‍दिक रूप देना अच्‍छा है। अगर तुम इसे जोर से कह सको तो और भी अच्‍छा है। जोर से कहो कि ‘मैं देख रहा हूं कि एक कार गुजरी है और मन कहता है कि कार सुंदर है और अब कामना उठी है कि यह कार प्राप्‍त करके रहूंगा।’ सब कुछ शब्‍दों में कहो, स्‍वयं से ही कहो और जोर से कहो; और तुरंत तुम्‍हें अहसास होगा कि मैं इस पूरी प्रक्रिया से अलग हूं।

पहले देखो, मन ही मन में कामना के उठने को देखो। और जब तुम देखने में निष्‍णात हो जाओ तब जोर से कहने की जरूरत नहीं है। तब मन ही मन देखो कि एक कामना पैदा हुई है। एक सुंदर स्‍त्री गुजरती है। और कामवासना उठती है। उसे मन ही मन ऐसे देखो जैसे कि तुम्‍हें उससे कुछ लेना देना नहीं है। तुम सिर्फ घटित होने वाल तथ्‍य को देख भर रहे हो। और तुम अचानक अनुभव करोगे कि मैं इससे बाहर हूं।

बुद्ध कहते है कि जो भी हो रहा है, उसे देखो; और जब वह विदा हो जाए तो उसे भी देखो कि अब कामना विदा हो गई है। और तुम उस विचार से, उस कामना से एक दूरी, एक पृथकता अनुभव करोगे।

यह विधि कहती है: ‘कामना के पहले ओर जानने के पहले के पहले मैं कैसे कह सकता हूं कि मैं हूं?’

अगर कोई कामना नहीं है, कोई विचार नहीं है। तो तुम कैसे कह सकते हो कि मैं हूं? मैं कैसे कह सकता हूं कि मैं हूं? तब सब कुछ मौन है, शांत है; एक लहर भी तो नहीं है। और लहर के बिना मैं ‘मैं’ का भ्रम कैसे निर्मित कर सकता हूं? अगर कोई लहर हो तो मैं उससे आसक्‍त हो सकता हूं और उसके माध्‍यमसे में अनुभव कर सकता हूं कि मैं हूं। जब चेतना में कोई लहर नहीं है तो कोई ‘मैं’नहीं है।

तो कामना के उठने से पहले स्‍मरण रखो, जब कामना आ जाए तो स्‍मरण रखो, और जब कामना विदा हो जाए तो भी स्‍मरण रखो। जब कोई विचार उठे तो स्‍मरण रखो, उसे देखो। सिर्फ देखो कि विचार उठा है। देर अबेर वह विदा हो जाएगा। क्‍योंकि सब कुछ क्षणिक है। और बीच में एक अंतराल होगा। दो विचारों के बीच में खाली जगह है। दो कामनाओं के बीच में अंतराल है। और उस अंतराल में, उस खाली जगह में ‘मैं’नहीं है।

मन में चलते विचार को देखो और तुम पाओगे कि वहां एक अंतराल भी है चाहे वह कितना ही छोटा हो, अंतराल है। फिर दूसरा विचार आता है और फिर एक अंतराल। उन अंतरालों में ‘मैं’ नहीं। और वे अंतराल ही तुम्‍हारा असली होना है। तुम्‍हारा अस्‍तित्‍व है। आकाश में विचार के बादल चल रहे है। दो बादलों के अंतराल को देखो और आकाश प्रकट हो जाएगा।

‘विमर्श करो। सौंदर्य में विलीन हो जाओ।’

विमर्श करो कि कामना पैदा हुई और कामना विदा हो गई—और मैं उसके अंतराल में हूं और कामना ने मुझे अशांत नहीं किया है। विमर्श करो कि कामना आई, कामना गई, वह थी और अब नहीं है। और मैं अनुद्विग्‍न रहा हूं। वैसा ही रहा हूं जैसा पहले था; मुझमें कोई बदलाहट नहीं हुई है। विमर्श करो कि कामना छाया की भांति आई और चली गई। उसने मुझे स्‍पर्श भी नहीं किया। मैं अछूता रह गया। इस कामना की गतिविधि के प्रति, इस विचार की हलचल के प्रति विमर्श से भरों। और अपने भीतर की अगति के प्रति भी, ठहराव के प्रति भी विमर्श पूर्ण होओ।

‘विमर्श करो। सौंदर्य में विलीन हो जाओ।’

और वह अंतराल सुंदर है; उस अंतराल में डूब जाओ। उस अंतराल में डूब जाओ। शून्‍य हो जाओ। यह सौंदर्य का प्रगाढ़तम अनुभव है। और केवल सौंदर्य का ही नहीं, शुभ और सत्‍य का भी प्रगाढ़तम अनुभव है। उस अंतराल में तुम हो।

सारा ध्‍यान भरे हुए स्‍थानों से हटाकर खाली स्‍थानों पर लगाना है। तुम कोई किताब पढ़ रहे हो। उसमें शब्‍द है, उसमें वाक्‍य है। लेकिन शब्‍दों के बीच वाक्‍यों के बीच खाली स्‍थान पर भी है। और उन खाली स्‍थानों में तुम हो। कागज की जो शुभ्रता है, वह तुम हो; और जो काले अक्षर है वे तुम्‍हारे भीतर चलने वाले विचार और कामना के बादल है। अपने परिप्रेक्ष्‍य को बदलों; काले अक्षरों को मत देखो, शुभ्रता को देखो।

अपने प्राणों के अंतराल को देखो। जो भरे हुए स्‍थान है, उनके प्रति उदासीन रहो; और अंतराल के प्रति, खाली आकाश के प्रति सावचेत बनो। और उस अंतराल के द्वारा, उस आकाश के द्वारा तुम परम सौंदर्य में विलीन हो जाओगे।

ओशो

विज्ञान भैरव तंत्र, भाग-चार

प्रवचन-55

साभार:-(oshosatsang.org)

विज्ञान भैरव तंत्र विधि–67 (ओशो)

Budha

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‘यह जगत परिवर्तन का है, परिवर्तन ही परिवर्तन का। परिवर्तन के द्वारा परिवर्तन को विसर्जित करो।’

पहली बात तो यह समझने की है कि तुम जो भी जानते हो वह परिवर्तन है, तुम्‍हारे अतिरिक्‍त जानने वाले के अतिरिक्‍त सब कुछ परिवर्तन है। क्‍या तुमने कोई ऐसी चीज देखी है। जो परिवर्तन न हो। जो परिवर्तन के अधीन न हो। यह सारा संसार परिवर्तन की घटना है।

हिमालय भी बदल रहा है। हिमालय का अध्यन करने वाले वैज्ञानिक कहते है कि हिमालय बढ़ रहा है। बड़ा हो रहा है। हिमालय संसार का सबसे कम उम्र का पर्वत है। वह अभी बच्‍चा है और बढ़ रहा है। वह अभी प्रौढ़ नहीं हुआ है। वह अभी उस अवस्‍था को नहीं प्राप्‍त हुआ है। जहां पहूंच कर ह्रास या गिरावट शुरू होती है। हिमालय बच्‍चे जैसा है। विंध्‍याचल संसार के सबसे पुराने पर्वतों में हैं। कुछ तो उसे दुनियां का सबसे पुराना पर्वत मानते है। सदियों से वह अपने बुढ़ापे के कारण क्षीण हो रहा है। मर रहा है।

तो इतना स्‍थिर और अडिग और दृढ़ मालूम पड़ने वाला हिमालय भी बदल रहा है। वह बस पत्‍थरों कीं नदी जैसा नहीं है। पत्‍थर होने से कोई फर्क नहीं पड़ता। पत्‍थर भी प्रवाहमान है, बह रहा है। तुलनात्‍मक दृष्‍टि से सब कुछ बदल रहा है। लेकिन ऐसा सापेक्षत: है।

कोई भी चीज, जिसे तुम जान सकते हो बदलाहट के बिना नहीं है। मेरी बात खयाल में रहे। जिसे तुम जानते हो वह वस्‍तु नित्‍य बदल रही है। जाननेवाले के अतिरिक्‍त कुछ भी नित्‍य नहीं है। शाश्‍वत नही है। लेकिन जानने वाला सदा पीछे है। वह सदा जानता है; वह कभी जाना नहीं जाता। वह कभी आब्जेक्ट्स नहीं बन सकता; वह सदा सब्जैक्ट ही रहता है। तुम जो कुछ भी करते हो या जानते हो, जाननेवाला सदा उससे पीछे है। तुम उसे नहीं जान सकते हो।

और जब मैं कहता हूं कि तुम जाननेवाले को नहीं जान सकते, तो इससे परेशान मत होओ। जब मैं कहता हूं कि तुम उसे नहीं जान सकते हो तो उसका मतलब है कि तुम उसे विषय की तरह नहीं जान सकते हो। मैं तुम्‍हें देखता हूं , लेकिन मैं उसी तरह अपने को कैसे देख सकता हूं। यह असंभव है। क्‍योंकि ज्ञान के लिए दो चीजें जरूरी है। ज्ञाता और ज्ञेय। तो जब मैं तुम्‍हें देखता हूं तो तुम ज्ञेय हो और मैं ज्ञाता हूं। और दोनों के बीच ज्ञान सेतु की तरह है। लेकिन ज्ञान का यह सेतु कहां बनेगा। जब मैं अपने को ही देखता हूं। जब मैं अपने को ही जानने की कोशिश करता हूं। वहां तो केवल मैं ही हूं, पूरी तरह अकेला मैं हूं। दूसरा किनारा बिलकुल अनुपस्‍थित है। फिर सेतु कहां निर्मित किया जाए? स्‍वयं को जाना कैसे जाएं?

तो आत्‍मज्ञान एक नेति-नेति प्रक्रिया है। तुम अपने को सीधे-सीधे नहीं जान सकते; तुम सिर्फ ज्ञान के विषयों को हटाते जा सकते हो। ज्ञान के विषयों को एक-एक करके छोड़ते चले जाओ। और जब ज्ञान का कोई विषय न रह जाए, जब जानने को कुछ भी न रह जाए। सिर्फ एक शून्‍य, एक खाली पन रह जाए—और यही ध्‍यान है। ज्ञान के विषयों को छोड़ते जाना—तब एक क्षण आता है जब चेतना तो है लेकिन जानने के लिए कुछ नहीं है। जानना तो है, लेकिन जानने को कुछ नहीं बचता है। तब जानने की सहज-शुद्ध ऊर्जा रहती है। लेकिन जानने को कुछ नहीं बचता है। कोई विषय नहीं रहता है। उस अवस्‍था में जब जानने को कुछ नहीं रहता, तुम एक अर्थों में स्‍वयं को जानते हो। अपने को जानते हो।

लेकिन यह ज्ञान अन्‍य सब ज्ञान से सर्वथा भिन्‍न है। दोनो के लिए एक ही शब्‍द का उपयोग करना भ्रामक है। इसीलिए अनेक रहस्‍यवादियों ने कहा है कि आत्‍मज्ञान शब्‍द विरोधाभासी है। ज्ञान सदा दूसरे को होता है। अंत: आत्‍म ज्ञान संभव नहीं है। जब दूसरा नहीं होता है तो कुछ होता है, तुम उसे आत्‍म ज्ञान कह सकते हो। लेकिन यह शब्‍द भ्रामक है।

तो तुम जो भी जानते हो वह परिवर्तन है। ये जो दीवारें है, ये भी निरंतर बदल रही है। और भौतिक शास्‍त्र भी इसका समर्थन करता है। जो दीवार है, ये स्‍थाई मालूम पड़ती है। ठहरी हुई लगती है। वह भी प्रति पल बदल रही है। एक-एक परमाणु बह रहा है। प्रत्‍येक चीज बह रही है। लेकिन उसकी गति इतनी तीव्र है कि उसका पता नहीं चलता है। दोपहर भी वह ऐसे लगती थी श्‍याम भी ऐसे लगती है।

यह सूत्र कहता है कि सभी चीजें बदल रही है। ‘यह जगत परिवर्तन का है…..।’

इस सूत्र पर ही बुद्ध का समस्‍त दर्शन खड़ा है। बुद्ध कहते है कि प्रत्‍येक चीज बहाव है, बदल रही है। क्षणभंगुर है। और यह बात प्रत्‍येक व्‍यक्‍ति को जान लेना चाहिए। बुद्ध का सारा जोर इसी एक बात पर है; उनकी पूरी दृष्‍टि इसी बात पर आधारित है।

तुम्‍हें एक चेहरा दिखाई देता है, बहुत सुंदर है। और जब तुम सुंदर रूप को देखते हो तो भाव होता है कि यह रूप सदा ही ऐसा रहेगा। इस बात को ठीक से समझ लो ऐसी अपेक्षा कभी मत करो। और अगर तुम जानते हो कि यह रूप तेजी से बदल रहा है, कि यह इस क्षण सुंदर है और अगले क्षण कुरूप हो जायेगा। तो फिर आसक्‍ति कैसे पैदा होगी? असंभव है। एक शरीर को देखो,वह जीवित है; अगले क्षण वह मृत हो सकता है। अगर तुम परिवर्तन को समझो तो सब व्‍यर्थ है।

बुद्ध ने अपना महल छोड़ दिया, परिवार छोड़ दिया। सुंदर पत्‍नी छोड़ दी, प्‍यारा पुत्र छोड़ दिया। और जब किसी ने पूछा कि क्‍यों छोड़ रहे हो, तो उन्‍होंने कहां: ‘जहां कुछ भी स्‍थाई नहीं है,वहां रहने का क्‍या प्रयोजन? बच्‍चा एक न एक दिन मर जायेगा।’ और बच्‍चे का जन्‍म उसी रात हुआ था। उसके जन्‍म के कुछ घंटे बाद ही उन्‍होंने उसे अंतिम बार देखा। अपनी पत्‍नी के कमरे में गये। पत्‍नी की पीठ दरवाजे की और थी और वह बच्‍चे को अपनी बांहों में लिए सो रही थी। बुद्ध ने अलविदा कहना चाहा। लेकिन वे झिझके। उन्‍होंने कहा: ‘एक क्षण उनके मन में यह विचार कौंधा कि बच्‍चे के जन्‍म के कुछ घंटे ही हुए है। मैं उसे अंतिम बार देख हूं। तब उनके मन ने कहां, क्‍या प्रयोजन है, सब तो बदल रहा है। आज बच्‍चा पैदा हुआ है। कल मर जायेगा। एक दिन पहले यह नहीं था, अभी वह है। और एक दिन फिर नहीं रहेगा। तो क्‍या प्रयोजन है सब बदल रहा है।’ वे मुड़े और विदा हो गये।

जब किसी ने पूछा कि आपने क्‍यों सब कुछ छोड़ दिया? मैं अपनी खोज में हूं। जो कभी नहीं बदलता,जो शाश्‍वत है। यदि मैं परिवर्तनशील के साथ अटका रहूंगा। तो निराशा ही हाथ आयेगी। क्षण भंगुर से आसक्‍त होना मूढ़ता है। वह कभी ठहरने वाला नहीं है। मैं मूढ़ नहीं हूं। मैं तो उसकी खोज कर रहा हूं जो कभी नहीं बदलता, जो नित्‍य है। अगर कुछ शाश्‍वत है तो ही जीवन में अर्थ है, जीवन में मूल्‍य है। अन्‍यथा सब व्‍यर्थ है।

यह सूत्र सुंदर है। यह सूत्र कहता है। ‘परिवर्तन के द्वारा परिवर्तन को विसर्जित करो।‘’

बुद्ध कभी दूसरा हिस्‍सा नहीं कहते। यह दूसरा हिस्‍सा बुनियादी रूप से तंत्र से आया है। बुद्ध इतना ही कहेंगे। कि सब कुछ परिवर्तनशील है। इसे अनुभव करो। और तुम्‍हें आसक्‍ति नहीं होगी। और जब आसक्‍ति नहीं होगी तो धीरे-धीरे अनित्‍य को छोड़ते-छोड़ते तुम अपने केंद्र पर पहुंच जाओगे। जो नित्‍य है। शाश्‍वत है। परिवर्तन को छोड़ते जाओ और तुम अपरिवर्तन पर केंद्र पर, चक्र के केंद्र पर पहुंच जाओगे।

इस लिए बुद्ध ने चक्र को अपने धर्म का प्रतीक बनाया है। क्योंकि चक्र चलता रहता है। लेकिन उसकी धुरी, जिसके सहारे चक्र चलता है, ठहरी रहती है। स्‍थाई है। तो संसार चक्र की भांति चलता रहता है। तुम्‍हारा व्‍यक्‍तित्‍व चक्र की भांति बदलता रहता है। धुरी अचल रहती है।

तंत्र कहता है कि जो परिवर्तनशील है उसे छोड़ो मत, उसमे उतरो, उसमें जाओ। उससे आसक्‍त मत होओ। लेकिन उसमें जीओं। उससे डरना क्‍या है? उसे घटित होने दो। और तुम उसमें गति कर जाओ। उसे उसके द्वारा ही विसर्जित करो। डरों मत; भागों मत। भागकर कहां जाओगे। इससे बचोगे कैसे? सब जगह तो परिवर्तन है। तंत्र कहता है,बदलाहट ही मिलेगी। सब भागना व्‍यर्थ है। भागने की कोशिश ही मत करो। तब करना क्‍या है?

आसक्‍ति मत निर्मित करो। तुम परिवर्तन हो जाओ। उसके साथ कोई संघर्ष मत खड़ा करो। उसके साथ बहो। नदी बह रही हे। उसके साथ बहो। तेरो भी मत। नदी को ही तुम्‍हें ले जाने दो। उसके साथ लड़ों मत; उससे लड़ने से तुम्‍हारी शक्‍ति बरबाद होगी। और जो होता है, उसे होने दो। नदी के साथ बहो।

इससे क्‍या होगा? अगर तुम नदी के साथ बिना संघर्ष किए बह सके; बिना किसी शर्त के बह सके, अगर नदी की दिशा ही तुम्‍हारी दिशा हो जाए, तो तुम्‍हें अचानक यह बोध होगा कि मैं नदी नहीं हूं, तुम्‍हें यह बोध होगा कि मैं नदी नहीं हूं, इसे अनुभव करो; किसी दिन नदी में उतर कर इसका प्रयोग करो। नदी में उतरो, विश्राम पूर्ण रहो और अपने को नदी के हाथों में छोड़ दो। उसे तुम्‍हें बहा ले जाने दो। लड़ों मत, नदी के साथ एक हो जाओ। तब अचानक तुम्‍हें अनुभव होगा कि चारों तरफ नदी है, लेकिन मै नदी नहीं हूं।

यदि नदी में लड़ोगे तो तुम यह बात भूल जा सकते हो। इसीलिए तंत्र कहता है: ‘परिवर्तन से परिवर्तन को विसर्जित करो।’ लड़ो मत, लड़ने की कोई जरूरत नहीं है। क्‍योंकि परिवर्तन तुममें नहीं प्रवेश कर सकता है। डरो नहीं; संसार में रहो। डरो मत;क्‍योंकि संसार तुममें प्रवेश नहीं कर सकता है। उसे जीओं। कोई चुनाव मत करो।

दो तरह के लोग है। एक वे जो परिवर्तन के जगत से चिपके रहते है। और एक वे है जो उससे भाग जाते है। लेकिन तंत्र कहता है कि जगत परिवर्तन है, इसलिए उससे चिपकना नहीं है। दोनों व्‍यर्थ है। इससे भागने को। वह बदल ही रहा है। तुम नहीं थे तब यह बदल रहा था। तुम नहीं रहोगे तब भी यह बदलता रहेगा। फिर इसके लिए इतना शोर गूल क्‍यो?

‘परिवर्तन को परिवर्तन से विसर्जित करो।’

यह एक बहुत गहन संदेश है। क्रोध को क्रोध से विसर्जित करो; काम को काम से विसर्जित करो; लोभ को लोभ से विसर्जित करो, संसार को संसार से विसर्जित करो। उससे संघर्ष मत करो, विश्रामपूर्ण रहो। क्‍योंकि संघर्ष से तनाव पैदा होता है; तनाव से चिंता और संताप पैदा होता है। विश्रामपूर्ण रहो। तुम नाहक उपद्रव में पड़ोगे। संसार जैसा है उसे वैसा ही रहने दो।

दो तरह के लोग है जो संसार को वैसा ही नहीं रहने देना चाहते जैसा वह है। वे क्रांतिकारी कहलाते है। वे उसे बदलेंगे ही; वे उसे बदलने के लिए जद्दोजहद करेंगे। वे उसे बदलने में अपना सारा जीवन लगा देंगे। और यह जगत अपने आप बदल रहा है। उनकी कोई जरूरत नहीं है। वे अपने को नष्‍ट करेंगे। दुनिया को बदलने में वे खुद खत्‍म होंगे। और संसार बदल ही रहा है; इसके लिए किसी क्रांति की जरूरत नहीं है। संसार स्‍वयं एक क्रांति है; वह बदल ही रहा है।

तुम्‍हें आश्‍चर्य होगा। की भारत में महान क्रांतिकारी क्‍यों नहीं पैदा हुए। यह इसी अंतदृष्‍टि का परिणाम है कि सब अपने आप ही बदल रहा है। उसके लिए क्रांति की कोई जरूरत नहीं है। तुम उसे बदलने के लिए क्‍यों परेशान होते हो। तुम न उसे बदल सकते हो और न बदलाहट को रोक सकते हो।

एक तरह का व्‍यक्‍तित्‍व सदा संसार को बदलने की चेष्‍टा करता है। धर्म की दृष्‍टि में वह मानसिक तल पर रूग्‍ण है। सच तो यह है अपने साथ रहने में उसे भय लगता है। इसलिए वह भागता फिरता है। और संसार में उलझा रहता है। राज्‍य को बदलना है, सरकार को बदलना है; समाज , व्‍यवस्‍था, अर्थनीति, सब कुछ को बदलना है। और इसी सब में वि मर जाएगा। और उसे आनंद का, उस समाधि का एक कण भी नहीं उपलब्‍ध होगा। जिसमें वह जान सकता था कि मैं कौन हूं। और संसार चलता रहेगा। संसार चक्र घूमता रहेगा। संसार चक्र ने अनेक क्रांतिकारी देखे है। और वह घूमता ही जाता है। तुम न तो इसे रोक सकते हो, और न तुम उसकी बदलाहट को तेज ही कर सकते हो।

रहस्‍यवादियों की, बुद्धों की यह दृष्‍टि है। वे कहते है कि संसार को बदलने की कोई जरूरत नहीं है। लेकिन बुद्धों की भी दो कोटियां है। कोई कह सता है कि संसार को बदलने की जरूरत नहीं है, लेकिन अपने को बदलने की जरूरत तो है। वह भी परिवर्तन में विश्‍वास करता है। वह जगत को बदलने में नहीं, लेकिन अपने में बदलने में विश्‍वास करता है।

लेकिन तंत्र कहता है। कि किसी को भी बदलने की जरूरत नहीं है—न संसार को और न अपने को। रहस्‍य का, अध्‍यात्‍म का यह गहनत्म तल है। यह उसका अंतरतम केंद्र है। तुम्‍हें किसी को भी बदलने की जरूरत नहीं है—न संसार को और न अपने को। तुम्‍हें इतना ही जानना है कि सब कुछ बदल रहा है, और तुम्‍हें उस बदलाहट के साथ बहाना है, उसे स्‍वीकार करना है।

और जब बदलने को कोई परिवर्तन नहीं है, तो तुम समग्ररतः: विश्रामपूर्ण हो सकते हो। जब तक प्रयत्‍न है। तुम विश्रामपूर्ण नहीं हो सकते। तब तक तनाव बना रहेगा। क्‍योंकि तुम्‍हें अपेक्षा है कि भविष्‍य में कुछ होने वाला है, जगत बदलने वाला है। संसार में साम्‍यवाद आने वाला है। या पृथ्‍वी पर स्‍वर्ग उतरने वाला है। या भविष्‍य में कोई ऊटोपिया आने वाला है। या तुम प्रभु के राज्‍य में प्रवेश करने वाले हो। स्‍वर्ग में देवदूत तुम्‍हारा स्‍वागत करने के लिए तैयार खड़े है—जो भी हो; तुम भविष्‍य में कही अटके हो। इस अपेक्षा के साथ तुम तनावपूर्ण रहोगे।

तंत्र कहता है, इन बातों को भूल जाओ। संसार बदल ही रहा है। और तुम भी निरंतर बदल रहे हो। बदलाहट ही अस्‍तित्‍व है। इसलिए बदलाहट की चिंता मत करो। तुम्‍हारे बिना ही बदलाहट हो रही है। तुम्‍हारी जरूरत नहीं है। तुम भविष्‍य की कोई चिंता किए बिना उसमे बहो; और तब अचानक तुम्‍हें अपने भीतर के उस केंद्र का बोध हो गा जो कभी नहीं बदलता है, जो सदा वही का वही रहता है।

ऐसा क्‍यों होता है? क्‍योंकि जब तुम विश्रामपूर्ण होते हो तो बदलाहट की पृष्‍ठभूमि में विपरीत दिखाई पड़ता है। परिवर्तन की पृष्‍ठभूमि में तुम्‍हें सनातन का, शाश्‍वत का बोध होता है। अगर तुम संसार को या अपने को बदलने का प्रयत्‍न में लगे हो तो तुम अपने भीतर छोटे से अकंप, स्‍थिर ठहरे हुए केंद्र को नहीं देख पाओगे। तुम बदलाहट में इतने घिरे हो कि तुम उसे नहीं देख पाते हो जो है।

सब तरफ परिवर्तन है। यह परिवर्तन पृष्‍ठभूमि बन जाता है। कंट्रास्‍ट बन जाता है। और तुम शिथिल होते हो। विश्राम में होते हो, इसलिए तुम्‍हारे मन में भविष्‍य नहीं होता। भविष्‍य के विचार नहीं होते। तुम यहां और अभी होते हो। यह क्षण ही सब कुछ होता है। सब कुछ बदल रहा है—और अचानक तुम्‍हें अपने भीतर उस बिंदू का बोध है जो कभी नहीं बदला है।

‘परिवर्तन से परिवर्तन को विसर्जित करो।’

इसका अर्थ यही है। लड़ो मत। मृत्‍यु के द्वारा अमृत को जान लो; मृत्‍यु के द्वारा मृत्‍यु को मर जाने दो। उससे लड़ाई मत करो।

तंत्र की दृष्‍टि को समझना कठिन है। कारण है कि हमारा मन कुछ करना चाहता है। और तंत्र है कुछ न करना। तंत्र कर्म नहीं, पूर्ण विश्राम है। लेकिन यह एक सर्वाधिक गुह्म रहस्‍य है। और अगर तुम इसे समझ सको। अगर तुम्‍हें अगर तुम्‍हें इसकी प्रतीति हो जाए,तो तुम्‍हें किसी अन्‍य चीज की चिंता लेने की जरूरत नहीं है। ये अकेली विधि तुम्‍हें सब कुछ दे सकती है।

तब तुम्‍हें कुछ करने की जरूरत नही है। क्‍योंकि तुमने इस रहस्‍य को जान लिया है जो परिवर्तन से परिवर्तन का अतिक्रमण कर रहा हे। मृत्‍यु से मृत्‍यु का अतिक्रमण हो सकता है। काम से काम का अतिक्रमण हो सकता है। क्रोध से क्रोध का अतिक्रमण हो सकता है। अब तुम्‍हें यह कुंजी मिल गई है कि जहर से जहर का अतिक्रमण हो सकता है।

ओशो

विज्ञान भैरव तंत्र, भाग-तीन

प्रवचन-43

साभार:-(oshosatsang.org)

विज्ञान भैरव तंत्र विधि–58 (ओशो)

चित्र-कृति नाटक

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साक्षित्व की दूसरी विधि–

‘’यह तथा कथित जगत जादूगरी जैसा या चित्र-कृति जैसा भासता है। सुखी होने के लिए उसे वैसा ही देखो।‘’

यह सारा संसार ठीक एक नाटक के समान है, इसलिए इसे गंभीरता से मत लो। गंभीरता तुम्‍हें उपद्रव में डाल देगी। तुम मुसीबत में पड़ोगे। इसे गंभीरता से मत लो। कुछ गंभीर नहीं है। सारा संसार एक नाटक मात्र है।

अगर तुम सारे जगत को नाटक की तरह देख सको तो तुम अपनी मौलिक चेतना को पा लोगे। उस पर धूल जमा हो जाती है। क्‍योंकि तुम अति गंभीर हो। यह गंभीरता ही समस्‍या पैदा करती है। और हम इतने गंभीर है कि नाटक देखते हुए भी हम धूल जमा करते रहते है। किसी सिनेमाघर में जाओ और दर्शकों को देखो। फिल्‍म को मत देखो, फिल्‍म को भूल जाओ पर्दे की तरफ मत देखो, हाल में जो दर्शक है उन्‍हें देखो। कोई रो रहा होगा। कोई हंस रहा होगा। किसी की कामवासना उत्‍तेजित हो रही होगी। सिर्फ लोगो को देखो। वे क्‍या कर रहे है। उन्‍हें क्‍या हो रहा है। पर्दे पर छाया-चित्रों के सिवाय कुछ भी नहीं है—धूप छांव का खेल है। पर्दा खाली है। लेकिन वे उत्‍तेजित क्‍यों हो रहे है?

वे हंस रहे है, वे रो रहे है। चित्र मात्र चित्र नहीं है; फिल्‍म मात्र फिल्‍म नहीं है। वे भूल गये है कि यह एक कहानी है। उन्‍होंने इसको गंभीरता से ले लिया है। चित्र जीवित हो उठा है, यर्थाथ हो गया है।

और यही चीज सर्वत्र घट रही है। यह सिनेमाघरों तक ही सीमित नहीं है। अपने चारों और के जीवन को तो देखो; क्‍या है? इस धरती पर असंख्‍य लोग रह चूके है। जहां तुम बैठे हो वहां कम सक कम दस लाशों की कब्र है। और वे लोग भी तुम्‍हारे जैसे ही गंभीर थे। वे अब कहां है? उनका जीवन कहां चला गया? उनकी समस्‍याएं कहा गई? वे लड़ते थे, एक-एक इंच जमीन के लिए, वह जमीन पड़ी रह गई और वे लोग कही नहीं है।

और मैं यह नहीं कह रहा हूं कि उनकी समस्‍याएं-समस्‍याएं नहीं थी। वे थीं; जैसे तुम्‍हारी समस्‍याएं-समस्‍याएं है। लेकिन कहां गई वह समस्‍याएं? और अगर किसी दिन पूरी मनुष्‍यता खो जाए तो भी धरती रहेगी। वृक्ष रहेगें । नदिया रहेगी। और सूरज इसी तरह से उगेगा। और पृथ्‍वी को मनुष्‍य की गैर-मौजूदगी पर न कोई खेद होगा। न आश्‍चर्य।

जरा इस विस्‍तार पर अपनी निगाह को दौडाओं। पीछे देखो, आगे देखो; सभी आयामों को देखा और देखो कि तुम क्या हो। तुम्‍हारा जीवन क्‍या है? सब कुछ एक बड़ा स्‍वप्‍न जैसा मालूम पड़ेगा। और हर चीज जिसे तुम इस क्षण इतनी गंभीरता से ले रहे हो, अगले क्षण ही व्‍यर्थ हो जाती है। तुम्‍हें उसकी याद भी नहीं रहती।

अपने प्रथम प्रेम को स्‍मरण करो। कितनी गंभीर बात थी वह, जैसे कि जीवन ही उस पर निर्भर करता है। और अब वह तुम्‍हें स्‍मरण भी नहीं है। बिलकुल भूल गया है। वैसे ही वे चीजें भी भूल जाएंगी जिन पर तुम आज अपने जीवन को निर्भर समझते हो।

जीवन एक प्रवाह है, वहां कुछ भी नहीं टिकता है। जीवन भागती फिल्‍म की भांति है। जिसमें हर चीज दूसरी चीज में बदल रहा है। लेकिन इस क्षण वह तुम्‍हें बहुत गंभीर बहुत महत्‍वपूर्ण मालूम पड़ता है। और तुम उद्विग्‍न हो जाते हो।

वह विधि कहती है: ‘’यह तथा कथित जगत जादूगरी जैसा या चित्र-कृति जैसा भासता है। सुखी होने के लिए उसे वैसा ही देखो।‘’

भारत में हम इस जगत को परमात्‍मा की सृष्‍टि नहीं कहते, हम उसे लीला कहते है। यह लीला की धारणा बहुत सुंदर है। सृष्‍टि की धारणा गंभीर मालूम पड़ती है। ईसाई और यहूदी ईश्‍वर बहुत गंभीर है। एक अवज्ञा के लिए आदम को अदन के बग़ीचे से निकाल दिया गया। वह हमारा पिता था; और हम सब उसके कारण दुःख में पड़े है। ईश्‍वर बहुत गंभीर मालूम पड़ता है। उसकी अवज्ञा नहीं होनी चाहिए। और अगर अवज्ञा होगी तो वह बदला लेगा। और उसका प्रतिशोध अभी तक चला आ रहा है। प्रतिशोध के मुकाबले में पाप इतना बड़ा नहीं लगता है।

सच तो यह है कि आदम ने परमात्‍मा की बेवकूफी के चलते यह पाप किया। परम पिता परमात्‍मा ने आदम से कहा कि ज्ञान के वृक्ष के पास मत जाना और उसका फल मत खाना। यह निषध ही निमंत्रण बन गया। वह मनोवैज्ञानिक है। उसे बड़े बग़ीचे में केवल ज्ञान का वृक्ष आकर्षण हो गया। क्‍योंकि वह निषिद्ध था। कोई भी मनोवैज्ञानिक कहेगा कि भूल परमात्‍मा की थी। अगर उस वृक्ष के फल को नहीं खाने देना था तो उसकी चर्चा ही नहीं करना थी। तब आदम उस वृक्ष तक कभी नहीं जाता और मनुष्‍यता अभी भी उसी बग़ीचे में रहती होती। लेकिन इस वचन ने, इस आज्ञा ने कि ‘मत खाना’ सारा उपद्रव खड़ा कर दिया। इस निषेध ने उपद्रव पैदा किया। क्‍योंकि आदम ने अवज्ञा की, वह स्‍वर्ग से निकाल बहार किया गया। और प्रतिशोध कितना बड़ा है।

ईसाई कहते है कि जीसस हमें हमारे पाप से उद्भार दिलाने के लिए, हमें आदम के किए पाप से मुक्‍त करने लिए सूली पर चढ़ गये। तो ईसाइयों की इतिहास की पूरी धारणा दो व्‍यक्‍तियों पर निर्भर है। आदम और जीसस पर। आदम को क्षमा दिलाने के लिए सब यंत्रणा झेली। लेकिन ऐसा नहीं लगता कि ईश्‍वर ने अब भी क्षमादान दिया हो। जीसस को तो सूली लग गई। लेकिन मनुष्‍यता अब भी उसी भांति दुःख में है।

पिता के रूप में ईश्‍वर की धारणा ही गंभीर है, कुरूप है। ईश्‍वर की भारतीय धारण स्‍त्रष्‍टा की नहीं, लीलाधर की है। वह गंभीर नहीं है। वह खेल-खेल रहा है। नियम नहीं है। लेकिन वह खेल के नियम है। उनके संबंध में गंभीर होने की जरूरत नहीं है। कुछ पाप नहीं है। भूल भर है। और तुम भूल के कारण कष्‍ट में पड़ते हो। परमात्‍मा तुम्‍हें दंडित नहीं कर रहा है। लीला की पूरी धारणा जीवन को एक नाटकीय रंग दे देती है। जीवन एक लंबा नाटक हो जाता है। और यह विधि इसी लीला की धारणा पर आधारित है।

‘’यह तथाकथित जगत जादूगरी जैसा या चित्र-कृति जैसा भासता है। सुखी होने के लिए उसे वैसा ही देखो।‘’

अगर तुम दुःखी हो तो इसलिए कि तुमने जगत को बहुत गंभीरता से लिया है। और सुखी होने का कोई उपाय मत खोजों, सिर्फ अपनी दृष्‍टि को बदलों। गंभीर चित से तुम सुखी नहीं हो सकते। उत्‍सव मनाने वाला चित ही सुखी हो सकता है। इस पूरे जीवन को एक नाटक, एक कहानी की तरह लो ऐसा ही है। और अगर तुम उसे इस भांति ले सके तो तुम दुःखी नहीं होगे। दुःख अति गंभीरता का परिणाम है।

सात दिन के लिए यह प्रयोग करो। सात दिन तक एक ही चीज स्मरण रखो। कि सारा जगत नाटक है। और तुम वही नहीं रहोगे। जो अभी हो। सिर्फ सात दिन के लिए प्रयोग करो। तुम्‍हारा कुछ खो नहीं जाएगा। क्‍योंकि तुम्‍हारे पास खोने के लिए भी तो कुछ चाहिए। तुम प्रयोग कर सकते हो। सात दिन के लिए सब कुछ नाटक समझो। तमाशा समझो।

इन सात दिनों में तुम्‍हें तुम्‍हारे बुद्ध स्‍वभाव की, तुम्‍हारी आंतरिक पवित्रता की अनेक झलकें मिलेंगी। और इस झलक के मिलने के बाद तुम फिर वही नहीं रहोगे। जो हो। तब तुम सुखी रहोगे। और तुम सोच भी नहीं सकते कि यह सुख किस तरह का होगा। क्‍योंकि तुमने कोई सुख नहीं जाना। तुमने सिर्फ दुःख की कम-अधिक मात्राएं जानी है। कभी तुम ज्‍यादा दुःखी थे, और कभी कम। तुम नहीं जानते हो कि सुख क्‍या है। तुम उसे नहीं जान सकते हो। जब तुम्‍हारी जगत की धारणा ऐसी है कि तुम उसे बहुत गंभीरता से लेते हो तो तुम नहीं जान सकते कि सुख क्‍या हे। सुख भी तभी घटित होता है। जब तुम्‍हारी यह धारणा दृढ़ होती है। कि यह जगत केवल एक लीला है।

इस विधि को प्रयोग में लाओ। और हर चीज को उत्‍सव की तरह लो, हर चीज को उत्‍सव मनाने के भाव से करो। ऐसा समझो कि यह नाटक है। कोई असली चीज नहीं है। अगर अपने संबंधों को खेल बना लो बेशक खेल के नियम है; खेल के लिए नियम जरूरी है। विवाह नियम है। तलाक नियम है। उनके बारे में गंभीर मत होओ। वे नियम है और एक नियम को जन्‍म देता है। लेकिन उन्‍हें गंभीरता से मत लो फिर देखो कि कैसे तत्‍काल तुम्‍हारे जीवन का गुणधर्म बदल जाता है।

आज रात अपने घर जाओ और अपनी पत्‍नी या पति या बच्‍चों के साथ ऐसे व्यवहार करो जैसे कि तुम किसी नाटक में भूमिका निभा रहे हो। और फिर उसका सौंदर्य देखो अगर। तुम भूमिका निभा रहे हो तो तुम उसमे कुशल होने की कोशिश करोगे। लेकिन उद्विग्‍न नहीं होगे। उसी कोई जरूरत नहीं है। तुम अपनी भूमिका निभा कर सोने चले जाओगे। लेकिन स्‍मरण रहे कि यह अभिनय है। और सात दिन तक इसका सतत ख्‍याल रखे। तब तुम्‍हें सुख उपलब्‍ध होगा। और जब तुम जान लोगे कि क्‍या सुख है तो फिर दुःख में गिरने की जरूरत नहीं रही। क्‍योंकि यह तुम्‍हारा ही चुनाव है।

तुम दुःखी हो, क्‍योंकि तुमने जीवन के प्रति गलत दृष्‍टि चूनी है। तुम सुखी हो सकते हो। अगर दृष्‍टि सम्‍यक हो जाए। बुद्ध सम्‍यक दृष्‍टि को बहुत महत्‍व देते है। वे सम्‍यक दृष्‍टि को ही आधार बनाते है। बुनियाद बनाते है। सम्‍यक दृष्‍टि क्‍या है? उसकी कसौटी क्‍या है ?

मेरे देखे कसौटी यह है: ‘’जो दृष्‍टि सुखी करे वह सम्‍यक दृष्‍टि है। और जो दृष्‍टि तुम्‍हें दुखी पीडित बनाए वह असम्‍यक दृष्‍टि है। और कसौटी बाह्य नहीं है। आंतरिक है। और कसौटी तुम्‍हारा सुख है।

ओशो

विज्ञान भैरव तंत्र, भाग-तीन

प्रवचन-37

साभार:-(oshosatsang.org)

विज्ञान भैरव तंत्र विधि–54 (ओशो)

spa still life - candle and stone with bamboo in nature on water

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आत्‍म-स्‍मरण की दूसरी विधि–

‘’जहां-जहां, जिस किसी कृत्‍य में संतोष मिलता हो, उसे वास्‍तविक करो।‘’

तुम्‍हें प्‍यास लगी है, तुम पानी पीते हो, उससे एक सूक्ष्‍म संतोष प्राप्‍त होता है। पानी को भूल जाओ। प्‍यास को भी भूल जाओ और जो सूक्ष्‍म संतोष अनुभव हो रहा है उसके साथ रहो। उस संतोष से भर जाओ, बस संतुष्‍ट अनुभव करो।

लेकिन मनुष्‍य का मन बहुत उपद्रवी है। वह केवल असंतोष और अतृप्‍ति अनुभव करता है। वह कभी संतोष को अनुभव नहीं करता। अगर तुम असंतुष्‍ट हो तो तुम उसे अनुभव करोगे और अंसतोष से भर जाओगे। जब तुम प्‍यासे हो तो तुम्‍हें प्‍यास अनुभव होती है। तुम्‍हारा गला सूखता है। और अगर प्‍यास और बढ़ती है तो वह पूरे शरीर में महसूस होने लगती है। और एक क्षण ऐसा भी आता है जब तुम्‍हें ऐसा नहीं लगता कि मैं प्‍यासा हूं, तुम्‍हें लगता है कि मैं प्‍यास ही हो गया। अगर तुम किसी मरुस्थल में हो और पानी मिलने की कोई भी आशा नहीं हो तो तुम्‍हें ऐसा नहीं लगेगा कि मैं प्‍यासा हूं, तुम्‍हें लगेगा की मैं प्‍यास ही हो गया हूं।

असंतोष अनुभव में आता है, दुःख और संताप अनुभव में आते है। जब तुम दुःख में होते हो तो तुम दुःख ही बन जाते हो। यही कारण है कि पूरा जीवन नरक हो जाता है। तुमने कभी विधायक को नहीं अनुभव किया। तुमने सदा नकारात्‍मक को अनुभव किया है। जीवन वैसा दुःख नहीं है जैसा हमने उसे बना रखा है। दुःख हमारी महज व्‍याख्‍या है।

बुद्ध यहीं और अभी सुख में है। इसी जीवन में सुखी है। कृष्‍ण नाच रहे है और बांसुरी बजा रहे है। इसी जीवन में यही और अभी , जहां हम दुःख में है, वही कृष्‍ण नाच सकते है। जीवन न दुःख है और न जीवन आनंद है, दुःख और आनंद हमारी व्‍याख्‍याएं है। हमारी दृष्‍टियां है, हमारे रुझान है, हमारे देखने के ढंग है। यह तुम्‍हारे मन पर निर्भर है कि वह जीवन को किस तरह लेता है।

अपने ही जीवन को स्‍मरण करो। और विश्‍लेषण करो। क्‍या तुमने कभी संतोष के, परितृप्‍ति के, सुख के, आनंद के क्षणों का हिसाब रखा है? तुमने उसका कोई हिसाब नहीं रखा है। लेकिन तुमने अपने दुःख, पीड़ा और संताप का खूब हिसाब रख है। और तुम्‍हारे पास इसका बड़ा संग्रह है। तुम एक संग्रहीत नरक हो और यह तुम्‍हारा चुनाव है। कोई दूसरा तुम्‍हें इस नरक में नहीं ढकेल रहा है। यह तुम्‍हारा ही चुनाव है। मन नरक को पकड़ता है, उसका संग्रह करता है और फिर खुद नकार बन जाता है। और फिर वह दुस्चक्र हो जाता है। तुम्‍हारे चित में जितना नकार इकट्टा होता है। तुम उतने ही नकारात्‍मक हो जाते हो। और फिर नकार का संग्रह बढ़ता जाता है। समान-समान को आकर्षित करता है। और यह सिलसिला जन्‍मों-जन्‍मों से चल रहा है। तुम अपनी नकारात्‍मक दृष्‍टि के कारण सब कुछ चूक रहे हो।

यह विधि तुम्‍हें विधायक दृष्‍टि देती है। सामान्‍य मन और उसकी प्रक्रिया के बिलकुल विपरीत है यह विधि। जब भी संतोष मिलता हो, जिस किसी कृत्‍य में भी संतोष मिलता हो। उसे वास्‍तविक करो। उसे अनुभव करो, उसके साथ हो जाओ। यह संतोष किसी बड़े विधायक अस्‍तित्‍व की झलक बन सकता है।

यहां हर चीज महज एक खिड़की है। अगर तुम किसी दुःख के साथ तादात्म्य करते हो तो तुम दुःख की खिड़की से झांक रहे हो। और दुःख और संताप की खिड़की नरक की तरह ही खुलती है। और अगर तुम किसी संतोष के क्षण के साथ आनंद और समाधि के क्षण के साथ एकात्‍म होते हो तो तुम दूसरी खिड़की खोल रहे हो। अस्‍तित्‍व तो वही है, लेकिन तुम्‍हारी खिड़कियाँ अलग-अलग है।

‘’जहां-जहां, जिस किसी कृत्‍य में संतोष मिलता हो, उसे वास्‍तविक करो।‘’

बेशर्त, जहां कही भी संतोष मिले, उसे जीओं। तुम किसी मित्र से मिलते हो और तुम्‍हें प्रसन्‍नता अनुभव होती है। तुम्‍हें अपनी प्रेमिका या अपने प्रेमी से मिलकर सुख अनुभव होता है। इस अनुभव को वास्‍तविक बनाओ, उस क्षण सुख ही हो जाओ और उस सुख को द्वार बना लो। तब तुम्‍हारा मन बदलने लगेगा। और तब तुम सुख इकट्ठा करने लगोगे। तब तुम्‍हारा मन विधायक होने लगेगा। और वही जगह भिन्‍न दिखने लगेगी।

झेन संत बोकोजू ने कहा है कि जगत वही है, लेकिन कुछ भी वही नहीं है, क्‍योंकि मन वही नहीं है। सब कुछ वही रहता है, लेकिन कुछ भी वहीं नहीं रहता है, क्‍योंकि मैं बदल जाता हूं।

तुम संसार को बदलने की कोशिश करते हो, लेकिन तुम कछ भी करो। जगत वही का वही रहता है। क्‍योंकि तुम वही के वही रहते हो। तुम एक बड़ा घर बना लेते हो, तुम्‍हें एक बड़ी कार मिल जाती है। तुम्‍हें सुंदर पत्‍नी मिल जाती है। लेकिन उससे कुछ भी नहीं बदलेगा। बड़ा घर बड़ा नहीं होगा। सुंदर पत्‍नी सुंदर नहीं होगी। बड़ी कार भी छोटी ही रहेगी। क्‍योंकि तुम वहीं के वहीं हो। तुम्‍हारा मन, तुम्‍हारा रुझान, सब कुछ वहीं के वही है। तुम चीजें तो बदल लेते हो लेकिन अपने को नहीं बदलते। एक दुःखी आदमी झोपड़ी को छोड़कर महल में रहने लगता है, लेकिन अपने को नहीं बदलता, तो पहले वह झोंपड़े में दुःखी था, अब वह महल में दुःखी है। उसका दुःख महल का दुःख होगा, लेकिन वह दुःखी होगा।

तुम अपने साथ अपने दुःख लिए चल रहे हो और तुम जहां भी जाओगे अपने साथ रहोगे। इसलिए बुनियादी तौर पर बाहरी बदलाहट नहीं है। वह बदलाहट का आभास है। तुम्‍हें लगता है कि बदलाहट हुई, लेकिन दरअसल बदलाहट नहीं होती है। केवल एक बदलाहट, केवल एक क्रांति, केवल एक आमूल रूपांतरण संभव है और वह यह कि तुम्‍हारा चित नकारात्‍मक से विधायक हो जाए। अगर तुम्‍हारी दृष्‍टि दुःख से बंधी है तो तुम नरक में हो और अगर तुम्‍हारी दृष्‍टि सुख से जुड़ी है तो वही नरक स्‍वर्ग हो जाता है। इसे प्रयोग करो, यह तुम्‍हारे जीवन की गुणवता को रूपांतरित कर देगा।

लेकिन तुम तो गुणवता में नहीं, परिमाण में उत्‍सुक हो कि कैसे ज्‍यादा धन हो जाए। तुम धन का की गुणवता में नहीं, उसके परिणाम में, मात्रा में उत्‍सुक हो और एक अमीर आदमी दरिद्र हो सकता है। सच्‍चाई यही है, क्‍योंकि जो व्‍यक्‍ति जीजों और जीजों के परिमाण में उत्‍सुक है वह इस बात में सर्वथा अपरिचित है कि उसके भीतर एक और आयाम है, यह गुणवत्‍ता का आयाम है। और यह आयाम बदलता है जब तुम्‍हारा मन विधायक होता है।

तो कल सुबह से दिन भर यह स्‍मरण रहे: जब भी कुछ सुंदर और संतोषजनक हो, जब भी कुछ आनंददायक अनुभव आए, उसके प्रति बोधपूर्ण होओ। चौबीस घंटों में ऐसे अनेक क्षण आते है—सौंदर्य, संतोष और आनंद के क्षण—ऐसे अनेक क्षण आते है जब स्‍वर्ग तुम्‍हारे बिलकुल करीब होता है। लेकिन तुम नरक से इतने आसक्‍त हो, इतने बंधे हो कि उन क्षणों को चूकते चले जाते हो। सूरज उगता है, फूल खिलते है, पक्षी चहचहाते है, पेड़ों से होकर हवा गुजरती है। वैसे क्षण घटित हो रहे है। एक बच्‍चा निर्दोष आंखों से तुम्‍हें निहारता है। और तुम्‍हारे भी एक सूक्ष्‍म सुख का भाव उदित हो जाता है। या किसी की मुस्‍कुराहट तुम्‍हें आह्लाद से भर देती है।

अपने चारों ओ देखो ओ उसे खोजों जो आनंददायक है और उससे पूरित हो जाओ, भर जाओ। उसका स्‍वाद लो, उससे भर जाओ और उसे अपने पूरे प्राणों पर छा जाने दो, उसके साथ एक हो जाओ। उसकी सुगंध तुम्‍हारे साथ रहेगी। वह अनुभूति पूरे दिन तुम्‍हारे भीतर गूँजती रहेगी। और वह अनुगूँज तुम्‍हें ज्‍यादा विधायक होने में सहयोगी होगी।

यह प्रक्रिया भी और-और बढ़ती जाती है। यदि सुबह शुरू करो तो शाम तक तुम सितारों के प्रति, चाँद के प्रति, रात के प्रति, अंधेर के प्रति, ज्‍यादा खुले होगे। इसे एक चौबीस घंटे प्रयोग की तरह करो और देखो कि कैसा लगता है। और एक बार तुमने जान लिया कि विधायकता तुम्‍हें दूसरे ही जगत में ले जाती है। तो तुम उससे कभी अलग नहीं होगे। तब तुम्‍हारा पूरा दृष्‍टिकोण नकार से विधायक में बदल जाएगा। तब तुम संसार को एक भिन्‍न दृष्‍टि से, एक नयी दृष्‍टि से देखोगें।

मुझे एक कहानी याद आती है। बुद्ध का एक शिष्‍य अपने गुरु से विदा ले रहा है। शिष्‍य का नाम था पूर्ण काश्यप। उसने बुद्ध से पूछा कि मैं आपका संदेश लेकिर कहां जाऊं? बुद्ध ने कहा कि तुम खुद ही चुन लो। पूर्ण काश्यप ने कहा कि मैं बिहार के एक सुदूर हिस्‍से की तरफ जाऊँगा—उसका नाम सूखा था—उसका नाम सूख था—मैं सूखा प्रांत की तरफ जाऊँगा।

बुद्ध ने कहा कि अच्‍छा हो कि तुम अपना निर्णय बदल लो, तुम किसी और जगह जाओ क्‍योंकि सूखा प्रांत के लोग बड़े क्रूर, हिंसक, और दुष्‍ट है। और अब तक कोई व्‍यक्‍ति वहां उन्‍हें अहिंसा, प्रेम और करूणा का उपदेश सुनाने नहीं गया है। इसलिए अपना चुनाव बदल डालों। पर पूर्ण काश्यप ने कहा: मुझे जाने की आज्ञा दें, क्‍योंकि वहां कोई नहीं गया है और किसी को तो जाना ही चाहिए।

बुद्ध ने कहा की इससे पहले मैं तुम्‍हें वहां जाने की आज्ञा दूँ। मैं तुमसे तीन प्रश्‍न पूछना चाहता हूं। अगर उस प्रांत के लोग तुम्‍हारा अपमान करें तो तुम्‍हें कैसा लगेगा? पूर्ण काश्यप ने कहा: मैं समझूंगा कि वे बड़े अच्‍छे लोग है। जो केवल मेरा अपमान कर रहे है, वे मुझे मार भी सकते थे। बुद्ध ने कहा अब दूसरा प्रश्‍न, अगर वे लोग तुम्‍हें मारें-पीटें भी तो तुम्‍हें कैसा लगेगा? पूर्ण काश्यप ने कहा: मैं समझूंगा कि वे बड़े अच्‍छे लोग है। वे मेरी हत्‍या भी कर सकते थे। लेकिन वे सिर्फ मुझे पीट रहे है। बुद्ध ने कहा: अब तीसरा प्रश्‍न, अगर वे लोग तुम्‍हारी हत्‍या कर दें तो मरने के क्षण में तुम कैसा अनुभव करोगे। पूर्ण काश्यप ने कहा: ‘’ मैं आपको और उन लोगों को धन्‍यवाद दूँगा। अगर वे मेरी हत्‍या कर देंगे तो वे मुझे उस जीवन से मुक्‍त कर देंगे जिसमें न जाने कितनी गलतियां हो सकती थी। वे मुझे मुक्‍त कर देंगे इसलिए मैं अनुगृहीत अनुभव करूंगा।

तो बुद्ध ने कहा: ‘’ अब तुम कहीं भी जा सकते हो, सारा संसार तुम्‍हारे लिए स्‍वर्ग है। अब कोई समस्‍या नहीं है। सारा जगत तुम्‍हारे लिए स्‍वर्ग है। तुम कहीं भी जा सकते हो।

ऐसे चित के साथ जगत में कहीं भी कुछ भी गलत नहीं हो सकता। और तुम्‍हें चित के साथ कुछ भी सम्‍यक नहीं हो सकता। ठीक नहीं हो सकता। सकारात्‍मक चित के साथ सब कुछ गलत हो जाता है। इसलिए नहीं क्‍योंकि कुछ गलत है, बल्‍कि इसलिए क्‍योंकि नकारात्‍मक चित को गलत ही दिखाई देता है।

‘’जहां-जहां जिस किसी कृत्‍य में संतोष मिलता हो, उसे वास्‍तविक करो।‘’

यह एक बहुत ही नाजुक प्रक्रिया है, लेकिन बहुत मीठी भी है। और तुम इसमें जितनी गति करोगे, उतनी मीठी होती जाएगी। तुम एक नयी मिठास और सुगंध से भर जाओगे। बस सुंदर को खोजों, कुरूप भी सुंदर हो जाता है। खुशी क्षण की खोज करो, और तब एक क्षण आता है जब कोई दुःख नहीं रह जाता। आनंद की फ्रिक करो, और देर-अबेर दुःख तिरोहित हो जाता है। विधायक चित के लिए सब कुछ सुंदर है।

ओशो

विज्ञान भैरव तंत्र, भाग-3

प्रवचन—35

साभार:-(oshosatsang.org)

तंत्र-सूत्र–विधि–41 (ओशो)

Meditation on Sound

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ध्‍वनि-संबंधी पाँचवीं विधि:

‘’तार वाले वाद्यों को सुनते हुए उनकी संयुक्‍त केंद्रित ध्‍वनि को सुनो; इस प्रकार सर्वव्‍यापकता को उपलब्‍ध होओ।

वही चीज।

‘’तार वाले वाद्यों को सुनते हुए उनकी संयुक्‍त केंद्रीय ध्‍वनि को सुनो; इस प्रकार सर्वव्‍यापकता को उपलब्‍ध होओ।‘’

तुम किसी वाद्य को सुन रहे हो—सितार या किसी अनय वाद्य को। उसमें कई स्‍वर है। सजग होकर उसके केंद्रीय स्‍वर को सुनो। उस स्‍वर को जो उसका केंद्र हो और उसके चारों और सभी स्‍वर घूमते हों; उसकी आंतरिक धारा को सुनो, जो अन्‍य सभी स्‍वरों को सम्‍हाले हुए हो। जैसे तुम्‍हारे समूचे शरीर को उसका मेरुदंड, उसकी रीढ़ सम्‍हाले हुए है। वैसे ही संगीत की भी रीढ़ होती है। संगीत को सुनते हुए सजग होकर उसमे प्रवेश करो और उसके मेरुदंड को खोजों—उस केंद्रीय स्‍वर को खोजों जो पूरे संगीत को सम्‍हाले हुए है। स्‍वर तो आते जाते रहते है। लेकिन केंद्रीय तत्‍व प्रवाहमान रहता है। उसके प्रति जागरूक होओ।

बुनियादी रूप से मूलत: संगीत का उपयोग ध्‍यान के लिए किया जाता था। भारतीय संगीत का विकास तो विशेष रूप से ध्‍यान की विधि के रूप में ही हुआ था। वैसे ही भारतीय नृत्‍य का विकास भी ध्‍यान विधि के लिए के लिए तैयार किया गया था। संगीतज्ञ या नर्तक के लिए ही नहीं श्रोता या दर्शक के लिए भी वे गहरे ध्‍यान के उपाय थे।

नर्तक या संगीतज्ञ मात्र टेक्‍नीशियन भी हो सकता है। अगर उसके नृत्‍य या संगीत में ध्‍यान नहीं है तो वह टेक्‍नीशियन ही है। वह बड़ा टेक्‍नीशियन हो सकता है। लेकिन तब उसने संगीत में आत्‍मा नहीं है, शरीर भर है। आत्‍मा तो तब होती है जब संगीतज्ञ गहरा ध्‍यानी हो। संगीत तो बाहरी चीज है। सितार बजाते हुए वादक सितार ही नहीं बजाता है, वह भीतर अपने बोध को भी जगाता है। बाहर सितार बजता है और भीतर उसका गहन बोध गति करता है। बहार संगीत बहता रहता है; लेकिन संगीतज्ञ अपने अंतरस्‍थ केंद्र पर सदा सजग बोधपूर्ण बना रहता है। वही बोध समाधि बन जाता है। वही शिखर बन जाता है।

कहते है कि संगीतज्ञ जब सचमुच संगीतज्ञ हो जाता है तो वह अपना वाद्य तोड़ देता है। वह अब उसके काम का न रहा है। और अगर उसे अब भी वाद्य की जरूरत पड़ती है तो वह अभी संगीतज्ञ नहीं हुआ है। वह अभी सिक्‍खड़ ही है। सीख रहा है। अगर तुम ध्‍यान के साथ संगीत का अभ्‍यास करते हो, उसे ध्‍यान बनाते हो तो देर-अबेर आंतरिक संगीत ज्‍यादा महत्‍वपूर्ण हो जाएगा। और बाहरी संगीत ने सिर्फ कम महत्‍वपूर्ण रहेगा, बल्‍कि अंतत: वह बाधा बन जाएगा। तुम सितार को उठाकर फेंक दोगे। तुम वाद्य को अलग रख दोगे। क्‍योंकि अब तुम्‍हें तुम्‍हारा आंतरिक वाद्य मिल गया है। लेकिन वह बहारी वाद्य के बिना नहीं मिल सकता। बहारी वाद्य के साथ आसानी से सजग हुआ जा सकता है। लेकिन जब सजगता सध जाए तो तुम बाहर को छोड़ो और भीतर गति कर जाओ। यही बात श्रोता के लिए भी सही है।

लेकिन जब तुम संगीत सुनते हो, तो क्‍या करते हो? तुम ध्‍यान नहीं करते हो; उलटे तुम संगीत का शराब की तरह उपयोग करते हो। तुम विश्राम के लिए उसका उपयोग करते हो। यही दुर्भाग्य है। यही पीड़ा है। जो विधियां जागरूकता के लिए विकसित की गई थी उनका उपयोग नींद के लिए किया जा रहा है। और ऐसे ही आदमी अपने को धोखा दिये जा रहा है। अगर तुम्‍हें कोई चीज जागने के लिए दि जा रही है।

यही कारण है कि सदियों-सदियों तक सदगुरूओं के उपदेशों को गुप्‍त रखा गया। क्‍योंकि सोचा गया कि सोए हुए व्‍यक्‍ति को विधियां बताना व्‍यर्थ है। वह उसे सोने के ही काम लगाएगा; अन्‍यथा वह नहीं कर सकता। इसलिए पात्रों को ही विधियां दी जाती थी। ऐसे विशेष शिष्‍यों को ही उनका प्रयोग बताया जाता था जो अपनी नींद को छोड़ने को राज़ी है। जो अपनी नींद से जागने के लिए तैयार है।

ओस्पेंस्की ने अपनी एक पुस्‍तक जार्ज गुरजिएफ को यह कहकर समर्पित की है कि ‘’इस व्‍यक्‍ति ने मेरी नींद तोड़ी है।‘’

ऐसे लोग उपद्रवी होते है। गुरजिएफ, बुद्ध या जीसस जैसे लोग उपद्रवी ही होंगे। यही कारण है कि हम उनसे बदला लेते है। जो हमारी नींद में बाधा डालता है। उसे हम सूली पर चढ़ा देते है। वह हमें नहीं भाता है। हम सुंदर सपने देख रहे थे और वह आकर हमारी नींद में बाधा डालता है। तुम उसकी हत्‍या कर देना चाहते हो। स्‍वप्‍न इतना मधुर था।

स्‍वप्‍न मधुर हो चाहे न हो, लेकिन एक बात निश्‍चित है कि वह स्‍वप्‍न है और व्‍यर्थ है, बेकार है। और स्‍वप्‍न अगर सुंदर है तो ज्‍यादा खतरनाक है; क्‍योंकि उसमें आकर्षण अधिक होगा। वह नशे का काम कर सकता है।

हम संगीत का, नृत्‍य का उपयोग नशे के रूप कर रहे है। और अगर तुम संगीत और नृत्‍य का उपयोग नशे की तरह कर रहे हो तो वे तुम्‍हारी नींद के लिए ही नहीं, तुम्‍हारी कामुकता के लिए भी नशे का काम देंगे। और यह स्‍मरण रहे कि कामुकता और नींद संगी-साथी है। जो जितना सोया-सोया होगा, वह उतना ही कामुक होगा। जो जितना जागा हुआ होगा, वह उतना ही कम कामुक होगा। कामुकता की जड़ नींद में है। जब तुम जागोगे तो ज्‍यादा प्रेमपूर्ण होओगे; कामवासना की पूरी ऊर्जा प्रेम में रूपांतरित हो जाती है।

यह सूत्र कहता है: ‘’तार वाले वाद्यों को सुनते हुए उनकी संयुक्‍त केंद्रीय ध्‍वनि को सुनो; इस प्रकार सर्वव्‍यापकता को उपलब्‍ध होओ।‘’

और तब तुम उसे जान लोगे जो जानना है, जो जानने योग्‍य है। तब तुम सर्वव्‍यापक हो जाओगे। उस संगीत के साथ, उसके केंद्रीय तत्‍व को प्राप्‍त कर तुम जाग जाओगे। और उसे जागरूकता के साथ तुम सर्वव्‍यापी हो जाओगे।

अभी तो तुम कहीं एक जगह हो; उस बिंदु को हम अहंकार कहते है। अभी तुम उसी बिंदु पर हो। अगर तुम जाग जाओगे तो यह बिंदु विलीन हो जायेगा। तब तुम कहीं एक जगह नहीं होगे, सब जगह होगे। सर्वव्‍यापी हो जाओगे। तब तुम सर्व ही हो जाओगे। तुम सागर हो जाओगे, तुम अनंत हो जाओगे।

मन सीमा है; ध्‍यान से अनंत में प्रवेश है।

ओशो

विज्ञान भैरव तंत्र, भाग—2

प्रवचन—27

साभार:-(oshosatsang.org)

तंत्र-सूत्र–विधि–28 (ओशो)

Shiv

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अचानक रूकने की कुछ विधियां:

चौथी विधि:

‘कल्‍पना करो कि तुम धीरे-धीरे शक्‍ति या ज्ञान से वंचित किए जा रहे हो। वंचित किए जाने के क्षण में अतिक्रमण करो।‘

इस विधि का प्रयोग किसी यथार्थ स्‍थिति में भी किया जो सकता है। और तुम ऐसी स्‍थिति की कल्‍पना भी कर सकते हो। उदाहरण के लिए लेट जाओ, शिथिल हो जाओ। और भाव करो कि तुम्‍हारा शरीर मर रहा है। आंखें बंद कर लो और भाव करो कि मैं मर रहा हूं। जल्‍दी ही तुम महसूस करोगे कि मेरा शरीर भारी हो रहा है। भाव करो: ‘मैं मर रहा हूं, मैं मर रहा हूं, मैं मर रहा हूं।‘

अगर भाव प्रामाणिक है तो तुम्‍हारा शरीर भारी होने लगेगा। तुम्‍हें महसूस होगा कि मेरा शरीर पत्‍थर जैसा हो गया है। तुम अपने हाथ हिलाना चाहोगे। लेकिन हिला नहीं पाओगे, क्‍योंकि वह इतना भारी और मुर्दा हो गया है। भाव किए जाओ कि मैं मर रहा हूं। मैं मर रहा हूं, मैं मर रहा हूं। और जब तुम्‍हें मालूम हो कि अब वह क्षण आ गया है, एक छलांग और कि मैं मर जाऊँगा। तब शरीर को भूल जाओ और अतिक्रमण करो।

‘कल्‍पना करो कि तुम धीरे-धीरे शक्‍ति या ज्ञान से वंचित किए जा रहे हो। वंचित किए जाने के क्षण में, अतिक्रमण करो।‘

जब तुम अनुभव करते हो कि शरीर मृत हो गया है, तब अतिक्रमण करने का क्‍या अर्थ है? शरीर को देखो। अब तक तुम भाव करते रहे थे कि मैं मर रहा हूं। अब शरीर मृत बोझ बन गया है। शरीर को देखा। भूल जाओ कि मर रहा हूं। अब द्रष्‍टा हो जाओ। शरीर मृत पडा है और तुम उसे देख रहे हो। अतिक्रमण घटित हो जाएगा। तुम अपने मन से बाहर निकल जाओ; क्‍योंकि मृत शरीर को मन की जरूरत नहीं होती। मृत शरीर इतना विश्राम में होता है कि मन की प्रक्रिया ही ठहर जाती है। तुम हो, शरीर भी है; लेकिन मन अनुपस्‍थित है।

स्मरण रहे, मन की जरूरत जीवन के लिए नहीं है। मृत्‍यु के लिए नहीं है। अगर तुम्‍हें अचानक पता चले कि मैं एक घंटे के अंदर मर जाऊँगा तो उस एक घंटे के अंदर तुम क्‍या करोगे। एक घंटा बचा है। और निश्‍चित है कि एक घंटे बाद, ठीक एक घंटे बाद तुम मर जाओगे। तो तुम क्‍या करोगे?

तुम्‍हारा विचार बिलकुल बंद हो जाएगा। क्‍योंकि सब विचारना अतीत से या भविष्‍य से संबंधित है। तुम एक घर खरीदने की सोच रहे थे। या एक कार खरीदना चाहते थे। या हो सकता है कि तुम किसी से विवाह की योजना बना रहे थे। या किसी को तलाक देना चाहते थे। तुम बहुत सी बातें सोच रहे थे। और वह सतत तुम्‍हारे मन पर भारी थी। अब जब कि सिर्फ एक घंटा हाथ में है तब न विवाह का कोई अर्थ है और न तलाक का। अब तुम सारी योजना उनके लिए छोड़ सकते हो जो जीने वाले है।

मृत्‍यु के साथ आयोजन समाप्‍त हो जाता है। मृत्‍यु के साथ चिंता समाप्‍त हो जाती है। क्‍योंकि हर आयोजन हर चिंता जीवन से संबधित है। कल तुम जीओगे, इसी कारण से चिंता होती है। और यही कारण है कि जो लोग ध्‍यान सिखते है वह सतत कहते है कि कल की मत सोचो। जीसस अपने शिष्‍यों से कहते थे कि कल की मत सोचो। क्‍योंकि कल की सोचोगे तो तुम ध्‍यान में नहीं उतर पाओगे। तुम चिंता में उतर जाओगे।

लेकिन हमें चिंताओं से इतना लगाव है कि हम कल की ही नहीं सोचते; आने वाले जन्‍म तक कि चिंता करते है। हम इस जीवन की ही नहीं सोचते आने वाले जीवन का भी आयोजन करते है। मृत्‍यु के बाद के जीवन की भी चिंता रहती है।

एक दिन मैं सड़क से गुजर रहा था कि किसी ने एक पुस्‍तिका मेरे हाथ में थमा दी। उसके मुख पृष्‍ठ पर एक बहुत ही सुंदर मकान का चित्र बना था। और उसके साथ ही एक सुंदर बग़ीचा भी था। वह सुंदर था। अद्भुत रूप से सुंदर था। और बड़े-बड़े अक्षरों में यह प्रश्‍न लिखा था; क्‍या तुम एकसा सुंदर घर और ऐसा सुंदर बग़ीचा चाहते हो? और वह भी बिना मूल्‍य के ‘’मुफ्त’’।

मैंने उस किताब को उलट-पुलट कर देखा; वह घर और बग़ीचा इस दुनियां के नहीं थे। वह ईसाइयों की पुस्‍तिका थी। उसमें लिखा था कि अगर तुम्‍हें ऐसे सुंदर घर और बग़ीचे की चाह है तो जीसस में विश्‍वास करो। जो लोग उनमें विश्‍वास करते है उन्‍हें प्रभु के राज्‍य में ऐसे घर मुफ्त में मिलते है।

मन कल की ही नहीं सोचता, वरन मृत्‍यु के बाद की भी सोचता है; वह अगले जन्‍मों के लिए भी व्‍यवस्‍था और आरक्षण करता रहता है। ऐसा मन धार्मिक नहीं हो सकता। धार्मिक मन कल की चिंता नहीं करता है। इसलिए जो लोग जन्‍मों की चिंता करते है वि सतत सोचते रहते है। कि परमात्‍मा उनके साथ कैसा व्‍यवहार करेगा। चर्चिल मर रहा था और किसी ने उससे पूछा; ‘तुम स्‍वर्ग में परम पिता से मिलने को तैयार हो?’ चर्चिल ने कहा: ‘वह मेरी चिंता नहीं है; मुझे तो यह चिंता है कि परम पिता मुझसे मिलने को तैयार है?’ चाहे जो भी ढंग हो, तुम चिंता भविष्‍य की ही करते हो।

बुद्ध ने कहा है कि कोई स्‍वर्ग नहीं है और न कोई भावी जीवन है। और उन्‍होंने यह भी कहा है कि आत्‍मा नहीं है। और तुम्‍हारी मृत्‍यु समग्र ओर पूरी होगी। कुछ भी नहीं बचेगा।

इस पर लोगों ने सोचा कि बुद्ध नास्‍तिक है। वे नास्‍तिक नहीं थे। वे एक स्‍थिति पैदा कर रहे थे। जिसमें तुम कल को भूल जाओ और एक क्षण में, यहां और अभी जी सको। तब ध्‍यान बहुत सरल हो जाता है।

तो अगर तुम मृत्‍यु की सोच रहे हो—वह मृत्‍यु नहीं जो भविष्‍य में आएगी। तो जमीन पर लेट जाओ। मृतवत हो जाओ। शिथिल हो जाओ और भाव करो कि मैं मर रहा हूं, मैं मर रहा हूं। मैं मर रहा हूं। यह सिर्फ सोचो ही नहीं शरीर के एक-एक अंग में, शरीर के एक-एक तंतु में इसे अनुभव करो। मृत्‍यु को अपने भीतर सरकने दो यह एक अत्‍यंत सुंदर ध्‍यान –विधि है। और जब तुम समझो कि शरीर मृत बोझ हो गया है और जब तुम अपना हाथ या सिर भी नहीं हिला सकते, जब लगे कि सब कुछ मृतवत हो गया; तब एकाएक अपने शरीर को देखो तब मन वहां नहीं होगा। तब तुम देख सकते हो। तब सिर्फ तुम होगे चेतना होगी।

अपने शरीर को देखा। तुम्‍हें नहीं लगेगा कि यह तुम्‍हारा शरीर है। बस एक शरीर है। कोई शरीर, ऐसा लगेगा। अगर मन न हो, अनुपस्‍थिति हो, तो तुम नहीं कहोगे कि मैं शरीर हूं। या शरीर के बाहर हूं। तुम महज होगे। भीतर और बाहर नहीं होगे। भीतर और बाहर सापेक्ष शब्‍द खड़े होगे। तुम शरीर में नहीं होगे।

ध्‍यान रहे, मन के कारण ही अहं भाव उठता है कि मैं शरीर हूं। यह भाव कि मैं शरीर हूं मन के कारण है। अगर मन न हो, अनुपस्‍थित हो, तो तुम नहीं कहोगे। कि मैं शरीर हूं या शरीर के बाहर हूं। तुम महज होगे। भीतर और बाहर नहीं होगे। भीतर और बाहर सापेक्ष शब्‍द है। जो मन से संबंधित है। तब तुम मात्र साक्षी रहोगे। यही अतिक्रमण है।

तुम यह प्रयोग कई ढंगों से कर सकते हो। कभी-कभी वास्‍तविक स्‍थितियों में भी यह प्रयोग संभव है। तुम बीमार हो और तुम्‍हें लगता है कि अब कोई आशा न बची। मृत्‍यु निश्‍चित है। यह बहुत उपयोगी स्‍थिति है। ध्‍यान के लिए इसका उपयोग किया जा सकता है।

और दूसरे ढंगों से भी इसका उपयोग कर सकते हो। कल्‍पना करो कि धीरे-धीरे तुम्‍हारी शक्ति क्षीण हो रही है। लेट जाओ और भाव करो कि समस्‍त अस्‍तित्‍व मेरी शक्‍ति को चूस रहा है। चारों और से मेरी शक्‍ति चूसी जा रही है। और शीध्र ही में नि: सत्व हो जाऊँगा। सर्वथा बलहीन हो जाऊँगा; मेरे भीतर कुछ भी नहीं बचेगा।

और जीवन ऐसा ही है। तुम चूसे जा रहे हो। तुम्‍हारे चारों और की चीजें तुम्‍हें चूस रही है। और एक दिन तुम मुर्दा हो जाओगे। सब कुछ चूस लिया जाएगा। जीवन तुम से जा चुकेगा और केवल शव पडा रह जायेगा।

इस क्षण भी तुम यह प्रयोग कर सकते हो। कल्‍पना कर सकते हो। लेट जाओ और भाव करो कि ऊर्जा चूसी जा रही है। थोड़े ही दिनों में तुम्‍हें साफ होने लगेगा। कि कैसे ऊर्जा बाहर जाती है। और जब तुम समझो कि सारी ऊर्जा बाहर निकल गई है, भीतर कुछ नहीं बची है, तब अतिक्रमण कर जाओ।

‘वंचित किए जाने के क्षण में, अतिक्रमण करो।‘

जब ऊर्जा का अंतिम कण तुम से बाहर जा रहा है। अतिक्रमण कर जाओ द्रष्‍टा हो जाओ मात्र साक्षी। तब यह जगत और यह शरीर दोनों तुम नहीं हो। तुम बस देखने वाले हो।

यह अतिक्रमण तुम्‍हें तुम्‍हारे मन के बाहर ले जाएगा। यह कुंजी है। और तुम अपनी पसंद के मुताबिक कई ढंगों से यह प्रयोग कर सकते हो। उदाहरण के लिए, हम लोग दौड़ने की बात कर रहे थे। उसमें ही अपने को थका दें। दौड़ते जाओ। खुद मत रुको। शरीर को अपने आप ही गिरने दो। जब शरीर का जर्रा-जर्रा थक जाएगा, तुम गिर पड़ोगे। और जब तुम गिर रह हो तभी सजग हो जाओ। सिर्फ देखो कि शरीर गिर रहा है।

कभी-कभी चमत्‍कारपूर्ण घटना घटती है। तुम खड़े रहते हो, शरीर गिर गया है, और तुम उसे देख सकते हो। तुम देख सकते हो, क्‍योंकि शरीर ही गिरा है और तुम खड़े हो। शरीर के साथ मत गिरो। चारों तरफ घूमों, दौड़ों, नाचो, शरीर को थका डालों। लेकिन ध्‍यान रहे, तुम्‍हें लेटना नहीं है। क्‍योंकि उस हालत में आंतरिक चेतना भी शरीर के साथ गति करके लेट जाती है। इसलिए लेटना नहीं है। तुम चलते ही चलो, जब तक कि शरीर अपने आप ही न गिर जाए। तब शरीर शव की तरह गिर जाता है। और तुरंत तुम्‍हें दिखाई देता है कि शरीर गिर रहा है और तुम कुछ नहीं कर सकते है।

उसी क्षण आँख खोलों, सजग हो जाओ। चूको मत। जागरूक होकर देखो कि क्‍या हो रहा है। हो सकता है। तुम खड़े हो और शरीर गिर पडा है। एक बार यह जान लो कि फिर तुम यह कभी न भूलोंगे कि मैं इस शरीर से पृथक हूं।

अंग्रेजी के शब्‍द ‘एक्स्टसी’ का यही अर्थ है। बाहर खड़ा होना। एक्स्टसी अर्थात बाहर खड़ा होना। अंग्रेजी में एक्स्टसी का प्रयोग समाधि के लिए होता है। और एक बार तुम समझ लो कि तुम शरीर के बाहर हो तो उस क्षण मन नहीं रह सकता। क्‍योंकि मन ही वह सेतु है जिससे यह भाव पैदा होता है कि मैं शरीर हूं। अगर तुम एक क्षण के लिए भी शरीर के बाहर हुए तो उस क्षण में मन नहीं रहेगा।

यह अतिक्रमण है। अब तुम शरीर में वापस हो सकते हो, मन में भी वापस हो सकते हो; लेकिन अब तुम इस अनुभव को नहीं भूल सकोगे। यह अनुभव तुम्‍हारे अस्‍तित्‍व का भाग बन गया है। यह सदा तुम्‍हारे साथ रहेगा।

इस प्रयोग को प्रतिदिन करो। और इस सरल प्रक्रिया से बहुत कुछ घटित होता है।

मन को लेकिन पश्‍चिम सदा चिंतित रहता है और उनके उपाय भी करता है। लेकिन अब तक कोई उपाय काम करता नजर नहीं आता। हरेक चीज फैशन बनकर समाप्‍त हो जाती है। मनोविश्‍लेषण अब एक मृत आंदोलन है। उसकी जगह नए आंदोलन आ गए है—एनकांउटर समूह है, समूह मनोविज्ञान है, कर्म मनोविज्ञान है—और भी ऐसी ही चीजें है। लेकिन वे फैशन की तरह आती है और चली जाती है। क्‍यो?

इसलिए कि मन के भीतर तुम ज्‍यादा से ज्‍यादा व्‍यवस्‍था ही बिठा सकते हो। आरे ये व्‍यवस्‍थाएं बार-बार उपद्रव में पड़ेगी। मन की व्‍यवस्‍था, उसके साथ समायोजन करना रेत पर घर बनाने जैसा है। ताश का घर बनाने जैसा है। वह घर सदा हिलता रहेगा। और यह डर सदा रहेगा कि अब गिरा तब गिरा। वह किसी भी क्षण गिर सकता है।

आंतरिक रूप से सुखी और स्‍वस्‍थ होने के लिए, संपूर्ण होने के लिए मन के पार जाना ही एकमात्र उपाय है। तब तुम मन में भी लौट सकते हो। और उसे उपयोग में भी ला सकते हो। तब मन यंत्र का काम करता है। और तुम उससे तादात्म्‍य नहीं रखते।

तो दो चीजें है। एक कि मन के साथ तुम्‍हारा तादात्‍म्‍य है। तंत्र के लिए यही रूग्‍णता है। दूसरे, मन के साथ तुम्‍हारा तादात्‍म्‍य नहीं रहा; तुम उसे यंत्र की तरह काम में लाते हो। तब तुम स्‍वस्‍थ और संपूर्ण हो।

ओशो

विज्ञान भैरव तंत्र, भाग—2

प्रवचन—17

साभार:-(oshosatsang.org)

तंत्र-सूत्र–विधि–23 (ओशो)

bholenath

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केंद्रित होने की ग्‍यारहवीं विधि:

‘’अपने सामने किसी विषय को अनुभव करो। इस एक को छोड़कर अन्‍य सभी विषयों की अनुपस्‍थिति को अनुभव करो। फिर विषय-भाव और अनुपस्‍थिति भाव को भी छोड़कर आत्‍मोपलब्‍ध होओ।‘’

‘’अपने सामने किसी विषय को अनुभव करो।‘’

कोई भी विषय, उदाहरण के लिए एक गुलाब का फूल है—कोई भी चीज चलेगी।

‘’अपने सामने किसी विषय को अनुभव करो….’’

देखने से काम नहीं चलेगा, अनुभव करना है। तुम गुलाब के फूल को देखते हो, लेकिन उससे तुम्‍हारा ह्रदय आंदोलित नहीं होता है। तब तुम गुलाब को अनुभव नहीं करते हो। अन्‍यथा तुम रोते और चीखते, अन्‍यथा तुम हंसते और नाचते। तुम गुलाब को महसूस नहीं कर रहे हो, तुम सिर्फ गुलाब को देख रहे हो।

और तुम्‍हारा देखना भी पूरा नहीं है। अधूरा है। तुम कभी किसी चीज को पूरा नहीं देखते अतीत हमेशा बीच में आता है। गुलाब को देखते ही अतीत-स्‍मृति कहती है कि यह गुलाब है। और यह कहकर तुम आगे बढ़ जाते हो। लेकिन तब तुमने सच में गुलाब को नहीं देखा। जब मन कहता है कि यह गुलाब है तो उसका अर्थ हुआ कि तुम इसके बारे में सब कुछ जानते हो, क्‍योंकि तुमने बहुत गुलाब देखे है। मन कहता है कि अब और क्‍या जानना है। आगे बढ़ो। और आगे बढ़ जाते हो।

यह देखना अधूरा है। यह देखना-देखना नहीं है। गुलाब के फूल के साथ रहो। उसे देखो और फिर उसे महसूस करो। उसे अनुभव करो। अनुभव करने के लिए क्‍या करना है? उसे स्‍पर्श करो, उसे सूंघो; उसे गहरा शारीरिक अनुभव बनने दो। पहले अपनी आंखों को बंद करो और गुलाब को अपने पूरे चेहरे को छूने दो। इस स्‍पर्श को महसूस करो। फिर गुलाब को आँख से स्‍पर्श करो। फिर गुलाब को नाक से सूंधो। फिर गुलाब के पास ह्रदय को ले जाओ और उसके साथ मौन हो जाओ। गुलाब को अपना भाव अर्पित करो। सब कुछ भूल जाओ। सारी दूनिया को भूल जाओ। गुलाब के साथ समग्रत: रहो।

‘’अपने सामने किसी विषय को अनुभव करो। इस एक को छोड़कर अन्‍य सभी विषयों की अनुपस्‍थिति को अनुभव करो।

यदि तुम्‍हारा मन अन्‍य चीजों के संबंध में सोच रहा है तो गुलाब का अनुभव गहरा नहीं जाएगा। सभी अन्‍य गुलाबों को भूल जाओ। सभी अन्‍य लोगों को भूल जाओ। सब कुछ को भूल जाओ। केवल इस गुलाब को रहने दो। यही गुलाब हो, यही गुलाब। सब कुछ को भूल जाओ। केवल इस गुलाब को रहने दो। यही गुलाब, को तुम्‍हें आच्‍छादित कर लेने दो। समझो कि तुम इस गुलाब में डूब गये हो।

यह कठिन होगा, क्‍योंकि हम इतने संवेदनशील नहीं है। लेकिन स्‍त्रियों के लिए यह उतना कठिन नहीं होगा। क्‍योंकि वे किसी चीज को आसानी से महसूस करती है। पुरूषों के लिए यह ज्‍यादा कठिन होगा। हां, अगर उनका सौंदर्य बोध विकसित हो, कवि, चित्रकार या संगीतकार का सौंदर्य बोध विकसित होता है। तो बात और है। तब वे भी अनुभव कर सकते है। लेकिन इसका प्रयोग करो।

बच्‍चे यह प्रयोग बहुत सरलता से कर सकते है। मैं अपने एक मित्र के बेटे को यह प्रयोग सिखाता था। यह किसी चीज को आसानी से अनुभव करता था। फिर मैंने उसे गुलाब का फल दिया और उससे यह सब कहा जो तुम्‍हें अब कह रहा हूं। उसने यह किया और कहा कि मैं गुलाब का फूल बन गया हूं। मेरा भाव यही है कि मैं ही गुलाब का फूल हूं।

बच्‍चे इस विधि को बहुत आसानी से कर सकते है। लेकिन हम उन्‍हें इसमें प्रशिक्षित नहीं करते। प्रशिक्षित किया जाए तो बच्‍चे सर्वश्रेष्‍ठ ध्‍यानी हो सकते है।

‘’अपने सामने किसी विषय को अनुभव करो। इस एक को छोड़कर अन्‍य सभी विषयों की अनुपस्‍थिति को अनुभव करो।‘’

प्रेम में यही घटित होता है। अगर तुम किसी के प्रेम में हो तो तुम सारे संसार को भूल जाते हो। और अगर अभी भी संसार तुम्‍हें याद है तो भली भांति समझो कि यह प्रेम नहीं है। प्रेम में तुम संसार को भूल जाते हो, सिर्फ प्रेमिका या प्रेमी याद रहता है। इसलिए मैं कहता हूं कि प्रेम ध्‍यान है। तुम इस विधि को प्रेम-विधि के रूप में भी उपयोग कर सकते हो। अब अन्‍य सब कुछ भूल जाओ।

कुछ दिन हुए एक मित्र अपनी पत्‍नी के साथ मेरे पास आए। पत्‍नी को पति से कोई शिकायत थी। इसलिए पत्‍नी आई थी। मित्र ने कहा कि मैं एक वर्ष से ध्‍यान कर रहा हूं। और लगती है। यह आवाज मेरे ध्‍यान में सहयोगी है। लेकिन अब एक आश्‍चर्य की घटना घटती है। जब मैं अपनी पत्‍नी के साथ संभोग करता हूं, और संभोग शिखर छूने लगता है तब भी मेरे मुंह से रजनीश-रजनीश की आवाज निकलने लगती है। और इस कारण मेरी पत्‍नी को बहुत अड़चन होती है। वह अक्‍सर पूछती है कि तुम प्रेम करते हो या ध्‍यान करते हो या क्‍या करते हो? और ये रजनीश बीच में कैसे आ जाते है।

उस मित्र ने कहा कि मुश्‍किल यह है कि अगर मैं रजनीश-रजनीश न चिल्‍लाउं तो संभोग का शिखर चूक जाता है। और चिल्‍लाउं तो पत्‍नी पीडित होती है। सह रोने चिल्‍लाने लगती है। और मुसीबत खड़ी कर देती है। तो उन्‍होंने मेरी सलाह पूछी और कहां कि पत्‍नी को साथ लाने का यही कारण है।

उनकी पत्‍नी की शिकायत दुरूस्‍त है। क्‍योंकि वह कैसे मान सकती है कि कोई दूसरा व्‍यक्‍ति उनके बीच में आये। यही कारण है कि प्रेम के लिए एकांत जरूरी है। बहुत जरूरी है। सब कुछ को भूलने के लिए एकांत अर्थपूर्ण है।

अभी यूरोप और अमेरिका में वे समूह संभोग का प्रयोग कर रहे है—एक कमरे में अनेक जोड़े संभोग में उतरते है। यह मूढ़ता है। अत्‍यंतिक मूढ़ता है। क्‍योंकि समूह में संभोग की गहराई नहीं छुई जा सकती है। वह सिर्फ काम क्रीड़ा बन कर रह जाएगी। दूसरों की उपस्‍थिति बाधा बन जाती है। तब इस संभोग को ध्‍यान भी नहीं बनाया जा सकता है।

अगर तुम शेष संसार को भूल सको तो ही तुम किसी विषय के प्रेम में हो सकते हो। चाहे वह गुलाब का फूल हो या पत्‍थर हो या कोई भी चीज हो, शर्त यही है कि उस चीज की उपस्‍थिति महसूस करो और अन्‍य चीजों की अनुपस्‍थिति महसूस करो। केवल वही विषय वस्‍तु तुम्‍हारी चेतना में अस्‍तित्‍वगत रूप से रहे।

अच्‍छा हो कि इस विधि के प्रयोग के लिए कोई ऐसी चीज चुनो जो तुम्‍हें प्रीतिकर हो। अपने सामने एक चट्टान रखकर शेष संसार को भूलना कठिन होगा। यह कठिन होगा, लेकिन झेन सदगुओं ने यह भी किया है। उन्‍होंने ध्‍यान के लिए रॉक गार्डन बना रखा है। वहां पेड़-पौधे या फूल नहीं होते। पत्‍थर और बालू होते है। और वे पत्‍थर पर ध्‍यान करते है।

वे कहते है कि अगर किसी पत्‍थर के प्रति तुम्‍हारा गहन प्रेम हो तो कोई भी आदमी तुम्‍हारे लिए बाधा नहीं हो सकता। और मनुष्‍य चट्टान जैसे ही तो है। अगर तुम चट्टान को प्रेम कर सकते हो तो मनुष्‍य को प्रेम करने में क्‍या कठिनाई। तब कोई अड़चन नहीं है। मनुष्‍य चट्टान जैसे है। उससे भी ज्‍यादा पथरीले। उन्‍हें तोड़ना उनमें प्रवेश करना अति कठिन है।

लेकिन अच्‍छा हो कि कोई ऐसी चीज चुनो जिसके प्रति तुम्‍हारा सहज प्रेम हो। और तब शेष संसार को भूल जाओ। उसकी उपस्‍थिति का मजा लो, उसका स्‍वाद लो आनंद लो। उस वस्‍तु में गहरे उतरो और उस वस्‍तु को अपने में गहरा उतरने दो।

‘’फिर विषय भाव को छोड़कर…….।‘’

अब इस विधि का कठिन अंश आता है। तुमने पहले ही सब विषय छोड़ दिए है। सिर्फ यह एक विषय तुम्‍हारे लिए रहा है। सबको भूलकर एक इसे तुमने याद रखा था। अब ‘’विषय भाव को छोड़कर….।‘’ अब उस भाव को भी छोड़कर। अब तो दो ही चींजे बची है, एक विषय की उपस्‍थिति है और शेष चीजों की अनुपस्‍थिति है। अब उस अनुपस्‍थिति को भी छोड़ दो। केवल यह गु लाब या केवल यह चेहरा। यह केवल यह स्‍त्री या केवल यह पुरूष या यह चट्टान की उपस्‍थिति बची है। उसे भी छोड़ दो। और उसके प्रति जो भाव है, उसे भी तुम अचानक एक आत्‍यंतिक शून्‍य में गिर जाते हो। जहां कुछ भी नहीं बचता।

और शिव कहते है: ’’आत्‍मोपल्‍बध होओ।‘’ इस शून्‍य को, इस ना-कुछ को उपलब्‍ध हो, यही तुम्‍हारा स्‍वभाव है, यही शुद्ध होना है।

शून्‍य को सीधे पहुंचना कठिन होगा—कठिन और श्रम-साध्‍य। इसलिए किसी विषय को माध्‍यम बनाकर वहां अच्‍छा है। पहले किसी विषय को अपने मन में ले लो और उसे इस समग्रता से अनुभव करो। कि किसी अन्‍य चीज को याद रखने की जरूरत न रहे। तुम्‍हारी समस्‍त चेतना इस एक चीज से भर जाए। और तब इस विषय को भी छोड़ दो, इसे भी भूल जाओ। तब तुम किसी अगाध अतल में प्रविष्ट हो जाते हो। जहां कुछ भी नहीं है। वहां केवल तुम्‍हारी आत्‍मा है। शुद्ध और निष्‍कलुष। यह शुद्ध अस्‍तित्‍व यह शुद्ध चैतन्‍य ही तुम्‍हारा स्‍वभाव है।

लेकिन इस विधि को कई चरणों में बांटकर प्रयोग करो। पूरी विधि को एकबारगी काम में मत लाओ। पहल एक विषय का भाव निर्मित करो। कुछ दिन तक सिर्फ इस हिस्‍से का प्रयोग करो। पूरी विधि का प्रयोग मत करो। पहले कुछ दिनों तक या कुछ हफ्तों तक इस एक हिस्‍से की, पहले हिस्‍से की साधना करो। विषय-भाव पैदा करो। पहले विषय को महसूस करो। और एक ही विषय चुनो, उसे बार-बार बदलों मत। क्‍योंकि हर बदलते विषय के साथ तुम्‍हें फिर-फिर उतना ही श्रम करना होगा।

अगर तुमने विषय के रूप में गुलाब का फूल चुना है तो रोज-रोज गुलाब के फूल का ही उपयोग करो। उस गुलाब के फूल से तुम भर जाओ। भरपूर हो जाओ। ऐसे भर जाओ कि एक दिन कह सको की मैं फूल ही हूं। तब विधि का पहला हिस्‍सा सध गया, पूरा हूआ।

जब फूल ही रह जाए और शेष सब कुछ भूल जाए, तब इस भाव का कुछ दिनों तक आनंद लो। यह भाव अपने आप में सुंदर है। बहुत-बहुत सुंदर है। यह अपने आप में बहुत प्राणवान है, शक्‍तिशाली है। कुछ दिनों तक यही अनुभव करते रहो। और जब तुम उसके साथ रच-पच जाओगे, लयवद्ध हो जाओगे, तो फिर वह सरल हो जाएगा। फिर उसके लिए संघर्ष नहीं करना होगा। तब फूल अचानक प्रकट होता है। और समस्‍त संसार भूल जाता है। केवल फूल रहता है।

इसके बाद विधि के दूसरे भाग पर प्रयोग करो। अपनी आँख बंद कर लो और फूल को भी भूल जाओ। याद रहे, अगर तुमने पहल भाग को ठीक-ठीक साधा है तो दूसरा भाग कठिन नहीं होगा। लेकिन यदि पूरी विधि पर एक साथ प्रयोग करोगे तो दूसरा भाग कठिन ही नहीं असंभव होगा। पहले भाग में अगर तुमने एक फूल के लिए सारी दुनियां को भूला दिया तो दूसरे भाग में शून्‍य के लिए फूल को भूलाना आसानी से हो सकेगा। दूसरा भाग आएगा। लेकिन उसके लिए पहल भाग पहले करना जरूरी है।

लेकिन मन बहुत चालाक है। मन सदा कहेगा। कि पूरी विधि को एक साथ प्रयोग करो। लेकिन उसमे तुम सफल नहीं हो सकते हो। और तब मन कहेगा कि यह विधि काम की नहीं है। या यह तुम्‍हारे लिए नही है।

इसलिए अगर सफल होना चाहते हो तो विधि को क्रम में प्रयोग करो। पहले-पहले भाग को पूरा करो और तब दूसरे भाग को हाथ में लो। और तब विषय भी विलीन हो जाता है। और मात्र तुम्‍हारी चेतना रहती है। शुद्ध प्रकाश, शुद्ध ज्‍योति-शिखा।

कल्‍पना करो कि तुम्‍हारे पास दीया है, और दिए की रोशनी अनेक चीजों पर पड़ रही है। मन की आंखों से देखो कि तुम्‍हारे अंधेरे कमरे में अनेक-अनेक चीजें है। और तुम एक दिया वहां लाते हो और सब चीजें प्रकाशित हो जाती है। दीया उन सब चीजों को प्रकाशित करता है। जिन्‍हें तुम वहां देखते हो।

लेकिन अब तुम उनमें से एक विषय चून लो, और उसी विषय के साथ रहो। दीया वहीं है, लेकिन अब उसकी रोशनी एक ही विषय पर पड़ती है। फिर उस एक विषय को भी हटा दो। और तब दीए के लिए कोई विषय नहीं बचा।

वही बात तुम्‍हारी चेतना के लिए सही है। तुम प्रकाश हो, ज्‍योति शिखा हो। और सारा संसार तुम्‍हारा विषय है। तुम सारे संसार को छोड़ देते हो। और एक विषय पर अपने को एकाग्र करते हो। तुम्‍हारी ज्‍योति शिखा वही रहती है। लेकिन अब वह अनेक विषयों में व्‍यस्‍त नहीं है। वह एक ही विषय में व्‍यस्‍त है। और फिर उस एक विषय को भी छोड़ दो। अचानक तब सिर्फ प्रकाश बचता है। चेतना बचती है। वह प्रकाश किसी विषय को नहीं प्रकाशित कर रहा है।

इसी को बुद्ध ने निर्वाण कहा है। इसी को महावीर ने कैवल्‍य कहा है। परम एकांत कहा है। उपनिषादो ने इसे ही ब्रह्मज्ञान या आत्‍मज्ञान कहा है। शिव कहते है कि अगर तुम इस विधि को साध लो तो तुम ब्रह्मज्ञान को उपल्‍बध हो जाओगे।

ओशो

विज्ञान भैरव तंत्र

(तंत्र-सूत्र—भाग-1)

प्रवचन-15

साभार:-(oshosatsang.org)