विज्ञान भैरव तंत्र विधि–112 (ओशो)

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चौथी विधि:

‘आधारहीन, शाश्‍वत, निश्‍चल आकाश में प्रविष्‍ट होओ।’

इस विधि में आकाश के, स्‍पेस के तीन गुण दिए गए है।

1–आधारहीन: आकाश में कोई आधार नहीं हो सकता।

2–शाश्‍वत: वह कभी समाप्‍त नहीं हो सकता।

3–निश्‍चल: वह सदा ध्‍वनि-रहित व मौन रहता है।

इस आकाश में प्रवेश करो। वह तुम्‍हारे भीतर ही है।

लेकिन मन सदा आधार खोजता है। मेरे पास लोग आते है और मैं उनसे कहता हूं, ‘आंखें बंद कर के मौन बैठो और कुछ भी मत करो।’ और वे कहते है, हमें कोई अवलंबन दो, सहारा दो। सहारे के लिए कोई मंत्र दो। क्‍योंकि हम खाली बैठ नहीं सकते है। खाली बैठना कठिन है। यदि मैं उन्‍हें कहता हूं कि मैं तुम्‍हें मंत्र दे दूं तो ठीक है। तब वह बहुत खुश होते है। वे उसे दोहराते रहते है। तब सरल है।

आधार के रहते तुम कभी रिक्‍त नहीं हो सकते। यही कारण है कि वह सरल है। कुछ न कुछ होना चाहिए। तुम्‍हारे पास करने के लिए कुछ न कुछ होना चाहिए। करते रहने से कर्ता बना रहता है। करते रहने से तुम भरे रहते हो—चाहे तुम ओंकार से भरे हो। ओम से भरे हो, राम से भरे हो। जीसस से, आवमारिया से। किसी भी चीज से—किसी भी चीज से भरे हो, लेकिन तुम भरे हो। तब तुम ठीक रहते हो। मन खालीपन का विरोध करता है। वह सदा किसी चीज से भरा रहना चाहता है। क्‍योंकि जब तक वह भरा है तब तक चल सकता है। यदि वह रिक्‍त हुआ तो समाप्‍त हो जाएगा। रिक्‍तता में तुम अ-मन को उपलब्‍ध हो जाओगे। वही कारण है कि मन आधार की खोज करता है।

यदि तुम अंतर-आकाश, इनर स्‍पेस में प्रवेश करना चाहता हो तो आधार मत खोजों। सब सहारे—मंत्र, परमात्‍मा, शास्‍त्र–जो भी तुम्‍हें सहारा देता है वह सब छोड़ दो। यदि तुम्‍हें लगे कि किसी चीज से तुम्‍हें सहारा मिल रहा है तो उसे छोड़ दो और भीतर आ जाओ। आधारहीन।

यह भयपूर्ण होगा; तुम भयभीत हो जाओगे। तुम वहां जा रहे हो जहां तुम पूरी तरह खो सकते हो। हो सकता है तुम वापस ही न आओ। क्‍योंकि वहां सब सहारे खो जाएंगे। किनारे से तुम्‍हारा संपर्क छूट जाएगा। और नदी तुम्‍हें कहां ले जाएगी। किसी को पता नहीं। तुम्‍हारा आधार खो सकता है। तुम एक अनंत खाई में गिर सकते हो। इसलिए तुम्‍हें भय पकड़ता है। और तुम आधार खोजने लगते हो। चाहे वह झूठा ही आधार क्‍यों न हो, तुम्‍हें उससे राहत मिलती है। झूठा आधार भी मदद देता है। क्‍योंकि मन को कोई अंतर नहीं पड़ता कि आधार झूठा है या सच्‍चा है, कोई आधार होना चाहिए।

एक बार एक व्‍यक्‍ति मेरे पास आया। वह ऐसे घर में रहना था जहां उसे लगता था कि भूत-प्रेत है, और वह बहुत चिंतित था। चिंता के कारण उसका भ्रम बढ़ने लगा। चिंता से वह बीमार पड़ गया, कमजोर हो गया। उसकी पत्‍नी ने कहा, यदि तुम इस घर से जरा रुके तो मैं तो रहीं हूं। उसके बच्‍चों को एक संबंधी के घर भेजना पडा।

वह आदमी मेरे पास आया और बोला, अब तो बहुत मुश्‍किल हो गयी है। मैं उन्‍हें साफ-साफ देखता हूं। रात वे चलते है, पूरा घर भूतों से भरा हुआ है। आप मेरी मदद करें।

तो मैंने उसे अपना एक चित्र दिया और कहा, इसे ले जाओ। अब उन भूतों से मैं निपट लुंगा। तुम बस आराम करो। और सो जाओ। तुम्हें चिंता करने की जरूरत नहीं है। उनसे मैं निपट लुंगा। उन्‍हें मैं देख लूंगा। अब यह मेरा काम है। और तुम बीच में मत आना। अब तुम्‍हें चिंता नहीं करनी है।

वह अगले ही दिन आया और बोला, ‘बड़ी राहत मिली मैं चेन से सोया। आपने तो चमत्‍कार कर दिया।’ और मैंने कुछ भी नहीं किया था। बस एक आधार दिया। आधार से मन भर जाता है। वह खाली न रहा; वहां कोई उसके साथ था।

सामान्‍य जीवन में तुम कई झूठे सहारों को पकड़े रहते हो, पर वे मदद करते है। और जब तक तुम स्‍वयं शक्‍तिशाली न हो जाओ, तुम्‍हें उनकी जरूरत रहेगी। इसीलिए में कहता हूं कि यह परम विधि है—कोई आधार नहीं।

बुद्ध मृत्‍युशय्या पर थे और आनंद ने उनसे पूछा, ‘आप हमें छोड़कर जा रहे है, अब हम क्‍या करेंगें? हम कैसे उपलब्‍ध होंगे? जब आप ही चले जाएंगे तो हम जन्‍मों-जन्‍मों के अंधकार में भटकते रहेंगे, हमारा मार्गदर्शन करने के लिए कोई भी नहीं रहेगा, प्रकाश तो विदा हो रहा है।’

तो बुद्ध ने कहा,तुम्‍हारे लिए यह अच्‍छा रहेगा। जब मैं नहीं रहूंगा तो तुम अपना प्रकाश स्‍वयं बनोंगे। अकेले चलो, कोई सहारा मत खोजों, क्‍योंकि सहारा ही अंतिम बाधा है।

और ऐसा ही हुआ। आनंद संबुद्ध नहीं हुआ था। चालीस वर्ष से वह बुद्ध के साथ था, वह निकटतम शिष्‍य था, बुद्ध की छाया की भांति था, उनके साथ चलता था। उनके साथ रहता था। उनका बुद्ध के साथ सबसे लंबा संबंध था। चालीस वर्ष तक बुद्ध की करूणा उस पर बरसती रही थी। लेकिन कुछ भी नहीं हुआ। आनंद सदा की भांति आज्ञानी ही रहा। और जिस दिन बुद्ध ने शरीर छोड़ा उसके दूसरे ही दिन आनंद संबुद्ध हो गया—दूसरे ही दिन।

वह आधार ही बाधा था। जब बुद्ध ने रहे तो आनंद कोई आधार न खोज सका। यह कठिन है। यदि तुम किसी बुद्ध के साथ रहो वह बुद्ध चला जाए, तो कोई भी तुम्‍हें सहारा नहीं दे सकता। अब कोई भी ऐसा न रहेगा जिसे तुम पकड़ सकोगे। जिसने किसी बुद्ध को पकड़ लिया वह संसार में किसी और को पकड़ पायेगा। यह पूरा संसार खाली होगा। एक बार तुमने किसी बुद्ध के प्रेम और करूणा को जान लिया हो तो कोई प्रेम, कोई करूणा उसकी तुलना नहीं कर सकती। एक बार तुमने उसका स्‍वाद ले लिया तो और कुछ भी स्‍वाद लेने जैसा न रहा।

तो चालीस वर्ष में पहली बार आनंद अकेला हुआ। किसी भी सहारे को खोजने का कोई उपाय नहीं था। उसने परम सहारे को जाना था। अब छोटे-छोटे सहारे किसी काम के नहीं, दूसरे ही दिन वह संबुद्ध हो गया। वह निश्‍चित ही आधारहीन, शाश्‍वत निश्‍चल अंतर-आकाश में प्रवेश कर गया होगा।

तो स्‍मरण रखो कोई सहारा खोजने का प्रयास मत करो। आधारहीन ही जानो। यदि इस विधि को कहने का प्रयास कर रहे हो तो आधारहीन हो जाओ। यही कृष्‍ण मूर्ति सिखा रहा है। ‘आधारहीन हो जाओ, किसी गुरु को मत पकड़ो, किसी शस्‍त्र को मत पकड़ो। किसी भी चीज को मत पकड़ो।’

सब गुरु यही करते रहे है। हर गुरू का सारा प्रयास ही यह होता हे। कि पहले वह तुम्‍हें अपनी और आकर्षित करे,ताकि तुम उससे जुड़ने लगो। और जब तुम उससे जुड़ने लगते हो, जब तुम उसके निकट और घनिष्ठ होने लगते हो, तब वह जानता है कि पकड़ छुड़ानी होगा। और अब तुम किसी और को नहीं पकड़ सकते—यह बात ही खतम हो गई। तुम किसी और के पास नहीं जा सकते—यह बात असंभव हो गई। तब वह पकड़ को काट डालता है। और अचानक तुम आधारहीन हो जाते हो। शुरू-शुरू में तो बड़ा दुःख होगा। तुम रोओगे और चिल्‍लाओगे और चीखोगे। और तुम्हें लगेगा कि सब कुछ खो गया। तुम दुःख की गहनत्म गहराइयों में गिर जाओगे। लेकिन वहां से व्‍यक्‍ति उठता है, अकेला और आधारहीन।

‘आधारहीन, शाश्‍वत, निश्‍चल आकाश में प्रविष्‍ट होओ।’

उस आकाश को न कोई आदि है न कोई अंत। और वह आकाश पूर्णत: शांत है, वहां कुछ भी नहीं है—कोई आवाज भी नहीं। कोई आवाज भी नहीं। कोई बुलबुला तक नहीं। सब कुछ निश्‍चल है।

वह बिंदु तुम्‍हारे ही भीतर है। किसी भी क्षण तुम उससे प्रवेश कर सकते हो। यदि तुममें आधारहीन होने का साहस है तो इसी क्षण तुम उसमें प्रवेश कर सकते हो। द्वार खुला है। निमंत्रण सबके लिए है। लेकिन साहस चाहिए—अकेले होने का, रिक्‍त होने का, मिट जाने का और मरने का। और यदि तुम अपने भीतर आकाश में मिट जाओ तो तुम ऐसे जीवन को पा लोगे जो कभी नहीं मरता, तुम अमृत को उपलब्‍ध हो जाओगे।

आज इतना ही।

इति शुभमस्तु: ओशो

साभार:-(oshosatsang.org)

विज्ञान भैरव तंत्र विधि–111 (ओशो)

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तीसरी विधि:

‘हे प्रिये, ज्ञान और अज्ञान, अस्‍तित्‍व और अनस्‍तित्‍व पर ध्‍यान दो। फिर दोनों को छोड़ दो ताकि तुम हो सको।’

ज्ञान और अज्ञान, अस्‍तित्‍व और अनस्‍तित्‍व पर ध्‍यान दो।

जीवन के विधायक पहलू पर ध्‍यान करो और ध्‍यान को नकारात्‍मक पहलू पर ले जाओ, फिर दोनों को छोड़ दो क्‍योंकि तुम दोनों ही नहीं हो।

फिर दोनों को छोड़ सको ताकि तुम हो सको।

इसे इस तरह देखो: जन्‍म पर ध्‍यान दो। एक बच्‍चा पैदा हुआ, तुम पैदा हुए। फिर तुम बढ़ते हो, जवान होते हो—इसे पूरे विकास पर ध्‍यान दो। फिर तुम बूढ़े होते हो। और मर जाते हो। बिलकुल आरंभ से, उस क्षण की कल्‍पना करो जब तुम्‍हारे पिता और माता ने तुम्‍हें धारण किया था। और मां के गर्भ में तुमने प्रवेश किया था। बिलकुल पहला कोष्ठ। वहां से अंत तक देखो, जहां तुम्‍हारा शरीर चिता पर जल रहा है। और तुम्‍हारे संबंधी तुम्‍हारे चारों और खड़े है। फिर दोनों को छोड़ दो, वह जो पैदा हुआ और वह जो मरा। वह जो पैदा हुआ और वह जो मरा। फिर दोनों को छोड़ दो और भीतर देखो। वहां तुम हो, जो न कभी पैदा हुआ और न कभी मरा।

‘ज्ञान और अज्ञान, अस्‍तित्‍व और अनस्‍तित्‍व….फिर दोनों को छोड़ दो, ताकि तुम हो सको।’

यह तुम किसी भी विधायक-नकारात्‍मक घटना से कर सके हो। तुम यहां बैठे हो, मैं तुम्‍हारी और देखता हूं। मेरा तुमसे संबंध होता है। जब मैं अपनी आंखें बंद कर लेता हूं तो तुम नहीं रहते और मेरा तुमसे कोई संबंध नहीं हो पाता। फिर संबंध और असंबंध दोनों को छोड़ दो। तुम रिक्‍त हो जाओगे। क्‍योंकि जब तुम ज्ञान और अज्ञान दोनों का त्‍याग कर देते हो तो तुम रिक्‍त हो जाते हो।

दो तरह के लोग है। कुछ ज्ञान से भरे है और कुछ अज्ञान से भरे है। ऐसे लोग है जो कहते है कि हम जाने है; उनका अहंकार उनके ज्ञान से बंधा हुआ है। और ऐसे लोग है जो कहते है, ‘हम अज्ञानी है।’वे अपने अज्ञान से भरे हुए है। वे कहते है कि ‘हम अज्ञानी है’, हम कुछ नहीं जानते। एक ज्ञान से बंधा हुआ है और दूसरा अज्ञान से, लेकिन दोनों के पास कुछ है, दोनों कुछ ढो रहे है।

ज्ञान और अज्ञान दोनों को हटा दो, ताकि तुम दोनो से अलग हो सको। न अज्ञानी, न ज्ञानी। विधायक और नकारात्‍मक दोनों को हटा दो। फिर तुम कौन हो? अचानक वह ‘कौन’ अचानक वह कौन तुम्‍हारे सामने प्रकट हो जायेगा। तुम उस अद्वैत के प्रति बोधपूर्ण हो जाओगे जो दोनों के पार है। विधायक और नकारात्‍मक दोनों को छोड़कर तुम रिक्‍त हो जाओगे। तुम कुछ भी नहीं रहोगे, न ज्ञानी और न अज्ञानी। घृणा और प्रेम दोनों को छोड़ दो। मित्रता और शत्रुता दोनों को छोड़ दो। और जब दोनों ध्रुव छूट जाते है, तुम रिक्‍त हो जाते हो।

और यह मन की एक चाल है। वह छोड़ तो सकता है। लेकिन दोनों को एक साथ नहीं। एक चीज को छोड़ सकता है। तुम अज्ञान को छोड़ सकते हो। फिर तुम ज्ञान से चिपक सकते हो हो। तुम पीड़ा को छोड़ सकते हो। फिर तम सुख को पकड़ लोगे। तुम शत्रुओं को छोड़ दोगे तो मित्र को पकड़ लोगे। और ऐसे लोग भी है जो बिलकुल उलटा करेंगे। वे मित्रों को छोड़कर शत्रुओं को पकड़ लेंगे। प्रेम को छोड़ कर घृणा को पकड़ लेंगे। धन को छोड़कर निर्धनता को पकड़ लेंगे और ज्ञान तथा शास्‍त्रों को छोड़कर अज्ञान से चिपक जाएंगे। ये लोग बड़े त्‍यागी कहलाते है। तुम जो कुछ भी पकड़े हो वे उसे छोड़कर विपरीत को पकड़ लेते है। लेकिन पकड़ते वे भी है।

पकड़ ही समस्‍या है। क्‍योंकि यदि तुम कुछ भी पकड़े हो तो तुम रिक्‍त नहीं हो सकते। पकड़ो मत। इस विधि काय हीं संदेश है। किसी भी विधायक या नकारात्‍मक चीज को मत पकड़ो क्‍योंकि न पकड़ने से ही तुम स्‍वयं को खोज पाओगे। तुम तो हो ही, पर पकड़ के कारण छिपे हुए हो। पकड़ छोड़ते ही तुम उघड़ जाओगे। प्रकट हो जाओगे।

ओशो

विज्ञान भैरव तंत्र, भाग—पांच,

प्रवचन-79

साभार:-(oshosatsang.org)

विज्ञान भैरव तंत्र विधि–110 (ओशो)

ब्रह्मांड

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दूसरी विधि:

‘हे गरिमामयी, लीला करो। यह ब्रह्मांड एक रिक्‍त खोल है जिसमें तुम्‍हारा मन अनंत रूप से कौतुक करता है।’

यह दूसरी विधि लीला के आयाम पर आधारित है। इसे समझे। यदि तुम निष्‍क्रिय हो तब तो ठीक है कि तुम गहन रिक्‍तता में, आंतरिक गहराइयों में उतर जाओ। लेकिन तुम सारा दिन रिक्‍त नहीं हो सकते और सारा दिन क्रिया शून्‍य नहीं हो सकते। तुम्‍हें कुछ तो करना ही पड़ेगा। सक्रिय होना एक मूल आवश्‍यकता है। अन्‍यथा तुम जीवित नहीं रह सकते। जीवन का अर्थ ही है सक्रियता। तो तुम कुछ घंटों के लिए तो निष्‍क्रिय हो सकते हो। लेकिन चौबीस घंटे में बाकी समय तुम्‍हें सक्रिय रहना पड़ेगा।

और ध्‍यान तुम्‍हारे जीवन की शैली होनी चाहिए। उसका एक हिस्‍सा नहीं। अन्‍यथा पाकर भी तुम उसे खो दोगे। यदि एक घंटे के लिए तुम निष्‍क्रिय हो तो तेईस घंटे के लिए तुम सक्रिय होओगे। सक्रिय शक्‍तियां अधिक होंगी और निष्‍क्रिय में जो तुम भी पाओगे वे उसे नष्‍ट कर देंगे। सक्रिय शक्‍तियां उसे नष्‍ट कर देंगी। और अगल दिन तुम फिर वही करोगे: तेईस घंटे तुम कर्ता को इकट्ठा करते रहोगे और एक घंटे के लिए तुम्‍हें उसे छोड़ना पड़ेगा। यह कठिन होगा।

तो कार्य और कृत्‍य के प्रति तुम्‍हें दृष्‍टिकोण बदलना होगा। इसीलिए यह दूसरी विधि है। कार्य को खेल समझना चाहिए, कार्य नहीं। कार्य को लीला की तरह, एक खेल की तरह लेना चाहिए। इसके प्रति तुम्‍हें गंभीर नहीं होना चाहिए। बस ऐसे ही जैसे बच्‍चे खेलते है। यह निष्‍प्रयोजन है। कुछ भी पाना नहीं है। बस कृत्‍य का ही आनंद लेना है।

यदि कभी-कभी तुम खेलो तो अंतर तुम्‍हें स्‍पष्‍ट हो सकता है। जब तुम कार्य करते हो तो अलग बात होती है। तुम गंभीर होते हो। बोझ से दबे होते हो। उत्‍तरदायी होते हो। चिंतित होते हो। परेशान होते हो। क्‍योंकि परिणाम तुम्‍हारा लक्ष्‍य होता है। स्‍वयं कार्य मात्र ही आनंद नहीं देता, असली बात भविष्‍य में, परिणाम में होती है। खेल में कोई परिणाम नहीं होता। खेलना ही आनंदपूर्ण होता है। और तुम चिंतित नहीं होते। खेल कोई गंभीर बात नहीं है। यदि तुम गंभीर दिखाई भी पड़ते हो तो बस दिखावा होता है। खेल में तुम प्रक्रिया का ही आनंद लेते हो।

कार्य में प्रक्रिया का आनंद नहीं लिया जाता। लक्ष्‍य, परिणाम महत्‍वपूर्ण होता है। प्रक्रिया को किसी न किसी तरह झेलना पड़ता है। कार्य करना पड़ता है। क्‍योंकि परिणाम पाना होता है। यदि परिणाम को तुम इसके बिना भी पा सकते तो तुम क्रिया को एक और सरका देते और परिणाम पर कूद पड़ते।

लेकिन खेल में तुम ऐसा नहीं करोगे, यदि परिणाम को तुम बिना खेले पा सको तो परिणाम व्‍यर्थ हो जाएगा। उसका महत्‍व ही प्रक्रिया के कारण है। उदाहरण के लिए, दो फुटबाल की टीमें खेल के मैदान में है, बस एक सिक्‍का उछाल कर वे तय कर सकते है कि कौन जीतेगा और कौन हारेगा। इतने श्रम इतनी लंबी प्रक्रिया से क्‍यों गुजरना। इसे बड़ी सरलता से एक सिक्‍का उछाल कर तय किया जा सकता है। परिणाम सामने आ जाएगा। एक टीम जीत जाएगी और दूसरी टीम हार जाएगी। उसके लिए मेहनत क्‍या करनी।

लेकिन तब कोई अर्थ नहीं रह जाएगा। कोई मतलब नहीं रह जाएगा। परिणाम अर्थपूर्ण नहीं है। प्रक्रिया का ही अर्थ है। यदि न कोई जीते और न कोई हारे तब भी खेल का मूल्‍य है। उस कृत्‍य का ही आनंद है।

लीला के इस आयाम को तुम्‍हारे पूरे जीवन मे जोड़ना है। तुम जो भी कर रहे हो, उस कृत्‍य में इतने समग्र हो जाओ। कि परिणाम असंगत हो जाए। शायद वह आ भी जाए, उसे आना ही होगा। लेकिन वह तुम्‍हारे मन में न हो। तुम बस खेल रहे हो और आनंद ले रहे हो।

कृष्‍ण का यही अर्थ है जब वे अर्जुन को कहते है कि भविष्‍य परमात्‍मा के हाथ में छोड़ दे। तेरे कर्मों का फल परमात्‍मा के हाथ में है, तू तो बस कर्म कर। यही सहज कृत्‍य लीला बन जाता है। यही समझने में अर्जुन को कठिनाई होती है, क्‍योंकि वह सकता है कि यदि यह सब लीला ही है। तो हत्‍या क्‍यों करें? युद्ध क्‍यों करें? यह समझ सकता है कि कार्य क्‍या है, पर वह यह नहीं समझ सकता कि लीला क्‍या है। और कृष्‍ण का पूरा जीवन ही एक लीला है।

तुम इतना गैर-गंभीर व्‍यक्‍ति कहीं नहीं ढूंढ सकते। उनका पूरा जीवन ही एक लीला है, एक खेल है, एक अभिनय है। वे सब चीजों का आनंद ले रहे है। लेकिन उनके प्रति गंभीर नहीं है। वे सघनता से सब चीजों का आनंद ले रहे है। पर परिणाम के विषय में बिलकुल भी चिंतित भी चिंतित नहीं है। जो होगा वह असंगत है।

अर्जुन के लिए कृष्‍ण को समझना कठिन है। क्‍योंकि वह हिसाब लगाता है, वह परिणाम की भाषा में सोचता है। वह गीता के आरंभ में कहता है, ‘यह सब असार लगता है। दोनों और मेरे मित्र तथा संबंधी लड़ रहे है। कोई भी जीते, नुकसान ही होगा क्‍योंकि मेरा परिवार मेरे संबंधी, मेरे मित्र ही नष्‍ट होंगे। यदि मैं जीत भी जाऊं तो भी कोई अर्थ नहीं होगा। क्‍योंकि अपनी विजय मैं किसे दिखलाऊंगा? विजय का अर्थ ही तभी होता है, जब मित्र,संबंधी, परिजन उसका आनंद लें। लेकिन कोई भी न होगा,केवल लाशों के ऊपर विजय होगी। कौन उसकी प्रशंसा करेगा। कौन कहेगा कि अर्जुन, तुमने बड़ा काम किया है। तो चाहे मैं जीतूं चाहे मैं हारूं, सब असार लगता है। सारी बात ही बेकार है।’

वह पलायन करना चाहता है। वह बहुत गंभीर है। और जो भी हिसाब-किताब लगता है वह उतना ही गंभीर होगा। गीता की पृष्‍ठभूमि अद्भुत है: युद्ध सबसे गंभीर घटना है। तुम उसके प्रति खेलपूर्ण नहीं हो सकते। क्‍योंकि जीवन मरण का प्रश्न है। लाखों जानों का प्रश्न है। तुम खेलपूर्ण नहीं हो सकते। और कृष्‍ण आग्रह करते है कि वहां भी तुम्‍हें खेलपूर्ण होना है। तुम यह मत सोचो कि अंत में क्‍या होगा, बस अभी और यही जाओ। तुम बस योद्धा का अपना खेल पूरा करो। फलकी चिंता मत करो। क्‍योंकि परिणाम तो परमात्‍मा के हाथों में है। और इससे भी कोई फर्क नहीं पड़ता कि परिणाम परमात्‍मा के हाथों में है या नहीं। असली बात यह है कि परिणाम तुम्‍हारे हाथ में नहीं है। असली बात यह है कि परिणाम तुम्‍हारे हाथ में नहीं है। तुम्‍हें उसे नहीं ढोना है। यदि तुम उसे ढोते हो तो तुम्‍हारा जीवन ध्‍यानपूर्ण नहीं हो सकता।

यह दूसरी विधि कहती है: ‘हे गरिमामयी लीला करो।’

अपने पूरे जीवन को लीला बन जाने दो।

‘यह ब्रह्मांड एक रिक्‍त खोल है जिसमें तुम्‍हारा मन अनंत रूप से कौतुक करता है।‘

तुम्‍हारा मन अनवरत खेलता चला जाता है। पूरी प्रक्रिया एक खाली कमरे में चलते हुए स्‍वप्‍न जैसी है। ध्‍यान में अपने मन को कौतुक करते हुए देखना होता है। बिलकुल ऐसे ही जैसे बच्‍चे खेलते है। और ऊर्जा के अतिरेक से कूदते-फांदते है। इतना ही पर्याप्‍त है। विचार उछल रहे है। कौतुक कर रहे है। बस एक लीला है। उसके प्रति गंभीर मत होओ। यदि कोई बुरा विचार भी आता है तो ग्‍लानि से मत भरो। या कोई शुभ विचार उठता है—कि तुम मानवता की सेवा करना चाहते हो—तो इसके कारण बहुत अधिक अहंकार से मत भर जाओ, ऐसा मत सोचो कि तुम बहुत महान हो गए हो। केवल उछलता हुआ मन है। कभी नीचे जाता है, कभी ऊपर आता है। यह तो बस ऊर्जा का बहाता हुआ अतिरेक है जो भिन्‍न-भिन्‍न रूप और आकार ले रही है। मन तो उमड़ कर बहता हुआ एक झरना मात्र है, और कुछ भी नहीं।

खेलपूर्ण होओ। शिव कहते है: ‘हे गरिमामयी लीला करो।’

खेलपूर्ण होने का अर्थ होता है कि वह कृत्‍य का आनंद ले रहा है। कृत्‍य ही स्‍वयं में पर्याप्‍त है। पीछे किसी लाभ की आकांक्षा नहीं है। वह कोई हिसाब नहीं लगा रहा है। जरा एक दुकानदार की और देखो। वह जो भी कर रहा है उसमें लाभ हानि का हिसाब लगा रहा हे। कि इससे मिलेगा क्‍या। एक ग्राहक आता है। ग्राहक कोई व्‍यक्‍ति नहीं बस एक साधन है। उससे क्‍या कमाया जा सकता है। कैसे उसका शोषण किया जा सकता है। गहरे में वह हिसाब लगा रहा कि क्‍या करना है। क्‍या नहीं करना है। बस शोषण के लिए वह हर चीज का हिसाब लगा रहा है। उसे इस आदमी से कुछ लेना-देना नहीं है। बस सौदे से मतलब है। किसी और चीज से नहीं। उसे बस भविष्‍य से, लाभ से मतलब है।

पूर्व में देखो: गांवों में अभी भी दुकानदार बस लाभ ही नहीं कमाते और ग्राहक बस खरीदने ही नहीं आते। वे सौदे का आनंद लेते है। मुझे अपने दादा की याद है। वह कपड़ों के दुकानदार थे। और मैं तथा मेरे परिवार के लोग हैरान थे। क्‍योंकि इसमें उन्‍हें बहुत मजा आता था। घंटो-घंटो ग्राहकों के साथ वह खेल चलता था। यदि कोई चीज दस रूपये की होती तो वह उसे पचास रूपए मांगते। और वह जानते थे कि यह झूठ है। और उनके ग्राहक भी जानते थे कि वह चीज दस रूपये के आस-पास होनी चाहिए। और वे दो रूपये से शुरू करते। फिर घंटो तक लम्‍बी बहस होती। मेरे पिता और चाचा गुस्‍सा होते कि ये क्‍या हो रहा है। आप सीधे-सीधे कीमत क्‍यों नहीं बता देते। लेकिन उनके की अपने ग्राहक थे। जब वे लोग आते तो पूछते की दादा कहां है। क्‍योंकि उनके साथ तो खेल हो जाता था। चाहे हमे एक दो रूपये कम ज्‍यादा देना पड़े,इसमे कोई अंतर नहीं पड़ता।

उन्‍हें इसमे आनंद आता, वह कृत्‍य ही अपने आप में आनंद था। दो लोग बात कर रहे है, दोनों खेल रहे है। और दोनों जानते है कि यह एक खेल है। क्‍योंकि स्‍वभावत: एक निश्‍चित मूल्‍य ही संभव था।

पश्‍चिम में अब मूल्‍यों को निश्‍चित कर लिया गया है। क्‍योंकि लोग अधिक हिसाबी और लाभ उन्‍मुक्‍त हो गए है। समय क्‍यों व्‍यर्थ करना। जब बात को मिनटों में निपटाया जा सकता है। तो कोई जरूरत नहीं है। तुम सीधे-सीधे निश्‍चित मूल्‍य लिख सकते हो। घंटों तक क्यों जद्दोजहद करना? लेकिन तब सारा खेल खो जाता है। और एक दिनचर्या रह जाती है। इसे तो मशीनें भी कर सकती है। दुकानदार की जरूरत ही नहीं है। न ग्राहक की जरूरत है।

मैने एक मनोविश्‍लेषक के संबंध में सुना है कि वह इतना व्‍यस्‍त था और उसके पास इतने मरीज आते थे कि हर किसी से व्‍यक्‍तिगत संपर्क रख पाना कठिन था। तो वह अपने टेप रिकार्डर से मरीजों के लिए सब संदेश भर देता था जो स्‍वयं उनसे कहना चाहता था।

एक बार ऐसा हुआ कि एक बहुत अमीर मरीज का सलाह के लिए मिलने का समय था। मनोविश्‍लेषक एक होटल में भीतर जा रहा था। अचानक उसने उस मरीज को वहां बैठे देखा। तो उसने पूछा, तुम यहां क्‍या कर रहे हो। इस समय तो तुम्‍हें मेरे पास आना था। मरीज ने कहा कि: ‘मैं भी इतना व्‍यस्‍त हूं कि मैंने अपनी बातें टेप रिकार्डर में भर दी है। दोनों टेप रिकार्डर आपस में बातें कर रहे है। जो आपको मुझसे कहना है वह मेरे टेप रिकार्डर में भर गया है। और जो मुझे आपको कहना है वह मेरे टेप रिकार्डर से आपके टेप रिकार्डर में रिकार्ड हो गया है। इससे समय भी बच गया और हम दोनों खाली है।’

यदि तुम हिसाबी हो जाओ तो व्‍यक्‍ति समाप्‍त हो जाता है। और मशीन बन जाता है। भारत के गांवों में अभी भी मोल-भाव होता है। यह एक खेल है। और रस लेने जैसा है। तुम खेल रहा हो। दो प्रतिभाओं के बीच एक खेल चलता है। और दोनों व्‍यक्‍ति गहरे संपर्क में आते है। लेकिन फिर समय नहीं बचता। खेलने से तो कभी भी समय की बचत नहीं हो सकती। और खेल में तुम समय की चिंता भी नहीं करते। तुम चिंता मुक्‍त होते हो। और जो भी होता है उसी समय तुम उसका रस लेते हो। खेलपूर्ण होना ध्‍यान प्रक्रियाओं के गहनत्म आधारों में से एक है। लेकिन हमारा मन दुकानदार है। हम उसके लिए प्रशिक्षित किया गया है। तो जब हम ध्‍यान भी करते है तो परिणाम उन्‍मुख होते है। और चाहे जो भी हो तुम असंतुष्‍ट ही होते हो।

मेरे पास लोग आते है और कहते है, ‘हां ध्‍यान तो गहरा हो रहा है। मैं अधिक आनंदित हो रहा हूं, अधिक मौन और शांत अनुभव कर रहा हूं। लेकिन और कुछ भी नहीं हो रहो।’

और क्‍या नहीं हो रहा? मैं जानता हूं ऐसे लोग एक दिन आएँगे और पूछेंगे, ‘हां मुझे निर्वाण का अनुभव तो हाँ रहा है, पर और कुछ नहीं हो रहा है। वैसे तो मैं आनंदित हूं, पर और कुछ नहीं हो रहा है।’ और क्‍या चाहिए। वह कोई लाभ ढूंढ रहा है। और जब तक कोई ठोस लाभ उसके हाथों में नहीं आ जाता। जिसे वह बैंक में जमा कर सके। वह संतुष्‍ट नहीं हो सकता। मौन और आनंद इतने अदृष्‍य है। कि तुम उन पर मालकियत नहीं कर सकते हो। तुम उन्‍हें किसी को दिखा भी नहीं सकते हो।

रोज मेरे पास लोग आते है और कहते है कि वह उदास है। वे कसी ऐसी चीज की आशा कर रहे है जिसकी आशा दुकानदारी में भी नहीं होनी चाहिए। और ध्‍यान में वे उसकी आशा कर रहे है। दुकानदार, हिसाबी-किताबी मन ध्‍यान के भी बीच में आ जाता है—इससे क्‍या लाभ हो सकता है।

दुकानदार खेलपूर्ण नहीं होता। और यदि तुम खेलपूर्ण नहीं हो तो तुम ध्‍यान में नहीं उतर सकते। अधिक से अधिक खेलपूर्ण हो जाओ। खेल में समय व्‍यतीत करो। बच्‍चों के साथ खेलना ठीक रहेगा। यदि कोई और न भी हो तो तुम कमरे में अकेले उछल-कूद कर सकते हो। नाच सकते हो। और खेल सकते हो, आनंद ले सकते हो।

यह प्रयोग करके देखो। दुकानदारी में से जितना समय निकाल सको। निकाल कर जरा खेल में लगाओ। जो भी चाहो करो। चित्र बना सकते हो। सितार बजा सकते हो। तुम्‍हें जो भी अच्‍छा लगे। लेकिन खेलपूर्ण होओ। किसी लाभ की आकांक्षा मत करो। भविष्‍य की और मत देखो। वर्तमान की और देखो। और तब तुम भीतर भी खेलपूर्ण हो सकते हो। तब तुम अपने विचारों पर उछल सकते हो। उनके साथ खेल सकते हो। उन्‍हें इधर-उधर फेंक सकते हो। उनके साथ नाच सकते हो। लेकिन उनके प्रति गंभीर नहीं होओगे।

दो प्रकार के लोग है। एक वे जो मन के संबंध में पूर्णतया अचेत है। उनके मन में जो भी होता है उसके प्रति वे मूर्छित होते है। उन्‍हें नहीं पता कि कहां उनका मन उन्‍हें भटकाए जा रहा है। यदि मन की किसी भी चाल के प्रति तुम सचेत हो सको तो तुम हैरान होओगे। कि मन मैं क्‍या हो रहा है।

मन एसोसिएशन में चलता है। राह पर एक कुत्‍ता भौंकता है। भौंकना तुम्‍हारे मस्‍तिष्‍क तक पहुंचता है। और वह कार्य करना शुरू कर देता है। कुत्‍ते के इस भौंकने को लेकर तुम संसार के अंत तक जा सकते हो। हो सकता है कि तुम्‍हें किसी मित्र की याद आ जाए। जिसके पास एक कुत्‍ता है। अब यह कुत्‍ता तो तुम भूल गए पर वह मित्र तुम्‍हारे मन में आ गया। और उसकी एक पत्‍नी है जो बहुत सुंदर है—अब तुम्‍हारा मन चलने लगा। अब तुम संसार के अंत तक जा सकते हो। और तुम्‍हें पता नहीं चलता कि एक कुत्‍ता तुम पर चाल चल गया। बस भौंका ओर तुम्‍हें रास्‍ते पर ले आया। तुम्‍हारे मन ने दौड़ना शुरू कर दिया।

तुम्‍हें बड़ी हैरानी होगी यह जानकर कि वैज्ञानिक इस बारे में क्‍या कहते है। वे कहते है कि यह मार्ग तुम्‍हारे मन में सुनिश्‍चित हो जाता है। यदि यही कुत्‍ता इसी परिस्थिति में दोबारा भौंके तो तुम इसी पर चल पड़ोगे: वहीं मित्र,वहीं कुत्‍ता, वहीं सुंदर पत्‍नी। दोबारा उसी रास्‍ते पर तुम घूम जाओगे।

अब मनुष्‍य के मस्‍तिष्‍क में इलेक्‍ट्रोड डालकर उन्‍होने कई प्रयोग किए है। वे मस्‍तिष्‍क में एक विशेष स्‍थान को छूते है। और एक विशेष स्‍मृति उभर आती है। अचानक तुम पाते हो कि तुम पाँच वर्ष के हो, एक बग़ीचे में खेल रहे हो। तितलियों के पीछे दौड़ रहे हो। फिर पूरी की पूरी शृंखला चली आती है। तुम्‍हें अच्‍छा लग रहा है। हवा, बगीचा,सुगंध, सब कुछ जीवंत हो उठती है। वह मात्र स्‍मृति ही नहीं होती, तुम उसे दोबारा जीते हो। फिर इलेक्‍ट्रोड वापस निकाल लिए जाता है। और स्‍मृति रूक जाती हे। यदि इलेक्‍ट्रोड पुन: उसी स्‍थान को छू ले तो पुन: वही स्‍मृति शुरू हो जाती है। तुम पुन: पाँच साल के हो जाते हो। उसी बग़ीचे में, उसी तितली के पीछे दौड़ने लगते हो। वहीं सुगंध और वहीं घटना चक्र शुरू हो जाता है। जब इलेक्‍ट्रोड निकाल लिया जाता है। लेकिन इलेक्ट्रोड को वापस उसी जगह रख दो स्‍मृति वापस आ जाती है।

यह ऐसे ही है जैसे यांत्रिक रूप से कुछ स्‍मरण कर रहे हो। और पूरा क्रम एक निश्‍चित जगह से प्रारंभ होता है और निश्‍चित परिणति पर समाप्‍त होता है। फिर पुन: प्रारंभ से शुरू होता है। ऐसे ही जैसे तुम टेप रिकार्डर में कुछ भर देते हो। तुम्‍हारे मस्‍तिष्‍क में लाखों स्‍मृतियां है। लाखों कोशिकाएं स्‍मृतियां इकट्ठी कर रही है। और यह सब यांत्रिक है।

मनुष्‍य के मस्‍तिष्‍क के साथ किए गए ये प्रयोग अद्भुत है। और इनसे बहुत कुछ पता चलता है। स्‍मृतियां बार-बार दोहरायी जा सकती है। एक प्रयोगकर्ता ने एक स्‍मृति को तीन सौ बार दोहराया और स्‍मृति वही की वही रही—वह संग्रहीत थी। जिस व्‍यक्‍ति पर यह प्रयोग किया गया उसे तो बड़ा विचित्र लगा क्‍योंकि वह उस प्रक्रिया का मालिक नहीं था। वह कुछ भी नहीं कर सकता था। जब इलेक्ट्रोड उस स्‍थान को छूता तो स्‍मृति शुरू हो जाती और उसे देखना पड़ता।

तीन सौ बार दोहराने पर वह साक्षी बन गया। स्‍मृति को तो वह देखता रहा, पर इस बात के प्रति वह जाग गया कि वह और उसकी स्‍मृति अलग-अलग है। यह प्रयोग ध्‍यानियों के लिए बहुत सहयोगी हो सकता है। क्‍योंकि जब तुम्‍हें पता चलता है कि तुम्‍हारा मन और कुछ नहीं बस तुम्‍हारे चारों और एक यांत्रिक संग्रह है। तो तुम उससे अलग हो जाते हो।

इस मन को बदला जा सकता है। अब तो वैज्ञानिक कहते है कि देर अबेर हम उन केंद्रों को काट डालेंगे जो तुम्‍हें विषाद ओर संताप देते है, क्‍योंकि बार-बार एक ही स्‍थान छुआ जाता है। और पूरी की पूरी प्रक्रिया को दोबारा जीना पड़ता है।

मैंने कई शिष्‍यों के साथ प्रयोग किए है। वही बात दोहराओं और वे बार-बार उसी दुष्‍चक्र में गिरते जाते हे। जब तक कि वे इस बात के साक्षी न हो जाएं कि यह एक यांत्रिक प्रक्रिया है। तुम्‍हें इस बात का पता है कि यदि तुम अपनी पत्‍नी से हर सप्‍ताह वहीं-वहीं बात कहते हो तो वह क्‍या प्रतिक्रिया करेगी। सात दिन में जब वह भूल जाए तो फिर वही बात कहो: वहीं प्रतिक्रिया होगी।

इसे रिकार्ड कर लो, प्रतिक्रिया हर बार वही होगी। तुम भी जानते हो, तुम्‍हारी पत्‍नी भी जानती है। एक ढांचा निश्‍चित है। और वही चलता रहता है। एक कुत्‍ता भी भौंक कर तुम्‍हारी प्रक्रिया की शुरूआत कर सकता है। कहीं कुछ छू जाता है। इलेक्‍ट्रोड प्रवेश कर जाता है। तुमने एक यात्रा शुरू कर दी।

यदि तुम जीवन में खेलपूर्ण हो तो भीतर तुम कन के साथ भी खेलपूर्ण हो सकते हो। फिर ऐसा समझो जैसे टेलीविजन के पर्दे पर तुम कुछ देख रहे हो। तुम उसमे सम्‍मिलित नहीं हो। बस एक द्रष्‍टा हो। एक दर्शक हो। तो देखो और उसका आनंद लो। न कहो अच्‍छा है, न कहो बुरा है, न निंदा करो, न प्रशंसा करो। क्‍योंकि वे गंभीर बातें है।

यदि तुम्‍हारे पर्दे पर कोई नग्‍न स्‍त्री आ जाती है तो यह मत कहो कि यह गलत है, कि कोई शैतान तुम पर चाल चल रहा है। कोई शैतान तुम पर चाल नहीं चल रहा,इसे देखो जैसे फिल्‍म के पर्दे पर कुछ देख रहे हो।

और इसके प्रति खेल का भाव रखो। उस स्‍त्री से कहो कि प्रतीक्षा करो। उसे बाहर धकेलने की कोशिश मत करो। क्‍योंकि जितना तुम उसे बाहर धकेलोगे। उतना ही वह भीतर धुसेगी। अब महिलाएं तो हठी हाथी है। और उसका पीछा भी मत करो। यदि तुम उसके पीछे जाते हो तो भी तुम मुश्‍किल में पड़ोगे। न उसके पीछू जाओ। न उस से लड़ो,यही नियम है। बस देखो और खेलपूर्ण रहो। बस हेलो या नमस्‍कार कर लो और देखते रहो, और उसके बेचैन मत होओ। उस स्‍त्री को इंतजार करने दो।

जैसे वह आई थी वैसे ही अपने आप चली जाएगी। वह अपनी मर्जी से चलती है। उसका तुमसे कोई लेना-देना नहीं है। वह बस तुम्‍हारे स्‍मृतिपट पर है। किसी परिस्‍थिति वश वह चली आई बस एक चित्र की भांति। उसके प्रति खेलपूर्ण रहो।

यदि तुम अपने मन के साथ खेल सको तो वह शीध्र ही समाप्‍त हो जाएगा। क्‍योंकि मन केवल तभी हो सकता है। जब तुम गंभीर होओ। गंभीर बीच की कड़ी है। सेतु है।

‘हे गरिमामयी लीला करो। यह ब्रह्मांड एक रक्‍त खोल है। जिसमें तुम्‍हारा मन अनंत रूप से कौतुक करता है।’

ओशो

विज्ञान भैरव तंत्र, भाग—पांच,

प्रवचन-79

साभार:-(oshosatsang.org)

विज्ञान भैरव तंत्र विधि–109 (ओशो)

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पहली विधि:

अपने निष्‍क्रिय रूप को त्‍वचा की दीवारों का एक रिक्‍त कक्ष मानो—सर्वथा रिक्‍त।

अपने निष्‍क्रिय रूप को त्‍वचा की दीवारों का एक रिक्‍त कक्ष मानो—लेकिन भीतर सब कुछ रिक्‍त हो। यह सुंदरतम विधियों में से एक है। किसी भी ध्‍यानपूर्ण मुद्रा में, अकेले, शांत होकर बैठ जाओ। तुम्‍हारी रीढ़ की हड्डी सीधी रहे और पूरा शरीर विश्रांत, जैसे कि सारा शरीर रीढ़ की हड्डी पर टंगा हो। फिर अपनी आंखें बंद कर लो। कुछ क्षण के लिए विश्रांत, से विश्रांत अनुभव करते चले जाओ। लयवद्ध होने के लिए कुछ क्षण ऐसा करो। और फिर अचानक अनुभव करो कि तुम्‍हारा शरीर त्‍वचा की दीवारें मात्र है और भीतर कुछ भी नहीं है। घर खाली है, भीतर कोई नहीं है। एक बार तुम विचारों को गुजरते हुए देखोंगे, विचारों के मेघों को विचरते पाओगे। लेकिन ऐसा मत सोचो कि वे तुम्‍हारे है। तुम हो ही नहीं। बस ऐसा सोचो कि वे रिक्‍त आकाश में घूम हुए आधारहीन मेध है, वे तुम्‍हारे नहीं है। वे किसी के भी नहीं है। उनकी कोई जड़ नहीं है।

वास्‍तव में ऐसा ही है: विचार केवल आकाश में धूमते मेघों के समान है। न तो उनकी कोई जड़ें है, न आकाश से उनका कोई संबंध है। वे बस आकाश में इधर से उधर धूमते रहते है। वे आते है और चले जाते है। और आकाश अस्‍पर्शित, अप्रभावित बना रहता है। अनुभव करो कि तुम्‍हारा शरीर लय, पुराने सहयोग के कारण विचार आते रहेंगे। लेकिन इतना ही सोचो कि वे आकाश में धूमते हुए आधारहीन मेध है। वे तुम्‍हारे नहीं है, वे किसी के भी नहीं है। भीतर कोई भी नहीं है जिससे वे संबंधित हों, तुम तो रिक्‍त हो।

यह कठिन होगा, लेकिन केवल पुरानी आदतों के कारण कठिन होगा। तुम्‍हारा मन किसी विचार को पकड़कर उससे जुड़ना चाहते है। उसके साथ बहना, उसका आनंद लेना, उसमें रमना चाहेगा। थोड़ा रूको। कहो कि न तो यहां बहने के लिए कोई है, न लड़ने के लिए कोई है, इस विचार के साथ कुछ भी करने के लिए कोई नहीं है।

कुछ ही दिनों में, या कुछ हफ्तों में, विचार कम हो जाएंगे। वे कम-से कम होते जाएंगे। बादल छंटने लगेंगे, या यदि वे आंएके भी तो बीच-बीच में मेध-रहित आकाश के बड़े अंतराल होंगे जब कोई विचार न होगा। एक विचार गुजर जाएगा, फिर कुछ समय के लिए दूसरा विचार नहीं आएगा। फिर दूसरा विचार आयेगा और अंतराल होगा। उन अंतरालों में ही तुम पहली बार जानोगे कि रिक्‍तता क्‍या है। और उसकी एक झलक ही तुम्‍हें इतने गहन आनंद से भर जाएगी कि तुम कल्‍पना भी नहीं सकर सकते।

असल में, इसके बारे में एक भी कहना असंभव है, क्‍योंकि भाषा में जो भी कहा जाएगा वह तुम्‍हारी और इशारा करेगा और तुम हो ही नहीं। यदि में कहूं कि तुम सुख से भर जाओगे तो यह बेतुकी बात होगी। तुम तो होगे ही नहीं। तो मैं कैसे कह सकता हूं कि तुम सूख से भी जाओगे? सुख होगा। तुम्‍हारी त्‍वचा की चार दीवारी में आनंद का स्‍पंदन होगा। लेकिन तुम नहीं होओगे? एक गहन मौन तुम पर उतर आयेगा। क्‍योंकि यदि तुम ही नहीं हो तो कोई भी अशांति पैदा नहीं कर सकता।

तुम सदा यही सोचते हो कि कोई और तुम्‍हें अशांत कर रहा है। सड़क से गुजरते हुए ट्रैफिक की आवाज, चारों और खेलते हुए बच्‍चे, रसोईघर में काम करती हुई पत्‍नी—हर कोई तुम्‍हें अशांत कर रहा है।

कोई तुम्‍हें अशांत नहीं कर रहा है, तुम ही अशांति के कारण हो। क्‍योंकि तुम हो इसलिए कुछ भी तुम्‍हें अशांत कर सकता है। यदि तुम नहीं हो तो अशांति आएगी और तुम्‍हारी रिक्‍तता को बिना छुए गुजर जाएगी। तुम ऐसे हो कि सब कुछ बहुत जल्‍दी तुम्‍हें छू जाता है। एक घाव जैसे हो; कुछ भी तुम्‍हें तत्‍क्षण चोट पहुंचा जाता है।

मैंने एक वैज्ञानिक कहानी सुनी है। तीसरे विश्‍वयुद्ध के बाद ऐसा हुआ कि सब मर गए, अब पृथ्‍वी पर कोई भी नहीं था बस वृक्ष और पहाड़ियां ही बची थी। एक बड़े वृक्ष ने सोचा कि चलो खूब शोर करूं। जैसा कि वह पहले किया करता था। वह एक बड़ी चट्टान पर गिर पडा जो भी किया जा सकता था उसने सब किया। लेकिन कोई शोर नहीं हुआ। क्‍योंकि शोर के लिए तुम्‍हारे कानों की जरूरत होती है। आवाज के लिए तुम्‍हारे कानों की जरूरत है। यदि तुम नहीं हो तो आवाज पैदा नहीं की जा सकती है। यह असंभव है।

मैं यहां बोल रहा हूं। यदि कोई न हो तो मैं बोलता रह सकता हूं। लेकिन आवाज पैदा नहीं होगी। लेकिन मैं आवाज पैदा कर सकता हूं क्‍योंकि मैं स्‍वयं तो उसे सुन ही सकता है। यदि सुनने के लिए कोई भी न हो ता आवाज पैदा नहीं की जा सकती। क्‍योंकि आवाज तुम्‍हारे कानों की प्रतिक्रिया है।

यदि पृथ्‍वी पर कोई भी न हो तो सूरज उग सकता है। लेकिन प्रकाश नहीं होगा। यह बात अजीब लगती है। हम ऐसा सोच भी नहीं सकते क्‍योंकि हम तो सदा ही सोचते है कि सूरज उगेगा और प्रकाश हो जाएगा। लेकिन तुम्‍हारी आंखें चाहिए, तुम्‍हारी आंखों के बिना सूरज प्रकाश पैदा नहीं कर सकता। वह उगता रह सकता है। लेकिन सब व्‍यर्थ होगा। क्‍योंकि उसकी किरणें रिक्‍तता से ही गुजरेंगी। कोई भी नहीं होगा। जो प्रतिक्रिया कर सके और कह सके कि यह प्रकाश है।

प्रकाश तुम्‍हारी आंखों के कारण है। तुम प्रतिक्रिया करते हो। ध्‍वनि तुम्‍हारे कानों के कारण है। तुम प्रतिक्रिया करते हो। तुम क्‍या सोचते हो, किसी बगीचे में एक गुलाब का फूल खिला है, लेकिन यदि उधर से कोई भी न गुजरे तो क्‍या उसमें सुगंध होगी। अकेला गुलाब ही सुगंध पैदा नहीं कर सकता। तुम और तुम्‍हारी नाक जरूरी है। कोई होना चाहिए जो प्रतिक्रिया कर सके और कह सके कि यह सुगंध है, यह गुलाब है। चाहे गुलाब कितनी ही कोशिश करे, बिना किसी नाक के वह गुलाब न होगा।

तो अशांति वास्‍तव में सड़क पर नहीं है। वह तुम्‍हारे अहंकार में है। तुम्‍हारा अहंकार प्रतिक्रिया करता है। यह तुम्‍हारी व्‍याख्‍या है। कभी किसी दूसरी स्‍थिति में तुम उसका आनंद भी ले सकते हो। तब वह अशांति नहीं होगी। किसी दूसरे मनोभव में तुम उसका आनंद लोगे और तब तुम कहोगे, ‘कितना सुंदर, क्‍या संगीत है।’ लेकिन किसी उदासी के क्षण में संगीत भी अशांति बन जाएगा।

लेकिन यदि तु नहीं हो, बस एक स्‍पेस है, एक रिक्‍तता है, तब न तो अशांति हो सकती है न संगीत। सब कुछ बस तुमसे होकर गुजर जाएगा,बिलकुल अनजाना, क्‍योंकि अब कोई घाव नहीं है। जो प्रतिक्रिया करे, भीतर कोई नहीं है। जो प्रत्‍युत्‍तर दे; किसी अहंकार का निर्माण भी नहीं होगा। इसी को बुद्ध निर्वाण कहते है।

और यह विधि तुम्‍हारी सहायता कर सकती है।

अपने निष्‍क्रिय रूप को त्‍वचा की दीवारों का एक रिक्‍त कक्ष मानो—सर्वथा रिक्‍त।

किसी भी निष्‍क्रिय अवस्‍था में बैठ जाओ, कुछ भी न करो क्‍योंकि जब भी तुम कुछ करते हो तो कर्ता बीच में आ जाता है। वास्‍तव में कोई कर्ता नहीं है। केवल क्रिया के कारण ही तुम समझते हो कि कर्ता है। बुद्ध को समझ पाना इसीलिए कठिन है। केवल भाषा के कारण ही समस्‍याएं खड़ी हुई है।

हम कहते है कि व्‍यक्‍ति चल रहा है। यदि हम इस वाक्‍य का विश्‍लेषण करें तो इसका अर्थ हुआ कि कोई है जो चल रहा है। लेकिन बुद्ध कहते है कि कोई चल नहीं रहा,बस चलने की क्रिया हो रही है। तुम हंस रहे हो। भाषा के कारण ऐसा लगता है कि जैसे कोई है जो हंस रहा है। बुद्ध कहते है कि हंसी तो हो रही है। लेकिन भीतर कोई नहीं है जो हंस रहा है।

जब तुम हंसते हो, इसे स्‍मरण करो और खोजा कि कौन हंसता है। तुम कभी किसी को न पाओगे। बस हंसी मात्र है, उसके पीछे कोई हंसने वाला नहीं है। जब तुम उदास हो तो भीतर कोई नहीं है जो उदास है, बस उदासी है। उसको देखो। बस उदासी है। यह एक प्रक्रिया है: हंसी,सुख, दुःख; इनके पीछे कोई मौजूद नहीं है।

केवल भाषा के कारण ही हम द्वैत में सोचते है। यदि कुछ होता है तो हम कहते है कि कोई होना चाहिए जिसने किया,कोई कर्ता होना चाहिए। हम क्रिया को अकेले नहीं सोच सकते है। लेकिन क्‍या कभी तुमने कर्ता को देखा है। क्‍या तुमने उसे कभी देखा है जो हंसता है।

बुद्ध कहते है कि जीवन है, जीवन की प्रक्रिया है, लेकिन भीतर कोई भी नहीं है जो जीवंत है। और फिर मृत्‍यु होती है। लेकिन कोई मरता नहीं है। बुद्ध के लिए तुम बंटे हुए नहीं हो। भाषा द्वौत निर्मित करती है। मैं बोल रहा हूं। ऐसा लगता है कि मैं कोई हूं जो बोल रहा है। लेकिन बुद्ध कहते है कि केवल बोलना हो रहा है। बोलने वाला कोई नहीं है। यह एक प्रक्रिया है। जो किसी से संबंधित नहीं है।

लेकिन हमारे लिए यह कठिन है। क्‍योंकि हमारा मन द्वैत में गहरा जमा हुआ है। हम जब भी किसी क्रिया की बात सोचते है तो हम भीतर किसी कर्ता के बारे में सोचते है। यही कारण है कि ध्‍यान के लिए कोई शांत, निष्‍क्रिय मुद्रा अच्‍छी है क्‍योंकि तब तुम खालीपन में अधिक सरलता से उतर सकते हो।

बुद्ध कहते है, ‘ध्‍यान करो मत, ध्‍यान में होओ।’

अंतर बड़ा है। मैं दोहराता हूं, बुद्ध कहते है, ध्‍यान करो मत, ध्‍यान में होओ।‘ क्‍योंकि यदि तुम ध्‍यान करते हो तो कर्ता बीच में आ गया। तुम यही सोचते रहोगे कि तुम ध्‍यान कर रहे हो। तब ध्‍यान एक कृत्‍य बन गया। बुद्ध कहते है, ध्‍यान में होओ। इसका अर्थ है पूरी तरह निष्‍क्रिय हो जाओ। कुछ भी मत करो। मत सोचो कि कहीं कोई कर्ता है।

इसीलिए कई बार जब कर्ता क्रिया में खो जाता है तो तुम अचानक सुख कर एक स्‍फुरण अनुभव करते हो। ऐसा इसीलिए होता है क्‍योंकि तुम क्रिया में खो गए। नृत्‍य में ऐसा एक क्षण आता है जब नृत्‍य रह जाता है। और नर्तक खो जाता है। तब तत्‍क्षण एक आशीर्वादा एक सौंदर्य एक आनंद बरस उठता है। नर्तक एक अज्ञात आनंद से भर जाता है। वहां क्‍या हुआ। केवल क्रिया ही रह गई और कर्ता विलीन हो गया।

युद्ध भूमि में सैनिक कई बार बड़े गहन आनंद को उपलब्‍ध हो जाते है। यह सोच पाना भी कठिन है क्‍योंकि वे मृत्‍यु के इतने निकट होते है कि किसी भी क्षण वे मर सकते है। शुरू-शुरू में तो वह भयभीत हो जाते है, भय से कांपते है, लेकिन तुम रोज-रोज लगातार कांपते और भयभीत नहीं रहा सकते। धीरे-धीरे आदत पड़ जाती है। मनुष्‍य मृत्‍यु को स्‍वीकार कर लेता है, तब भय समाप्‍त हो जाता है।

और जब मृत्‍यु इतनी करीब हो और जरा सी चूक से मृत्‍यु घटित हो सकती है तो कर्ता भूल जाता है और केवल कर्म रह जाता है। केवल क्रिया रह जाती है। और वे क्रिया में इतने गहरे डूब जाते है कि वे सतत याद नहीं रख सकते कि ‘मैं हूं’। और ‘मैं हूं’ तो परेशानी खड़ी करेगा। तुम चूक जाओगे तुम क्रिया में पूरे नहीं हो पाओगे। और जीवन दांव पर लगा है। इसलिए तुम द्वैत को नहीं ढो सकते। कृत्‍य समग्र हो जाता है। और जब भी कृत्‍य समग्र होता है तो अचानक तुम पाते हो कि तुम इतने आनंदित हो जितने तुम पहले कभी भी न थे।

योद्धाओं ने आनंद के इतने गहरे झरनों का अनुभव किया है जितना कि साधारण जीवन तुम्‍हें कभी नहीं दे सकता। शायद यही कारण हो कि युद्ध इतने आकर्षित करते है। और शायद यही कारण हो कि क्षत्रिय ब्राह्मणों से अधिक मोक्ष को उपलब्‍ध हुए है। क्‍योंकि ब्राह्मण हमेशा सोचते ही रहते है, बौद्धिक ऊहापोह में उलझे रहते है। जैनों के चौबीस तीर्थकर राम, कृष्‍ण, बुद्ध, सभी क्षत्रिय योद्धा थे। उन्‍होंने उच्‍चतम शिखर को छुआ है।

किसी दुकानदार को कभी इतने ऊंचे शिखर छूते नहीं सूना होगा। वह इतनी सुरक्षा में जीता है कि वह द्वैत में जी सकता है। वह जो भी करता है कभी पूरा-पूरा नहीं होता। लाभ कोई समग्र कृत्‍य नहीं हो सकता तुम उसका आनंद ले सकते हो, लेकिन वह कोई जीवन मृत्‍यु का सवाल नहीं हो सकता। तुम उसके साथ खेल सकते हो। लेकिन कुछ भी दांव पर नहीं लगा है। वह एक खेल है। दुकानदारी एक खेल ही है। धन का खेल है। खेल कोई बहुत खतरनाक बात नहीं है। इसलिए दुकानदार सदा कुनकुना रहता है। एक जुआरी भी दुकानदार से अधिक आनंद को उपलब्‍ध हो सकता है। क्‍योंकि जुआरी खतरे में उतरता है। उसके पास जो कुछ है वह दांव पर लगा देता है। पूरे दांव के उस क्षण में कर्ता खो जाता है।

शायद यही कारण है कि जुए में इतना आकर्षण है, युद्ध में इतना आकर्षण है। जहां तक मैं समझता हूं,जो भी कुछ आकर्षण है कहीं उसके पीछे कुछ आनंद भी छिपा होगा। कहीं अज्ञात का कोई इशारा छिपा होगा। कहीं जीवन के गहन रहस्‍य की झलक छिपी होगी। अन्‍यथा कुछ भी आकर्षण नहीं हो सकता।

निष्‍क्रियता…..ओर ध्‍यान में तुम जो मुद्रा लो वह शांत होना चाहिए। भारत में हमने सबसे निष्‍क्रिय आसन, सबसे शांत मुद्रा विकसित की है। सिद्धासन। और इसका सौंदर्य यह है कि सिद्धासन की मुद्रा में जिसमें बुद्ध बैठे है। शरीर गहनतम निष्‍क्रियता की अवस्‍था में होता है। लेट कर भी तुम इतने क्रिया शून्‍य नहीं होते। सोते समय भी तुम्‍हारी मुद्रा निष्‍क्रिय नहीं होती, क्रियाशील होती है।

सिद्धासन इतना शांत क्‍यों होता है? कई कारण है। इस मुद्रा में शरीर की विद्युत ऊर्जा एक वर्तुल में घूमती है। शरीर का एक विद्युतीय वर्तुल होता है: जब वर्तुल पूरा हो जाता है तो ऊर्जा शरीर में चक्राकर घूमने लगती है। बाहर नहीं निकलती। अब यह वैज्ञानिक रूप से सिद्ध तथ्‍य है कि कई मुद्राओं में तुम्‍हारे शरीर से ऊर्जा बाहर निकलती रहती है। जब शरीर ऊर्जा को बाहर फेंकता है तो उसे लगातार ऊर्जा पैदा करना पड़ती है। वह सक्रिय रहता है। शरीर तंत्र को लगातार कार्य करना पड़ता है क्‍योंकि तुम ऊर्जा फेंक रह हो। जब ऊर्जा शरीर तंत्र से बाहर निकल रहा है तो उसे पूरा करने के लिए भीतर से शरीर को सक्रिय होना पड़ता है। तो सबसे शांत मुद्रा वह होगी जब कोई ऊर्जा बाहर नहीं निकल रही हो।

अब पाश्‍चात्‍य देशों में, विशेषकर इंग्‍लैंड में वे रोगियों का इलाज उनके शरीर के विद्युतीय वर्तुल बनाकर करने लगे है। कई अस्‍पतालों में इन विधियों का उपयोग होता है। और वे बहुत सहयोगी है। व्‍यक्‍ति फर्श पर तारों के एक जाल में लेट जाता है। तारों का वह जाल बस उसके शरी की विद्युत का एक वर्तुल बनाने के लिए होता है। बस आधा घंटा ही पर्याप्‍त है—और वह इतना विश्रांत,इतना ऊर्जा से भरा हुआ, इतना शक्‍तिशाली अनुभव करेगा कि वह विश्‍वास भी नहीं कर पाएगा। कि जब वह आया तो इतना कमजोर था।

सभी पुरानी सभ्‍यताओं में लोग रात को एक विशेष दिशा में सोते थे। ताकि ऊर्जा बाहर न बहे। क्‍योंकि पृथ्‍वी में एक चुंबकीय शक्‍ति है। उस चुंबकीय शक्‍ति का उपयोग करने के लिए तुम्‍हें एक विशेष दिशा में लेटना पड़ेगा। तब पृथ्‍वी की शक्‍ति सारी रात तुम्‍हें चुंबकत्‍व में रखेगी। यदि तुम इससे विपरीत लेटे हुए हो तो वह शक्‍ति तुमसे संघर्ष में रहेगी और तुम्‍हारी ऊर्जा नष्‍ट होगी।

कई लोग सुबह बड़ा तनाव, बड़ी कमजोरी अनुभव करते है। ऐसा होना नहीं चाहिए, क्‍योंकि नींद तुम्‍हें तरो-ताजा करने के लिए, तुम्‍हें अधिक ऊर्जा देने के लिए है। लेकिन कई लोग है जो रात सोते समय ऊर्जा से भरे होते है। पर सुबह वे लाश की तरह होते है। इससे कई कारण हो सकते है, पर यह भी उनमें से एक कारण हो सकता है। वे गलत दिशा में सोए है। यदि वे पृथ्‍वी के चुंबकत्‍व के विपरीत लेटे हुए है तो वे बुझा-बुझा महसूस करेंगे।

तो अब वैज्ञानिक कहते है कि शरीर का अपना एक विद्युत यंत्र है और ऐसे आसन हो सकते है जिनमें ऊर्जा संरक्षित हो। और उन्‍होंने सिद्धासन में बैठे हुए कई योगियों का अध्‍यन किया है। उस अवस्‍था में शरीर न्‍यूनतम ऊर्जा बाहर फेंकता हे। ऊर्जा संरक्षित रहती है। जब ऊर्जा संरक्षित होती है तो आंतरिक यंत्रो को कार्य नहीं करना पड़ता। किसी क्रिया की कोई जरूरत ही नहीं रहती। इसलिए शरीर अक्रिय होता है। इस अक्रियता में तुम सक्रिय अवस्‍था में अधिक रिक्‍त हो सकते हो।

इस सिद्धासन की मुद्रा में तुम्‍हारी रीढ़ की हड्डी और पूरा शरीर सीधा होता है। अब कई अध्‍ययन हुए है। जब तुम्‍हारा शरीर पूरी तरह सीधा होता है तो तुम पृथ्‍वी के गुरूत्‍वाकर्षण से न्‍यूनतम प्रभावित होते हो। यही कारण है कि जब तुम किसी असुविधाजनक मुद्रा में बैठते हो—जिसे तुम असुविधाजनक कहते हो—वह असुविधाजनक इसीलिए होती है क्‍योंकि तुम्‍हारा शरीर अधिक गुरूत्‍वाकर्षण से प्रभावित हो रहा है। यदि तुम सीधे बैठे हुए हो तो गुरूत्‍वाकर्षण न्‍यूनतम प्रभावी होता है। क्‍योंकि वह मात्र तुम्‍हारी रीढ़ को खींच सकता है। और कुछ भी नहीं।

इसीलिए तो खड़े रहकर सोना कठिन है। शीर्षासन में, सिर के बल खड़े होकर सोना तो लगभग असंभव ही हे। सोने के लिए तुम्‍हें लेटना पड़ता है। क्‍यों? क्‍योंकि तब धरती का खिंचाव तुम पर अधिकतम होता है। और अधिकतम खिंचाव तुम्‍हें अचेतन कर देता है। न्‍यूनतम खिंचाव तुम्‍हें जगाता है। अधिकतम खिंचाव अचेतन कर देता है। सोने के लिए तुम्‍हें लेटना पड़ता है। ताकि पृथ्‍वी का गुरूत्‍वाकर्षण तुम्‍हारे सारे शरीर को छुए और उसकी प्रत्‍येक कोशिश को खींचे। तब तुम अचेतन हो जाते हो।

पशु मनुष्‍य से अधिक अचेतन होते है। क्‍योंकि वे सीधे खड़े नहीं हो सकते। विकासवादी, इवोल्‍यूशनिस्‍ट कहते है कि मनुष्‍य इसीलिए विकसित हो सका क्‍योंकि वह दो पांवों पर सीधा खड़ा हो सका। गुरूत्‍वाकर्षण का खिंचाव कम होने के कारण वह थोड़ा अधिक चैतन्‍य हो गया।

सिद्धासन में गुरूत्‍वाकर्षण शक्‍ति न्‍यूनतम होती है। शरीर निष्‍क्रिय और क्रिया-रहित होता है। भीतर से बंद होता है। स्‍वयं में एक संसार बन जाता है। न कुछ बाहर जाता है, न कुछ भीतर आता है। आंखें बंद है। हाथ जुड़े हुए है, पाँव जुड़े हुए है—ऊर्जा वर्तुल में गति करती है। और जब भी ऊर्जा वर्तुल में गति करती है। वह एक आंतरिक लय एक आंतरिक संगीत निर्मित करती है। जितना तुम उस संगीत को सुनते हो, उतने ही तुम विश्रांत अनुभव करते हो।

‘अपने निष्‍क्रय रूप को त्‍वचा की दीवारों का एक रिक्‍त कक्ष मानो—बिलकुल जैसे कोई खाली कमरा होता है—सर्वथा रिक्‍त।’

उस रिक्‍तता में गिरते जाओ। एक क्षण आएगा जब तुम अनुभवकरोगे कि सब कुछ समाप्‍त हो गया। कि अब कोई भी नहीं बचा। घर खाली है, घर का स्‍वामी मिट गया, तिरोहित हो गया। उस अंतराल में जब तुम नहीं होओगे तो परमात्‍मा प्रकट होगा। जब तुम नहीं होते, परमात्‍मा होता है। जब तुम नहीं होते, आनंद होता है। इसलिए मिटने का प्रयास करो। भीतर से मिटने का प्रयास करो।

ओशो

विज्ञान भैरव तंत्र, भाग—पांच,

प्रवचन-79

साभार:-(oshosatsang.org)

विज्ञान भैरव तंत्र विधि–108 (ओशो)

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तीसरी विधि:

‘यह चेतना ही प्रत्‍येक की मार्ग दर्शक सत्ता है, यही हो रहो।’

पहली बात, मार्गदर्शक तुम्‍हारे भीतर है, पर तुम उसका उपयोग नहीं करते। और इतने समय से, इतने जन्‍मों से तुमने उसका उपयोग नहीं किया है। कि तुम्‍हें पता ही नहीं है कि तुम्‍हारे भीतर कोई विवेक भी है। मैं कास्‍तानेद की पुस्‍तक पढ़ रहा था। उसका गुरु डान जुआन उसे एक सुंदर सा प्रयोग करने के लिए देता है। यह प्राचीनतम प्रयोगों में से एक है।

एक अंधेरी रात में, पहाड़ी रास्‍ते पर कास्‍तानेद का गुरु कहता है, तू भीतरी मार्गदर्शक पर भरोसा करके दौड़ना शुरू कर दे। यह खतरनाक था। यह खतरनाक था। पहाड़ी रास्‍ता था। अंजान था। वृक्षों झाड़ियों से भरा था। खाइयां भी थी। वह कहीं भी गिर सकता था। वहां तो दिन में भी संभल-संभलकर चलना पड़ता था। और यह तो अंधेरी रात थी। उसे कुछ सुझाई नहीं पड़ता था। और उसका गुरू बोला, चल मत दौड़।

उसे तो भरोसा ही न आया। यह तो आत्‍महत्‍या करने जैसा हो गया। वह डर गया। लेकिन गुरु दौड़ा। वह बिलकुल वन्‍य प्राणी की तरह दौड़ता हुआ गया और वापस आ गया। और कास्‍तानेद को समझ नहीं आया कि वह कैसे दौड़ रहा था। और न केवल वह दौड़ रहा था। बल्‍कि हर बार दौड़ता हुआ वह सीधी उसी के पास आता जैसे कि वह देख सकता हो। फिर धीरे-धीरे कास्‍तानेद ने साहस जुटाया। जब यह बूढ़ा आदमी दौड़ सकता है तो वह क्‍यों नहीं दौड़ सकता। उसने कोशिश की, और धीरे-धीरे उसे लगा कि कोई आंतरिक प्रकाश उठा रहा है। फिर वह दौड़ने लगा।

तुम केवल तभी होते हो जब तुम सोचना बंद कर देते हो। जिस क्षण तुम सोचना बंद करते हो। अंतस घटित होता है। यदि तुम न सोचो तो सब ठीक है। यह ऐसे ही है जैसे कोई भीतर मार्ग दर्शक कार्य कर रहा है। तुम्‍हारी बुद्धि ने तुम्‍हें भटकाया है। और सबसे बड़ा भटकाव यह है कि तुम अंतर्विवेक पर भरोसा नहीं कर सकते।

तो पहले तुम्‍हें अपनी बुद्धि को राज़ी करना पड़ेगा। यदि तुम्‍हारा विवेक कहता भी है कि आगे बढ़ो तो तुम्‍हें अपनी बुद्धि को राज़ी करना पड़ता है। और तब तुम अवसर चूक जाते हो। क्‍योंकि कई क्षण होते है, या तो तुम उनका उपयोग कर ले सकते हो, या उन्‍हें चूक जाओगे। बुद्धि समय लगाती है। और जब तक तुम सोचते हो, विचार करते हो, तब तक अवसर हाथ से निकल जाता है। जीवन तुम्‍हारे लिए इंतजार नहीं करेगा। तुम्‍हें तत्‍क्षण जीना होता है। तुम्‍हें योद्धा बनना पड़ता है। जैसे झेन में कहते है—क्‍योंकि जब तुम रणभूमि में तलवार लेकर लड़ रहे हो तो तुम सोचते नहीं, तुम्‍हें बिना सोचे विचारे लड़ना होता है।

झेन गुरूओं न तलवार का ध्‍यान की विधि की तरह उपयोग किया है। और जापान में कहते है कि यदि दो झेन गुरु, दो ध्‍यानस्‍थ। व्‍यक्‍ति तलवारों से युद्ध कर रहे हों तो परिणाम कभी निकल ही नहीं सकता। न कोई हारेगा। न कोई जीतेगा। क्‍योंकि दोनों ही विचार नहीं कर रहे। तलवारें उनके हाथों में नहीं है। उनके अंतर्विवेक, विचारवान भीतरी मार्ग दर्शक के हाथों में है। और इससे पहले कि दूसरा आक्रमण करे,विवेक जान लेता है और प्रतिरक्षा कर लेता है। तुम उसके बारे में सोच नहीं सकते क्‍योंकि समय ही नहीं है। दूसरा तुम्‍हारा ह्रद का निशाना बना रहा है। एक ही क्षण में तलवार तुम्‍हारे ह्रदय में घुस जाएगी। इस विषय में सोचने का समय ही नहीं है। कि क्‍या करना है। जैसे ही उसके मन में यह विचार उठता है कि ह्रदय में तलवार धुसा दो। उसी समय तुममें विचार उठना चाहिए कि बचो। उसी क्षण बिना किसी विलंब के—केवल तभी तुम बच सकते हो। बरना तो तुम समाप्‍त हो जाओगे।

तो वे तलवार बाजी को ध्‍यान की तरह सिखते है और कहते है, ‘हर क्षण अंतर्विवेक से जीओं, सोचो मत। अंतस जो चाहे उसे करने दो। मन के द्वारा हस्‍तक्षेप मत करो।’

यह बहुत कठिन है, क्‍योंकि हम तो अपने मन से ही इतने प्रशिक्षित है। हमारे स्‍कूल हमारे कालेज, हमारे विश्‍वविद्यालय,हमारी संस्‍कृति, सभ्‍यता,सभी हमारे मस्‍तिष्‍क को भरते है। हमारा अपने अंतर्विवेक से संबंध टूट गया है। सब उस अंतर्विवेक के साथ ही पैदा होते है। लेकिन उसे काम नहीं करने दिया जाता। वह करीब-करीब अपंग हो जाता है। पर उसे पुनर्जीवित किया जा सकता है। यह सूत्र इसी अंतर्विवेक के लिए है।

‘यह चेतना ही प्रत्‍येक की मार्गदर्शक सत्‍ता है, यही हो रहो।’

खोपड़ी से मत सोचो। सच में तो, सोचो ही मत। बस बढ़ा। कुछ परिस्‍थितियों में इसे करके देखो। यह कठिन होगा, क्‍योंकि सोचने की पुरानी आदत होगी। तुम्‍हें सजग रहना पड़ेगा कि सोचना नहीं है। बस भीतर से महसूस करना है कि मन में क्‍या आ रहा है। कई बार तुम उलझन में पड़ सकते हो कि यह अंतर्विवेक से उठ रहा है। या मन की सतह से आ रहा है। लेकिन जल्‍दी ही तुम्‍हें अंतर पता लगना शुरू हो जाएगा।

जब भी कुछ तुम्‍हारे भीतर से आता है तो वह तुम्‍हारी नाभि से ऊपर की और उठता है। तुम उसके प्रवाह, उसकी उष्‍णता को नाभि से ऊपर उठते हुए अनुभव कर सकते हो। जब भी तुम्‍हारा मन सोचता है तो वह ऊपर-ऊपर होता है। सिर में होता है और फिर नीचे उतरता है। तुम्‍हारा मन सोचता है तो वह ऊपर-ऊपर होता है, सिर में होता है। और फिर नीचे उतरता है। यदि तुम्‍हारा मन कुछ सोचता है तो उसे नीचे धक्‍का देना पड़ता है। यदि तुम्‍हारा अंतर्विवेक कोई निर्णय लेता है तो तुम्‍हारे भीतर कुछ उठता है। वह तुम्‍हारे अंतरतम से तुम्‍हारे मन की और आता है। मन उसे ग्रहण करता है। पर वह निर्णय मन का नहीं होता। वह पार से आता है। और यही कारण है कि मन उससे डरता है। बुद्धि उस पर भरोसा नहीं कर सकती। क्‍योंकि वह गहरे से आता है—बिना किसी तर्क के बिना किसी प्रमाण के बस उभर आता है।

तो किन्‍हीं परिस्‍थितियों में इसे करके देखो। उदाहरण के लिए, तुम जंगल में रास्‍ता भटक गए हो तो इसे करके देखो। सोचो मत बस, अपने आँख बंद कर लो, बैठ जाओ। ध्‍यान में चले जाओ। और सोचो मत। क्‍योंकि वह व्‍यर्थ है; तुम सोच कैसे सकते हो? तुम कुछ जानते ही नहीं हो। लेकिन सोचने की ऐसी आदत पड़ गई है कि तुम तब भी सोचते चले जाते हो। जब सोचने से कुछ भी नहीं हो सकता है। सोचा तो उसी के बारे में जा सकता है, जो तुम पहले से जानते हो, तुम जंगल में रास्‍ता खो गए हो, तुम्‍हारे पास कोई नक्‍शा नहीं है, कोई मौजूद नहीं है जिससे तुम पूछ लो। अब तुम क्‍या सोच सकते हो। लेकिन तुम तब भी कुछ न कुछ सोचोगे। वह सोचना बस चिंता करना ही होगा। सोचना नहीं होगा। और जितनी तुम चिंता करोगे उतना ही अंतर्विवेक कम काम कर पाएगा।

तो चिंता छोड़ो, किसी वृक्ष के नीचे बैठ जाओ और विचारों को विदा हो जाने दो। बस प्रतीक्षा करो, सोचो मत। कोई समस्‍या मत खड़ी करो, बस प्रतीक्षा करो। और जब तुम्‍हें लगे कि निर्विचार का क्षण आ गया है, तब खड़े हो जाओ और चलने लगो। जहां भी तुम्‍हारा शरीर जाए उसे जाने दो। तुम बस साक्षी बने रहो। कोई हस्‍तक्षेप मत करो। खोया हुआ रास्‍ता बड़ी सरलता से पाया जा सकता है, लेकिन एकमात्र शर्त है कि मन के द्वारा हस्‍तक्षेप न हो।

ऐसा कई बार अनजाने में हुआ है। महान वैज्ञानिक कहते है कि जब भी कोई बड़ी खोज हुई है मन के द्वारा नहीं हुई , सदा अंतःप्रज्ञा के ही कारण हुई है।

मैडम क्‍यूरी गणित की एक समस्‍या को सुलझाने में लगी हुई थी। जो कुछ भी संभव था, उसने सब किया। फिर वह ऊब गई। कई दिन से, हफ्तों से वह उस पर कार्य कर रही थी। और कुछ हल नहीं निकल रहा था। वह पागल हुई जा रही थी। हल का कोई उपाय ही नजर नहीं आ रहा था। फिर एक रात थक कर वह लेट गई और सो गई। और रात को सपने में उसका उत्तर एकदम उभर आया वह उससे इतनी जुड़ी हुई थी कि उसका सपना टूट गया, वह जाग गई। उसी क्षण उसने उत्‍तर लिख दिया। क्‍योंकि सपने में यह तो आया नहीं था कि करना कैसे है, बस उत्‍तर सामने आ गया। उसने एक कागज पर उत्‍तर लिख दिया और फिर सो गई।

सुबह वह हैरान हुई; उत्‍तर बिलकुल ठीक था, पर वह जानती नहीं थी कि उसे निकाला कैसे गया था। कोई प्रक्रिया, कोई तरीका नहीं दिया हुआ था। फिर उसने प्रक्रिया खोजने की कोशिश की। अब वह आसान बात थी क्‍योंकि उत्‍तर हाथ में था। और उत्तर लेकिर पीछे बढ़ना सरल था। इस सपने के कारण उसने नोबल पुरस्‍कार जीता। लेकिन वह सदा ही हैरान रही कि यह हुआ कैसे।

जब तुम्‍हारा मन थक जाता है, और आगे नहीं बढ़ सकता, तो वह थक कर रूक जाता है; थकनें के उस क्षण में अंतर्विवेक इशारे दे सकता है। हल दे सकता है। कुंजियों दे सकता है। जिस व्‍यक्‍ति को मनुष्‍य की कोशिश की आंतरिक संरचना की खोज के लिए नोबल पुरस्‍कार मिला, उसने भी उसकी संरचना को एक सपने में देखा। उसने मानवीय कोशिका की पूरी आंतरिक संरचना को सपने में देखा और सुबह उठकर उसकी पिक्‍चर बना दी। उसे खुद भी भरोसा नहीं था कि यह ठीक है, तो उसे कई वर्षों तक उस पर काम करना पडा। कई वर्ष उस पर काम करने के बाद वह इस निष्‍कर्ष पर पहुंचा कि सपना सच्‍चा था।

मैडम क्‍यूरी के साथ ऐसा हुआ कि जब उसे अंतःप्रज्ञा की इस प्रक्रिया का पता चला तो उसने निश्‍चय कर लिया कि वह प्रयोग करके देखेगी। एक बार एक समस्‍या आ गई जिसे वह हल करना चाहती थी। तो उसने सोचा, ‘इसके लिए क्‍यों व्‍यर्थ ही चिंता करूं, और श्रम करूं? बस सो जाती हूं।’ वह मजे से सो गई, पर कोई हल नहीं आया। तो वह थोड़ी परेशान हुई। कई बार उसने कोशिश की,जब भी कोई समस्‍या आती तो वह सो जाती। लेकिन कोई हल न निकलता। पहले बुद्धि को पूरी तरह से थकाना होता है, तभी हल आता है। खोपड़ी को पूरी तरह से थका देना होता है। नहीं तो वह स्‍वप्‍न में भी चलती रहती है।

तो अब वैज्ञानिक कहते है कि सभी बड़ी खोजें अंतःप्रज्ञा से आती है। बौद्धिक नहीं होती। भीतर मार्गदर्शक का यही अर्थ है।

‘यह चेतना ही प्रत्‍येक की मार्गदर्शक सत्‍ता है, यहीं हो रहो।’

मस्‍तिष्‍क को छोड़ दो और इस अंत:प्रज्ञा में उतर जाओ। पुराने शास्‍त्र कहते है कि बाह्म गुरु केवल तुम्‍हें भीतर के गुरु से मिलवा ने में मदद कर सकता है। बस इतना ही। एक बार बाह्म गुरु तुम्‍हें भीतरी गुरू से मिलवा दे तो उसका काम समाप्‍त हो जाता है।

गुरु के द्वारा तुम सत्‍य तक नहीं पहुंच सकते; गुरु के द्वार तुम बस भीतर के गुरु तक पहुंच सकते हो। और तब वह भीतर का गुरु तुम्‍हें सत्‍य तक ले जाएगा। बाह्म गुरु तो बस एक प्रतिनिधि है, एक विकल्‍प है। उसने अपना भीतरी मार्ग दर्शक खोज लिया है और वह तुम्‍हारे मार्ग दर्शक को देख सकता है, क्‍योंकि वे दोनों एक ही तल पर है; एक ही लय में एक ही आयाम में है। यदि मैंने अपना अंतर्विवेक खोज लिया है तो मैं तुममें झांक कर तुम्‍हारे अंतर्विवेक को महसूस कर सकता हूं। और यदि में वास्‍तव में तुम्‍हारा पथ प्रदर्शक हूं तो मेरा सारा सहयोग तुम्‍हें तुम्‍हारे अंतर्विवेक तक पहुंचाने के लिए होगा।

एक बार तुम्‍हारा अपने अंतर्विवेक से संबंध बन जाए तो मेरी कोई जरूरत नहीं है। अब तुम अकेले चल सकते हो। तो गुरु बस इतना ही कर सकता है। कि वह तुम्‍हें खोपड़ी से नाभि पर ढकेल दे, तुम्‍हारी तार्किक बुद्धि से तुम्‍हें आस्‍थावान मार्गदर्शक की और धक्‍का दे दे। और ऐसा केवल मनुष्‍यों में नहीं है, ऐसा पशु-पक्षियों, वृक्षों, सबके साथ होता है। सब में अंत:प्रज्ञा होती है। और अब तो कई नहीं बातें पता चली है जो बहुत रहस्‍यमय है।

बहुत सी घटनाएं है। उदाहरण के लिए एक मादा मछली अंडे देते ही मर जाती है। पिता अंडों को सेता है। और फिर वह भी मर जाता है। अंडे बिना माता-पिता के रहते है। वे परिपक्‍व हो जाते है। नई मछलियाँ पैदा हो जाती है। ये मछलियाँ अपने माता-पिता के बारे में कुछ भी नहीं जानती। उन्‍हें नहीं पता होता कि वे कहां से आई थी। लेकिन ये मछलियाँ समुद्र के किसी भी हिस्‍से में हों, वे अंडे देने उसी जगह पहुंच जाएंगी जहां उनके माता पिता अंडे देने आए थे। वे स्‍त्रोत पर लौट जाएंगी। ऐसा बार-बार होता रहा है। और जब भी उन्‍हें अंडे देने होंगे वे इसी किनारे पर लौट आएँगी, अंडे देंगी और मर जाएंगी।

तो मां बाप और बच्‍चों के बीच कोई संपर्क नहीं है। पर किसी तरह बच्‍चे जानते है कि उन्‍हें कहां जाना है, और वे कभी चूकते नहीं। और तुम उन्‍हें भटका नहीं सकते ऐसा करने की कोशिश की गई है। लेकिन तुम उन्‍हें भटका नहीं सकते वे स्‍त्रोत पर लौट ही जाएंगे। कोई अंतर्प्रेरणा काम कर रही है।

सोवियत रूस में बिल्‍लियों, चूहों और छोटे जानवरों के साथ प्रयोग करते रह है। एक बिल्‍ली को उसके बच्‍चे से अलग कर लिया गया और बच्‍चों को समुद्र में गहरे ले जाया गया; उसे पता नहीं लग सकता था कि उसके साथ क्‍या हो रहा है। हर तरह के वैज्ञानिक यंत्र बिल्‍ली के साथ लगा दिए गये। ताकि यह पता चल सके कि बिल्‍ली के मन में और ह्रदय में क्‍या चल रहा है। फिर उसके बच्‍चे को मारा गया। गहरे समुद्र में—एक दम से मां को पता चल गया। उसका रक्‍तचाप बदल गया। वह चिंतित हो गई, उसके दिल की धड़कन बढ़ गई—जैसे ही बच्‍चे को मारा गया। और वैज्ञानिक यंत्रों ने बताया कि उसे बड़ी पीड़ा हुई। फिर कुछ समय बाद सब सामान्‍य हो गया। फिर दूसरा बच्‍चा मारा गया,फिर परिर्वतन हुआ। और तीसरे बच्‍चे के साथ भी ऐसा ही हुआ। हर बार बिलकुल उसी समय ही ऐसा हुआ। क्‍या हो रहा था।

अब रूसी वैज्ञानिक कहते है कि मां के पास एक अंतर्प्रेरणा होती है। अनुभूति का एक अंत केंद्र होता है। और वह बच्‍चों के साथ जुड़ा होता है, चाहे वे कहीं भी हों। और वह तत्‍क्षण एक टेलीपैथिक संवेदना अनुभव करती है। मनुष्‍य में मां इतना अनुभव कर सकती। यह बड़ी हैरानी की बात है; मनुष्‍य को अधिक अनुभव करना चाहिए क्‍योंकि वह अधिक विकसित है। लेकिन वह नहीं कर पाती क्‍योंकि मस्‍तिष्‍क ने सब कुछ अपने हाथों में ले लिया है और सारे आंतरिक केंद्र अपंग पड़ गए है।

‘या चेतना ही प्रत्‍येक की मार्गदर्शक सत्‍ता है, यहीं हो रहो।’

जब भी तुम किसी परिस्‍थिति में बहुत परेशान होओ और तुम्‍हें पता न चले कि उसमें से कैसे निकलना है तो सोचों मत, बस गहरे निर्विचार में चले जाओ और अपने अंतर्विवेक को अपना मार्गदर्शन करने दो। शुरू-शुरू में तो तुम्‍हें भय लगेगा। असुरक्षा महसूस होगी। पर जल्‍दी ही जब तुम हर बार ही ठीक निष्‍कर्ष पर पहुंचोगे, जब तुम हर ठीक द्वार पर पहुंच जाओगे, तुममें साहस आ जाएगा और तुम भरोसा करने लगोगे।

यदि यह भरोसा आता है तो उसे ही मैं श्रद्धा कहता हूं। यह वास्‍तव में आध्‍यात्‍मिक श्रद्धा है, अंतर्विवेक में श्रद्धा। बुद्धि तुम्‍हारे अहंकार का हिस्‍सा है। वह तो अपने आप पर ही भरोसा है। जिस क्षण तुम अपने में गहरे उतरते हो, तुम ब्रह्मांड की आत्‍मा में पहुंच जाते हो। तुम्‍हारी अंत:प्रज्ञा परम विवेक का अंश है। जब तुम अपना ही अनुसरण करते हो तो सब कुछ उलझा देते हो और तुम्‍हें पता नहीं चलता कि तुम क्‍या कर रहे हो। तुम अपने को बहुत ज्ञानी समझ सकते हो पर हो नहीं।

ज्ञान तो ह्रदय से आता है, बुद्धि से नहीं। ज्ञान तुम्‍हारी आत्‍मा के अंतरतम से उठता है। मस्‍तिष्‍क से नहीं। अपनी खोपड़ी को अलग हटा कर रख दो और आत्‍मा का अनुसरण करो, चाहे वह जहां भी ले जाए। अगर वह खतरे में भी ले जाए तो खतरे में जाओ क्‍योंकि वही तुम्‍हारे लिए और तुम्‍हारे विकास के लिए मार्ग होगा। खतरे से तुम विकसित होओगे और पकोगे। यदि अंतर्विवेक तुम्‍हें मृत्‍यु की और भी ले कर जाये तो उसके पीछे जाओ। क्‍योंकि वहीं तुम्‍हारा मार्ग होगा। उसका अनुसरण करो,उसमें श्रद्धा करो और उस पर चल पड़ो।

ओशो

विज्ञान भैरव तंत्र, भाग—पांच,

प्रवचन-77

साभार:-(oshosatsang.org)

विज्ञान भैरव तंत्र विधि–107 (ओशो)

चेतना

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दूसरी विधि:

‘यह चेतना ही प्रत्‍येक प्राणी के रूप में है। अन्‍य कुछ भी नहीं है।’

अतीत में वैज्ञानिक कहा करते थे कि केवल पदार्थ ही है और कुछ भी नहीं है। केवल पदार्थ के ही होने की धारणा पर बड़े-बड़े दर्शन के सिद्धांत पैदा हुए। लेकिन जिन लोगों की यह मान्‍यता थी कि केवल पदार्थ ही है वे भी सोचते थे कि चेतना जैसा भी कुछ है। तब वह क्‍या था? वे कहते थे कि चेतना पदार्थ का ही एक बाई-प्रोडेक्ट है, एक उप-उत्‍पाद है। वह परोक्ष रूप में, सूक्ष्‍म रूप में पदार्थ ही था।

लेकिन इस आधी सदी ने एक महान चमत्‍कार होते देखा है। वैज्ञानिकों ने यह जानने का बहुत प्रयास किया कि पदार्थ क्‍या है। लेकिन जितना उन्‍होंने प्रयास किया उतना ही उन्‍हें लगा कि पदार्थ जैसा तो कुछ भी नहीं है। पदार्थ का विश्‍लेषण किया गया और पाया कि वहां कुछ नहीं है।

अभी सौ वर्ष पूर्व नीत्‍शे ने कहा था कि परमात्‍मा मर गया है। परमात्‍मा के मरने के साथ ही चेतना भी बच नहीं सकती क्‍योंकि परमात्‍मा का अर्थ है समग्र-चेतना। लेकिन इन सौ सालों में ही पदार्थ मर गया। और पदार्थ इसलिए नहीं मरा क्‍योंकि धार्मिक लोग ऐसा सोचते है, बल्‍कि वैज्ञानिक एक बिलकुल दूसरे निष्‍कर्ष पर पहुंच गए है कि पदार्थ केवल आभास है। यह केवल ऐसा दिखाई पड़ता है क्‍योंकि हम बहुत गहरे नहीं देख सकते। यदि हम गहरे में देख सके तो पदार्थ समाप्‍त हो जाता है। बस ऊर्जा बच रहती है।

यह उर्जा, यह अभौतिक ऊर्जा-शक्‍ति संतों द्वारा पहले से ही जान ली गई है। वेदों में, बाइबिल में, कुरान में, उपनिषदों में—संसार भर में संतों ने जब भी अस्‍तित्‍व में गहरे प्रवेश किया है तो पाया है कि पदार्थ केवल भासता है; गहरे में कोई पदार्थ नहीं है केवल ऊर्जा है। अब इस बात से विज्ञान सहमत है। और संतों ने एक और भी बात कहीं है जिससे विज्ञान को अभी राज़ी होना है—एक दिन उसे राज़ी होना ही पड़ेगा—संत एक दूसरे निष्‍कर्ष पर भी पहुंचे है, वे कहते है कि जब तुम ऊर्जा में गहरे प्रवेश करते हो तो ऊर्जा भी समाप्ति हो जाती है और बस चेतना बचती है।

तो ये तीन पर्तें है। पदार्थ पहली पर्त है, परिधि है। परिधि के भीतर प्रवेश कर जाओ तो दूसरी पर्त दिखाई पड़ती है। फिर विज्ञान ने भीतर प्रवेश करने का प्रयास किया। और संतों की दूसरी पर्त की पुष्‍टि हो गई। पदार्थ केवल भासता है, गहरे में वह बस ऊर्जा है। और संतों का दूसरा दावा है: ऊर्जा में भी गहरे प्रवेश करो तो ऊर्जा भी समाप्‍त हो जाती है। बस चेतना बचती है। वह चेतना ही परमात्‍मा है, वह अंतरतम केंद्र है।

यदि तुम अपने शरीर में प्रवेश करो तो वहां भी ये तीन पर्तें है। केवल सतह पर तुम्‍हारा शरीर है। शरीर भौतिक दिखाई पड़ता है, पर उसके भीतर प्राण की, जीवंत ऊर्जा की धाराएं बहती है। उस जीवंत ऊर्जा के बिना तुम्‍हारा शरीर बस एक लाश रह जाएगा। इसके भीतर कुछ बह रहा है। उसके कारण ही यह जीवित है। वहीं ऊर्जा है। लेकिन गहरे और गहरे में तुम द्रृष्‍टा हो, साक्षी हो। तुम अपने शरीर और ऊर्जा दोनों को देख सकते हो। वह द्रष्‍टा ही तुम्‍हारी चेतना है।

हर अस्‍तित्‍व की तीन पर्तें है। गहनत्म पर्त साक्षी चेतना की है, मध्‍य में जीवन ऊर्जा है और सतह पर पदार्थ है, भौतिक शरीर है।

यह विधि कहती है, यह चेतना ही प्रत्‍येक प्राणी के रूप में है। अन्‍य कुछ भी नहीं है। हो तो अंतत: तुम इसी निष्‍कर्ष पर पहुंचोगे कि तुम चेतना हो। बाकी सब कुछ तुम्‍हारा हो सकता है। पर तुम वह नहीं हो। शरीर तुम्‍हारा है। पर तुम शरीर को देख सकते हो। और जो शरीर को देख रहा है वह पृथक हो जाता है। शरीर जानी जाने वाली वस्‍तु हो जाता है और तुम जानने वाले हो जाते हो। तुम अपने शरीर को जान सकते हो। न केवल तुम जान सकते हो, बल्‍कि अपने शरीर को आज्ञा दे सकते हो, उसे सक्रिय कर सकते हो। निष्‍क्रिय कर सकते हो। तुम पृथक हो। तुम अपने शरीर के साथ कुछ भी कर सकते हो।

और न केवल तुम अपना शरीर नहीं हो, बल्‍कि तुम अपना मन भी नहीं हो। यदि विचार आते है तो तुम उन्‍हें देख सकते हो। या, तुम कुछ कर सकते हो: तुम उन्‍हें बिलकुल मिटा सकते हो, तुम विचारशून्‍य हो सकते हो। या, तुम अपने मन को एक ही विचार पर एकाग्र कर सकते हो। तुम स्‍वयं को वहां केंद्रित कर सकते हो। या तुम विचारों को नदी की तरह प्रवाहित होने देते हो। तुम अपने विचारों के साथ कुछ भी कर सकते हो। तुम्‍हें पता चलेगा कि अब कोई विचार नहीं रहे, अंतस में एक खाली पन आ गया है। लेकिन तुम फिर भी होओगे और उस खालीपन को देखोगें।

केवल एक चीज जिसे तुम अपने से अलग नहीं कर सकते, वह तुम्‍हारा साक्षित्व है। इसका अर्थ है कि तुम वही हो। तुम स्‍वयं को उससे अलग नहीं कर सकते। तुम बाकी हर चीज को स्‍वयं से अलग कर सकते हो। तुम जान सकते हो कि तुम न शरीर हो, न मन हो, लेकिन तुम यह नहीं जान सकते कि तुम अपने साक्षी नहीं हो। क्‍योंकि तुम जो भी करोगे वह साक्षी ही होगा। तुम साक्षी से स्‍वयं को अलग नहीं कर सकते। वह साक्षी ही चेतना है। और जब तक तुम उस अवस्‍था पर न पहुंच जाओ जहां से अब और पीछे जाना असंभव हो, तब तक तुम स्‍वयं तक नहीं पहुंचे।

तो ऐसे उपाय है जिनसे साधक संबंध काटता चला जाता है—पहले शरीर, फिर मन और फिर वह उस बिंदु पर पहुंचता है जहां नहीं छोड़ा जा सकता है। उपनिषदों में वे कहते है, नेति-नेति। यह बड़ी गहरी विधि है। न यह , न वह। तो साधक कहता चला जाता है, ‘यह मैं नहीं हूं, यह मैं नहीं हूं’ जब तक कि वह ऐसी जगह न पहुंच जाए जहां यह न कहा जा सके कि ‘यह मैं नहीं हूं’। केवल एक साक्षी बचता है। शुद्ध चेतना बचती है। यह शुद्ध चेतना ही प्रत्‍येक प्राणी है।

अस्‍तित्‍व में जो कुछ भी है इस चेतना का ही प्रतिफलन है, इसी की एक लहर, इसी का एक सधन रूप है। और कुछ भी नहीं है। लेकिन इसे अनुभव करना है। विश्‍लेषण सहयोगी हो सकता है। बौद्धिक समझ सहयोगी हो सकती है। लेकिन इसे अनुभव करना है कि और कुछ भी नहीं है। बस चेतना है। फिर व्‍यवहार भी ऐसा करो कि बस चेतना ही है।

मैंने एक झेन गुरु लिंची के बारे में सुना है। एक दिन वह अपनी झोपड़ी में बैठा था कि कोई उससे मिलने आया। जो आदमी मिलने आया था वह बहुत गुस्‍से में था—हो सकता है उसका अपनी पत्‍नी से, या अपने मालिक से, या किसी और से झगड़ा हुआ हो—पर वह बहुत गुस्‍से में था। उसने गुस्‍से से दरवाजा खोला, गुस्‍से से अपने जूते उतार कर फेंके और भीतर आकर बड़े आदर से वह लिंची के सामने झुका।

लिंची ने कहा, ‘पहले जाओ और जाकर दरवाजे से तथा जूतों से क्षमा मांगो।’

उस आदमी ने बड़ी हैरानी से लिंची की और देखा। वहां दूसरे लोग भी बैठे थे, वे भी सभी हंसने लगे।

लिंची बोला, ‘चुप रहो।’ और उस आदमी से बोला, अगर तुम क्षमा नहीं मांगना चाहते हो तो यहां से चले जाओ। मुझे तुमसे कुछ लेना-देना नहीं है। वह आदमी बोला, ‘दरवाजे और जूतों से माफी मांगना तो बड़ा विचित्र लगता है।’ लिंची ने कहा, ‘जब तुम उन पर गुस्‍सा निकाल रहे थे तब विचित्र नहीं लग रहा था। अब तुम्‍हें क्‍यों विचित्र लग रहा है। हर चीज में एक चेतना है। तो तुम जाओ और जब तक दरवाजा तुम्‍हें माफ न कर दे, मैं तुम्‍हें भीतर नहीं आने दूँगा।’

उस आदमी को बड़ा अजीब लगा, पर उसे जाना पडा। बाद में वह भी एक फकीर बन गया। और ज्ञान को उपलब्‍ध हो गया। जब वह ज्ञान को उपलब्‍ध हुआ तो उसने सारी कहानी सुनाई, ‘जब मैं दरवाजे के सामने खड़ा होकर माफी मांग रहा था तो मुझे बड़ा विचित्र लग रहा था। लेकिन फिर मैंने सोचा कि अगर लिंची ऐसा कहता है तो इसमें जरूर कोई बात होगी। मुझे लिंची में भरोसा था। तो मैंने सोचा चाहे यह पागलपन ही क्‍यों न हो इसे कर ही डालों। पहले-पहले तो जो मैं दरवाजे से कह रहा था, वह झूठ था। दिखावटी था। लेकिन धीरे-धीरे मैं भाव से भर गया। मैं भूल ही गया कि बहुत से लोग मुझे देख रहे है। मैं लिंची के बारे में भी भूल गया। और मेरा भाव वास्‍तविक हो गया। सच्‍चा हो गया। मुझे लगने लगा कि दरवाजा और जूता अपनी मनोदशा बदल रहे है। और जिस क्षण मुझे लगा कि दरवाजा और जूता अब खुश है, लिंची ने उसी समय आवाज दी कि अब मैं भीतर आ सकता हूं। मुझे माफ कर दिया गया है।’

यह विधि कहती है, ‘चेतना ही प्रत्‍येक प्राणी के रूप में है। अन्‍य कुछ भी नहीं है।’

इस भाव के साथ जीओं। इसके प्रति संवेदनशील होओ। और जहां भी तुम जाओ। इसी मन और ह्रदय के साथ जाओ। कि सब कुछ चेतना है। और कुछ भी नहीं है। देर अबेर संसार अपना चेहरा बदल लेगा। देर अबेर पदार्थ मिट जायेगा। और प्राणी नजर आने लगेगा। असंवेदनशीलता के कारण मुर्दा पदार्थ के संसार में रह रहे थे। वरना तो सब कुछ जीवंत है, न केवल जीवंत है, बल्‍कि चेतना है।

सब कुछ गहरे में चेतना ही है। लेकिन यदि तुम एक सिद्धांत की तरह ही इसमें विश्‍वास करते हो तो कुछ भी नहीं होगा। तुम्‍हें इसे जीवन की एक शैली बनाना पड़ेगा। जीवन का ढंग बनाना पड़ेगा। ऐसे व्‍यवहार करना पड़ेगा जैसे कि सब कुछ चेतन है। शुरू में तो यह ‘जैसे कि’ ही होगा। और तुम्‍हें पागलपन लगेगा। लेकिन अगर तुम अपने पागलपन पर डटे ही रहो और यदि तुम पागल होने को साहस कर सको तो जल्‍दी ही संसार अपने रहस्‍य प्रकट करने लगेगा।

इस अस्‍तित्‍व के रहस्‍यों में प्रवेश करने का एकमात्र उपाय विज्ञान ही नहीं है। वास्‍तव में तो यह सबसे अपरिष्‍कृत ढंग है। सबसे धीमी विधि है। संत तो एक क्षण के भीतर अस्‍तित्‍व में प्रवेश कर सकता है। विज्ञान तो उतना भीतर उतरने में लाखों वर्ष लगाएगा। उपनिषद कहते है कि संसार माया है। कि पदार्थ केवल भासता है। लेकिन विज्ञान पाँच हजार साल बाद कह सकता कि पदार्थ झूठ है। उपनिषद कहते है वह ऊर्जा चेतना है। विज्ञान को अभी पाँच हजार साल लगेंगे। धर्म एक छलांग है। विज्ञान बहुत धीमी प्रक्रिया है। बुद्धि छलांग नहीं ले सकती है। उसे तर्क से चलना पड़ता है—हर तथ्‍य पर तर्क देना पड़ता है। सिद्ध करना पड़ता है। प्रयोग करना पड़ता है। लेकिन ह्रदय छलांग ले सकता है।

याद रखो, बुद्धि के लिए एक प्रक्रिया जरूरी है। फिर निष्‍कर्ष निकलता है—पहले प्रक्रिया, फिर तर्कपूर्ण निष्पति। ह्रदय के लिए निष्‍कर्ष पहले आता है। फिर प्रक्रिया आती है। यह बिलकुल विपरीत है। यही कारण है कि संत कुछ सिद्ध नहीं कर सकते। उनके पास निष्‍कर्ष है, पर प्रक्रिया नहीं है।

शायद तुम्‍हें पता न हो, शायद तुमने ध्‍यान न दिया हो। कि संत सदा निष्‍कर्षों की बात करते हो। यदि तुम उपनिषाद पढ़ो तो तुम्‍हें निष्‍कर्ष ही मिलेंगे। जब पहली बार उपनिषदों को पश्‍चिमी भाषाओं में अनुवादित किया गया। तो पश्‍चिमी दार्शनिक समझ ही नहीं पाए, क्‍योंकि उनके पीछे कोई तर्क नहीं था। उपनिषाद कहते है। ‘’ब्रह्म है’’ और इसके लिए कोई तर्क नहीं देते। कि तुम इस निष्‍कर्ष पर पहुँचे कैसे। क्‍या प्रमाण है? किसी आधार पर तुम घोषणा करते हो कि ब्रह्म है? नहीं, उपनिषाद कुछ नहीं कहते, बस निष्‍कर्ष देते है।

ह्रदय तत्‍क्षण निष्‍कर्ष पर पहुंच जाता है। और जब निष्‍कर्ष आ जाए तो तुम प्रक्रिया शुरू कर सकते हो। दर्शन का यही अर्थ है।

संत निष्‍कर्ष देते है। और दार्शनिक उसकी प्रक्रिया बनाते है। जीसस निष्‍कर्ष पर पहुंचे और फिर संत अगस्‍तीन, थाम अकीनस ने प्रक्रिया पैदा की। वह बाद की बात है। निष्‍कर्ष पहले आ गया, अब तुम्‍हें प्रमाण जुटाने होगे। प्रमाण संत के जीवन में है। वह इसके लिए विवाद नहीं कर सकता। वह स्‍वयं ही प्रमाण है। यदि तुम उसे देख सको। यदि तुम देख न सक, तब तो कोई प्रमाण नहीं है। तब धर्म व्‍यर्थ है।

तो इन विधियों को सिद्धांत मत बनाओ। ये तो छलाँगें है—अनुभव में, निष्‍कर्ष में।

ओशो

विज्ञान भैरव तंत्र, भाग—पांच,

प्रवचन-77

साभार:-(oshosatsang.org)

विज्ञान भैरव तंत्र विधि–106 (ओशो)

Meditation

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पहली विधि:

‘हर मनुष्‍य की चेतना को अपनी ही चेतना जानो। अंत: आत्‍मचिंता को त्‍यागकर प्रत्‍येक प्राणी हो जाओ।’

‘हर मनुष्‍य की चेतना को अपनी ही चेतना जानो।’

वास्‍तव में ऐसा ही है, पर ऐसा लगता नहीं। अपनी चेतना को तुम अपनी चेतना ही समझते हो। और दूसरों की चेतना को तुम कभी अनुभव नहीं करते। अधिक से अधिक तुम यही सोचते हो कि दूसरे भी चेतन है। ऐसा तुम इसीलिए सोचते हो क्‍योंकि जब तुम चेतन हो तो तुम्‍हारे ही जैसे दूसरे प्राणी भी चेतन होने चाहिए। यह एक तार्किक निष्कर्ष है; तुम्‍हें लगता नहीं कि वे चेतन है। यह ऐसे ही है जैसे जब तुम्‍हें सिर में दर्द होता है तो तुम्‍हें उसका पता चलता है, तुम्‍हें उसका अनुभव होता है। लेकिन यदि किसी दूसरे के सिर में दर्द है तो तुम केवल सोचते हो, दूसरे के सिर-दर्द को तुम अनुभव नहीं कर सकते। तुम केवल सोचते हो कि वह जो कह रहा है सच ही होना चाहिए। और उसे तुम्‍हारे सिर-दर्द जैसा ही कुछ हो रहा होगा। लेकिन तुम उसे अनुभव नहीं कर सकते।

अनुभव केवल तभी आ सकता है जब तुम दूसरों कि चेतना के प्रति भी जागरूक हो जाओ, अन्‍यथा यह केवल तार्किक निष्‍पति मात्र ही रहेगी। तुम विश्‍वास करते हो, भरोसा करते हो कि दूसरे ईमानदारी से कुछ कह रहे है; और वे जो कह रहे है यह भरोसा करने योग्‍य है, क्‍योंकि तुम्‍हें भी ऐसे ही अनुभव होते है।

तार्किकों की एक धारा है जो कहती है कि दूसरे के बारे में कुछ भी जानना असंभव है। अधिक से अधिक माना जा सकता है, पर निश्‍चित रूप से कुछ भी जाना नहीं जा सकता। यह तुम कैसे जान सकते हो कि दूसरे को भी तुम्‍हारे जैसी ही पीड़ा हो रही है। कि दूसरों को तुम्‍हारे ही जैसे दुःख है? दूसरें सामने है पर हम उनमें प्रवेश नहीं कर सकते, हम बस उनकी परिधि को छू सकते है। उनकी अंतस चेतना अनजानी रहती है। हम अपने में ही बंद रहते है।

हमारे चारों और का संसार अनुभवगत नहीं है। बस माना हुआ है। तर्क से, विचार से मन तो कहता है कि ऐसा है, पर ह्रदय इसे छू नहीं पाता। यही कारण है कि हम दूसरों से ऐसा व्‍यवहार करते है जैसे वे व्‍यक्‍ति न हो वस्‍तुएं हो। लोगों के साथ हमारे संबंध भी ऐसे होते है। जैसे वस्‍तुओं के साथ होते है। पति अपनी पत्‍नी से ऐसा व्‍यवहार करता है जैसे वह कोई वस्‍तु हो: वह उसका मालिक है। पत्‍नी भी पति की इसी तरह मालिक होती है। जैसे वह कोई वस्‍तु हो। यदि हम दूसरों से व्‍यक्‍तियों की तरह व्‍यवहार करते तो हम उन पर मालकियत न जमाते, क्‍योंकि मालकियत केवल वस्‍तुओं पर ही की जा सकती है।

व्‍यक्‍ति का अर्थ है स्‍वतंत्रता। व्‍यक्‍ति पर मालकियत नहीं की जा सकती। यदि तुम उन पर मालकियत करने का प्रयास करोगे। तो उन्‍हें मार डालोगे। वे वस्‍तु हो जाएंगे। वास्‍तव में दूसरों से हमारे संबंध कभी भी ‘मैं-तुम’ वाले नहीं होते। गहरे में वह बस—‘मैं-यह’ (यह यानी वस्‍तु) वाले होते है। दूसरा तो बस एक वस्‍तु होता है जिसका शोषण करना है। जिसका उपयोग करना है। यही कारण है कि प्रेम असंभव होता जा रहा है। क्‍योंकि प्रेम का अर्थ है दूसरे को व्‍यक्‍ति समझना, एक चेतन-प्राणी, एक स्‍वतंत्रता समझना, अपने जितना ही मूल्‍यवान समझना।

यदि तुम ऐसे व्‍यवहार करते हो जैसे सब लोग वस्‍तु है तो तुम केंद्र हो जाते हो और दूसरे उपयोग की जाने वाली वस्‍तुएं हो जाती है। संबंध केवल उपयोगिता पर निर्भर हो जाता है। वस्‍तुओं का अपने आप में कोई मूल्‍य नहीं होता; उनका मूल्‍य यही है कि तुम उनका उपयोग कर सकते हो, वे तुम्‍हारे लिए है। तुम अपने घर से संबंधित हो सकते हो; घर तुम्‍हारे लिए है। वह एक उपयोगिता है। कार तुम्‍हारे लिए है। लेकिन पत्‍नी तुम्‍हारे लिए नहीं है। न पति तुम्‍हारे लिए है। पति अपने लिए है और पत्‍नी अपने लिए है।

एक व्‍यक्‍ति अपने लिए ही होता है। यही व्‍यक्‍ति होने का अर्थ है। और यदि तुम व्‍यक्‍ति को व्‍यक्‍ति ही रहने देते हो। और उन्‍हें वस्‍तु न बनाओ। धीरे-धीरे तुम उसे महसूस करना शुरू कर देते हो। अन्‍यथा तुम महसूस नहीं कर सकते। तुम्‍हारा संबंध बस धारणागत, बौद्धिक, मन से मन का, मस्‍तिष्‍क से मस्‍तिष्‍क का ही रहेगा। कभी ह्रदय से ह्रदय का नहीं हो पाएगा।

यह विधि कहती है, ‘हर मनुष्‍य की चेतना को अपनी ही चेतना जानो।’

यह भी वही बात है। लेकिन पहले दूसरा तुम्‍हारे लिए एक व्‍यक्‍ति की तरह होना चाहिए। वह स्‍वयं के लिए होना चाहिए। किसी शोषण या उपयोग के लिए नही, किसी साधन की तरह नहीं, उसे स्‍वयं में एक साध्‍य की तरह होना चाहिए। पहले वह व्‍यक्‍ति होना चाहिए; वह ‘तुम होना चाहिए, तुम्‍हारे जितना ही मूल्‍यवान। केवल तभी वह विधि उपयोग की जा सकती है।’

‘हर मनुष्‍य की चेतना को अपनी ही चेतना जानो।’

पहले अनुभव करो कि दूसरा भी चेतन है, तब यह हो सकता है कि तुम महसूस करो कि दूसरे में भी वही चेतना है जो तुममें है। वास्‍तव में दूसरा खो जाता है। और तुम्‍हारे तथा उसके बीच चैतन्‍य लहराता है। तुम चेतना की एक धारा के दो ध्रुव बन जाते है।

गहन प्रेम में ऐसा होता है कि दो व्‍यक्‍ति दो नहीं रहते। दोनों के बीच कुछ बहने लगता है और वे दोनों दो ध्रुव बन जाते है। दोनों के बीच में कुछ आंदोलित होने लगता है। जब यह बहाव घटित होता है तो तुम आनंद से भर उठते हो। यदि प्रेम आनंद देता है तो इसी कारण; दो व्‍यक्‍ति केवल एक क्षण के लिए अपने अहंकार खो देते है। ‘दूसरा’ खो जाता है और बस एक क्षण के लिए अद्वैत अंतस में उतर जाता है। यदि ऐसा होता है तो अहो भाव है, सौभाग्‍य है, तुम स्‍वर्ग में प्रवेश कर गए। केवल एक क्षण ओर वही क्षण तुम्‍हें रूपांतरित कर देता है।

यह विधि कहती है कि यह प्रयोग तुम सबके साथ कर सकते हो, प्रेम में तुम एक व्‍यक्‍ति के साथ हो सकते हो परंतु ध्‍यान में सबके साथ हो सकते हो। जो भी तुम्‍हारे पास आए उसमे डूब जाओ और अनुभव करो कि तुम दो जीवन नहीं हो। बस एक प्रवाहित जीवन हो। केवल गेस्‍टाल्‍ट बदलने की बात है। एक बार तुम जान जाओ कि कैसे यह होता है। एक बार तुम प्रयोग कर लो तो बहुत आसान है। शुरू-शुरू में यह असंभव लगता है। क्‍योंकि हम अपने अहंकार से बहुत जुड़े हुए है। अहंकार को छोड़ना और प्रवाह में बहना कठिन है। तो अच्‍छा होगा कि पहले तुम किसी ऐसी चीज से शुरू करो जिससे तुम भयभीत नहीं हो।

तुम वृक्ष से ज्‍यादा भयभीत नहीं होओगे। इसलिए वहां से शुरू करना सरल रहेगा। किसी वृक्ष के पास बैठकर महसूस करो कि तुम उसके साथ एक हो गए हो। कि तुम्‍हारे भीतर एक प्रवाह, एक संप्रेषण हो रहा है। तुम तिरोहित हो रहे हो। किसी बहती हुई नदी के किनारे बैठ जाओ और प्रवाह को अनुभव करो, महसूस करो कि तुम और नदी एक हो गए हो। आकाश के नीचे लेटकर महसूस करो कि तुम और आकाश एक हो गए हो। शुरू-शुरू में तो यह कल्‍पना मात्र होगा लेकिन धीर-धीरे तुम्‍हें लगने लगेगा कि तुम कल्‍पना के माध्‍यम से वास्‍तविकता को छूने लगे हो।

और फिर व्‍यक्‍तियों के साथ प्रयोग करो। शुरू में तो यह कठिन होगा। क्‍योंकि भय लगेगा। क्‍योंकि तुम वस्‍तु बनते रहे हो। तुम भयभीत हो कि यदि तुम किसी को इतने पास आने दोगे तो वह तुम्‍हें वस्‍तु बना लेगा। यही भय है तो कोई भी इतनी घनिष्‍ठता नहीं होने देता। एक अंतराल हमेशा बनाए रखना चाहता है। बहुत अधिक निकटता खतरनाक है। क्‍योंकि दूसरा तुमको वस्‍तु बना ले सकता है, वह तुम पर मालकियत करने की कोशिश कर सकता है। वह डर है तुम दूसरों को वस्‍तु बनना चाहता, कोई भी किसी का साधन बनना नहीं चाहता। कोई भी नहीं चाहता, कोई भी नहीं चाहता कि कोई उसका उपयोग करे। किसी का साधन बन जाना स्‍वयं में मूल्‍यवान न रहना। सबसे निकृष्‍ट घटना है। लेकिन हर कोई प्रयास कर रहा है। इसी कारण इतना गहन भय है कि इस विधि को व्‍यक्‍तियों के साथ शुरू करना कठिन होगा।

तो किसी नदी के साथ, किसी पहाड़ी के साथ, तारों के साथ, आकाश के साथ, वृक्षों के साथ शुरू करो। एक बार तुम जान जाओ कि जब तुम वृक्ष के साथ एक हो जाते हो तो क्‍या होता है। एक बार तुम जान जाओ कि नदी के साथ जब तुम एक हो जाते हो तो कितना आनंद उतरता है। कैसे बिना कुछ खोए तुम पूरे अस्‍तित्‍व को पा लेते हो—तब तुम इसे व्‍यक्‍तियों के साथ शुरू कर सकते हो।

और यदि एक वृक्ष के साथ, एक नदी के साथ इतना आनंद आता है तो तुम कल्‍पना भी नहीं कर सकते कि एक व्‍यक्‍ति के साथ कितना अधिक आनंद आएगा। क्‍योंकि मनुष्‍य उच्‍चतर घटना है, अधिक विकसित चेतना है। एक व्‍यक्‍ति के साथ तुम अनुभव के उच्‍चतर शिखरों पर पहुंच सकते हो। यदि तुम एक पत्‍थर के साथ भी आनंदित हो सकते हो तो एक मनुष्‍य के साथ परम आनंदित हो सकते हो।

लेकिन किसी ऐसी चीज से शुरू करो जिससे तुम अधिक भयभीत नहीं हो, या यदि कोई व्‍यक्‍ति है जिसे तुम प्रेम करते हो—कोई मित्र है, कोई प्रियसी, कोई प्रेमी—जिससे तुम भयभीत नहीं हो। जिसके साथ तुम्‍हें यह भय न हो कि वह तुम्‍हें वस्‍तु बना लेगा और जिसमें तुम अपने को मिटा सको—यदि तुम्‍हारे पास ऐसा कोई है तो यह विधि करके देखो। स्‍वयं को होश पूर्वक उसमें मिटा दो।

जब तुम होश पूर्वक स्‍वयं को किसी में मिटा देते हो वह भी स्‍वयं को तुममें मिटा देगा; जब तुम खुले होते हो और दूसरे में बहते हो तो दूसरा भी तुममें बहने लगता है और एक गहन मिलन, एक संवाद घटित होता है। दो ऊर्जाऐं एक दूसरे में समाहित हो जाती है। उस स्‍थिति में कोई अहंकार, कोई व्‍यक्‍ति नहीं बचता,बस चेतना बचती है। और यदि यह एक व्‍यक्‍ति के साथ संभव है तो यह पूरे ब्रह्मांड के साथ संभव है। जिसे संतों ने परमानंद कहा है। समाधि कहा है, वह पुरूष ओर प्रकृति के बीच गहन प्रेम की घटना है।

‘हर मनुष्‍य की चेतना को अपनी ही चेतना जानो। अंत: आत्‍मचिंता को त्‍याग कर प्रत्‍येक प्राणी हो जाओ।’

हम सदा अपने से मतलब रखते है। जब हम प्रेम में भी होते है तो अपने में ही उत्‍सुक होते है। यही कारण है कि प्रेम एक विषाद बन जाता है। प्रेम स्‍वर्ग बन सकता है। लेकिन नर्क बन जाता है। क्‍योंकि प्रेमी भी अपने ही स्‍वार्थों में लगे होते है। दूसरे को इसलिए प्रेम किया जाता है क्‍योंकि वह तुम्‍हें सुख देता है। क्‍योंकि उसके साथ तुम्‍हें अच्‍छा लगता है। लेकिन दूसरे को तुमने ऐसे प्रेम नहीं किया। वह अपने आप में ही मूल्‍यवान हो। मूल्‍य तुम्‍हारी प्रसन्‍नता से आता है। एक तरह से तुम परितुष्‍ट होते हो। संतुष्‍ट होते हो। इसलिए दूसरा महत्‍वपूर्ण है। यह भी दूसरे का उपयोग करना ही है।

आत्‍मचिंता का अर्थ है कि दूसरे का शोषण। और धार्मिक चेतना केवल तभी उतर सकती है जब स्‍वयं की चिंता खो जाए। क्‍योंकि तब तुम अ-शोषक हो जाते हो। अस्‍तित्‍व के साथ तुम्‍हारा संबंध शोषण का नहीं रहता। बल्‍कि बांटने का, आनंद का रह जाता है। न तुम किसी का उपयोग कर रहे हो, न कोई तुम्‍हारा उपयोग कर रहा हे। बस होने का उत्‍सव रह जाता है।

लेकिन इस आत्‍मचिंता को दूर करना है—और वह बहुत गहरे में जमी हुई है। यह इतनी गहरी है कि तुम्‍हें उसका पता नहीं है। एक उपनिषद में कहा गया है कि पति अपनी पत्‍नी को पत्‍नी नहीं, बल्‍कि अपने लिए प्रेम करता है। और मां अपने बेटे को बेटे के लिए नहीं, बल्‍कि अपने लिए प्रेम करती है। स्‍वार्थ की जड़ें इतनी गहरी है कि तुम जो भी करते हो अपने ही लिए करते हो। इसका अर्थ है कि तुम सदा अहंकार का ही पोषण कर रहे हो। तुम सदा अहंकार को, एक झूठे केंद्र को पोषित कर रहे हो। जो कि तुम्‍हारे और अस्‍तित्‍व के बीच बाधा बन गया है।

स्‍वयं की चिंता छोड़ दो। यदि कभी कुछ क्षण के लिए भी तुम स्‍वयं की चिंता छोड़ सको और दूसरे से, दूसरे के अस्‍तित्‍व से जुड़ सको तो तुम एक भिन्‍न वास्‍तविकता में, एक भिन्‍न आयाम में प्रवेश कर जाओगे। इसीलिए सेवा, प्रेम, करूणा पर इतना बल दिया जाता है। क्‍योंकि करूणा, प्रेम, सेवा का अर्थ है दूसरे से संबंध, अपने से नहीं।

लेकिन देखो, मनुष्‍य का मन इतना चालाक है कि उसने सेवा, करूणा और प्रेम को भी स्‍वार्थ में बदल दिया है। ईसाई मिशनरी सेवा करता है और अपनी सेवाओं में ईमानदार होता है। वास्‍तव में कोई और इतनी गहनता और लगन से सेवा नहीं कर सकता जितना कि एक ईसाई मिशनरी। कोई हिंदू, कोई मुसलमान ऐसा नहीं कर सकता। क्‍योंकि जीसस ने सेवा पर बहुत बल दिया है। एक ईसाई मिशनरी गरीबों की, बीमारों की, रोगियों कि सेवा कर रहा है। लेकिन गहरे में उसे अपने से ही मतलब है। उन लोगों से कोई लेना देना नहीं है। यह सेवा बस स्‍वर्ग पहुंचने का एक उपाय है। उसे उनसे कुछ भी लेना-देना नहीं है। बस अपने स्‍वार्थ से मतलब है। सेवा से श्रेष्‍ठ जीवन पा सकता है। इसलिए वह सेवा कर रहा है। लेकिन वह मूल बात ही चूक जाता है। क्‍योंकि सेवा का अभिप्राय है दूसरे को महत्‍व देना, दूसरा केंद्र है और तुम परिधि बन गए।

कभी ऐसा करके देखो। किसी को केंद्र बना लो। फिर उसका सुख तुम्‍हारा सुख हो जाता है। उसका दुःख तुम्‍हारा दुःख हो जाता है। जो भी होता है। उसको होता है लेकिन तुम तक प्रवाहित होता है। वह केंद्र है। यदि एक बार बस एक बार भी तुम अनुभव कर सको कि कोई और तुम्‍हारा केंद्र है। और तुम उसकी परिधि बन गए हो, तो तुम एक भिन्‍न अस्‍तित्‍व में अनुभव के एक भिन्‍न आयाम में प्रवेश कर गए। क्‍योंकि उस क्षण तुम एक गहन आनंद अनुभव करोगे। जो पहले कभी नहीं जाना होगा। पहले कभी महसूस न किया होगा। तुम स्‍वर्ग में प्रवेश कर गए।

ऐसा क्‍यों होता है? ऐसा इसलिए होता है, क्‍योंकि अहंकार दुःख का मूल है। यदि तुम उसे भूल सको, उसे मिटा सको तो सभी दुःख उसी के साथ मिट जाते है।

‘हर मनुष्‍य की चेतना को अपनी ही चेतना जानो। अत: आत्‍मचिंता को त्‍यागकर प्रत्‍येक प्राणी हो जाओ।’

वृक्ष बन जाओ, नदी बन जाओ, पति बन जाओ। बच्‍चा बन जाओ। मां बन जाओ, मित्र बन जाओ—इसका जीवन के हर क्षण में अभ्‍यास किया जा सकता है। लेकिन शुरू में यह कठिन होगा। तो कम से कम इसे एक घंटा रोज करो। उस एक घंटे में तुम्‍हारे करीब से जो भी गूजरें, वही बन जाओ। तुम सोचोगे कि यह कैसे हो सकता है। इसे जानने का और कोई उपाय नहीं है। तुम्‍हें करके ही देखना पड़ेगा।

किसी वृक्ष के साथ बैठो और महसूस करो कि तुम वृक्ष बन गए हो। और जब हवा चलती है तो और पूरा वृक्ष डोलता है, झूमता है, तो उस कंपन को अपने भीतर महसूस करो। जब सूरज उगता है और पूरा वृक्ष जीवंत हो जाता है, तो उस जीवंतता को अपने भीतर महसूस करो। जब वर्षा होती है और पूरा वृक्ष संतुष्‍ट और तृप्‍त हो जाता है, एक लंबी प्‍यास, एक लंबी प्रतीक्षा समाप्‍त हो जाती है। और वृक्ष परितृप्‍त हो जाता है, तो वृक्ष के साथ तृप्‍त और संतुष्‍ट अनुभव करो। और जब तुम वृक्ष के सूक्ष्‍म भाव-भंगिमाओं के प्रति सजग हो जाओगे।

तुम उस वृक्ष को अभी तक कई वर्षों से देखते रहे हो, पर तुम उसके भावों को नहीं जान पाए। कभी वह प्रसन्‍न होता है; कभी दुःखी होता है; कभी उदास, संतप्‍त, चिंतित, व्‍यथित होता है; कभी बहुत आनंदित और अहोभाव से भरा होता है, उसके भाव होते है। वृक्ष जीवंत है और महसूस करता है। और यदि तुम उसके साथ एक हो जाओ तो तुम भी वे अनुभव ले सकते हो। तब तुम अनुभव कर पाओगे कि वृक्ष जवान है या बूढ़ा। वृक्ष अपने जीवन से संतुष्‍ट है या नहीं। वृक्ष अस्‍तित्‍व के साथ प्रेम में है या नहीं। या कि विरूद्ध है, विपरीत है। क्रोधित है; वृक्ष हिंसक है या उसमे गहन करूणा है। जैसे तुम हर क्षण बदल रह हो वैसे ही वृक्ष भी हर क्षण बदल रहा है। यदि तुम उसके साथ गहन आत्‍मीयता अनुभव कर सको, जिसे समानुभूति कहते है….।

समानुभूति का अर्थ है तुम किसी के साथ इतनी सहानुभूति से भर जाओ। कि उसके साथ ही हो जाओ। वृक्ष के भाव तुम्‍हारे भाव हो जाएं। और यदि वह गहरे से गहरा होता चला जाए तो तुम वृक्ष से बात भी कर सकते हो। एक बार तुम्‍हें उसकी भाव दशाओं का पता लगना शुरू हो जाए तो तुम उसकी भाषा समझना शुरू कर सकते हो। और वृक्ष अपने मन की बातें तुम्‍हें बताने लगेगा। अपने सुख-अपने दुख, वह तुम्‍हारे साथ बांटने लगेगा।

और यह पूरे जगत के साथ हो सकता है।

हर रोज कम से कम एक घंटे के लिए किसी भी चीज के साथ समानुभूति में चले जाओ। शुरू में तो तुम्‍हें लगेगा तुम पागल हो रहे हो। तुम सोचोगे, ‘मैं किस तरह की मूर्खता कर रहा हूं?’ तुम चारों और देखोगें और महसूस करोगे कि यदि कोई देख ले या किसी को पता लग जाए तो वह सोचेगा कि तुम पागल हो गए हो। लेकिन केवल शुरू में ही ऐसा होगा। एक बार समानुभूति के इस जगत में तुम प्रवेश कर जाओ तो सारा संसार तुम्‍हें पागल नजर आयेगा। वे लोग बेकार में ही इतना चूक रहे है। क्‍योंकि वे बंद है। वे जीवन को अपने भीतर प्रवेश नहीं करने देते। और जीवन तुममें केवल तभी प्रवेश कर सकता है जब कई-कई मार्गों से, कई-कई आयामों से तुम जीवन में प्रवेश करो। कम से कम एक घंटा हर रोज समानुभूति को साधो।

प्रांरभ में हर धर्म की प्रार्थना का यही अर्थ था। प्रार्थना का अर्थ था ब्रह्मांड के साथ होना, ब्रह्मांड के साथ गहन संवाद में होना। प्रार्थना का अर्थ है पूर्णता। कभी तुम परमात्‍मा से नाराज हो सकते हो। कभी धन्‍यवाद दे सकते हो, पर एक बात पक्‍की है कि तुम संवाद में हो। परमात्‍मा केवल एक बौद्धिक धारणा नहीं रही। एक गहन और घनिष्‍ठ संबंध हो गया। प्रार्थना का यही अर्थ है।

लेकिन हमारी प्रार्थनाएं सड़ गल गई है। क्‍योंकि हमें तो यह भी नहीं पता कि प्राणियों से कैसे जुड़े। तुम किसी प्राणी से नहीं जुड़ सकते। तुम्‍हारे लिए यह असंभव है। यदि तुम किसी वृक्ष से नहीं जुड़ सकते तो पूरे अस्‍तित्‍व के साथ कैसे जुड़ सकते हो। और यदि एक वृक्ष से बात नहीं कर सकते, तुम्‍हें पागलपन लगता है। तो परमात्‍मा से बात करना और भी ज्‍यादा पागलपन लगेगा।

मन की प्रार्थना पूर्ण दशा के लिए हर रोज एक घंटा अलग से निकाल लो और अपनी प्रार्थना को शब्‍दिक मत बनाओ। उसमे भाव भरो। खोपड़ी से बोलने की बजाय अनुभव करो। जाओ और वृक्ष को छुओ। उसे गले लगाओ। चूमो; अपनी आंखें बंद कर लो और वृक्ष के साथ ऐसे हो जाओ जैसे तुम अपनी प्रेमिका के साथ हो। उसे महसूस करो। और शीध्र ही तुम्‍हें एक गहन बोध होगा कि अपने आप को छोड़ कर दूसरा बन जाने का क्‍या अर्थ है।

‘हर मनुष्‍य की चेतना को अपनी ही चेतना जानो। अत: आत्‍मचिंता को त्‍यागकर प्रत्‍येक प्राणी हो जाओ।’

ओशो

विज्ञान भैरव तंत्र, भाग—पांच,

प्रवचन-77

साभार:-(oshosatsang.org)

विज्ञान भैरव तंत्र विधि–105 (ओशो)

Soul

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चौथी विधि

‘सत्‍य में रूप अविभक्‍त है। सर्वव्‍यापी आत्‍मा तथा तुम्‍हारा अपना रूप अविभक्‍त है। दोनों को इसी चेतना से निर्मित जानो।’

‘सत्‍य में रूप अविभक्‍त है।’

वे विभक्‍ति दिखाई पड़ते है, लेकिन हर रूप दूसरे रूपों के साथ संबंधित है। वह दूसरों के साथ अस्‍तित्‍व में है—बल्‍कि यह कहना अधिक सही होगा कि वह दूसरे रूपों के साथ सह-अस्‍तित्‍व में है—बल्‍कि यह कहना अधिक सही होगा कि वह दूसरे रूपों के साथ सह-अस्‍तित्‍व में है। हमारी वास्‍तविकता एक सह सही अस्‍तित्‍व है। वास्‍तव में यह एक पारस्‍परिक वास्‍तविकता है। पारस्‍परिक आत्मीय ता है। उदाहरण के लिए, जरा सोचो कि तुम इस पृथ्‍वी पर अकेले हो। तुम क्‍या होओगे? पूरी मनुष्‍यता समाप्‍त हो गई हो, तीसरे विश्‍वयुद्ध के बाद तुम्‍हीं अकेले बचे हो—संसार में अकेले, इस विशाल पृथ्‍वी पर अकेले। तुम कौन होओगे?

पहली बात तो यह है कि अपने अकेले होने की कल्‍पना करना ही असंभव है। मैं कहता हूं, अपने अकेले होने की कल्‍पना करना ही असंभव है। तुम बार-बार कोशिश करोगे और पाओगे कि कोई साथ ही खड़ा है—तुम्‍हारी पत्‍नी, तुम्‍हारे बच्‍चे, तुम्‍हारे मित्र—क्‍योंकि तुम कल्‍पना में भी अकेले नहीं रह सकते। तुम दूसरों के साथ ही हो। वे तुम्‍हें अस्‍तित्‍व देते है। वे तुम्‍हें सहयोग देते है। तुम उन्‍हें सहयोग देते हो और वे तुम्‍हें सहयोग देते है।

तुम कौन होओगे। तुम अच्‍छे आदमी होओगे या बुरे आदमी होओगे? कुछ भी नहीं कहा जा सकता। क्‍योंकि अच्‍छाई और बुराई सापेक्ष होती है। तुम सुंदर होओगे। कि कुरूप होओगे? कुछ भी नहीं कहा जा सकता। तुम पुरूष होओगे या स्‍त्री होओगे? कुछ भी नहीं कहा जा सकता, क्‍योंकि तुम जो भी हो, दूसरे के संबंध में हो। तुम बुद्धिमान होओगे या मूढ़?

धीरे-धीरे तुम पाओगे कि सब रूप समाप्‍त हो गए। और उन रूपों के समाप्‍त होने के साथ तुम्‍हारे भीतर के भी सब रूप समाप्‍त हो गए है। न तुम मूर्ख हो न बुद्धिमान, न अच्‍छे न बुरे, न कुरूप न सुंदर, न पुरूष न स्‍त्री। फिर तुम क्‍या होओगे। यदि तुम सब रूपों को हटाते चलो तो जल्‍दी ही तुम पाओगे कि कुछ भी नहीं बचा। हम रूपों को अलग-अलग देखते है। लेकिन वे अलग है नहीं, हर रूप दूसरों के साथ जुड़ा है। रूप एक श्रंखला में होते है।

यह सूत्र कहता है: ‘सत्‍य में रूप अविभक्‍त है। सर्वव्‍यापी आत्‍मा तथा तुम्‍हारा अपना रूप अविभक्‍त है।’

तुम्‍हारा रूप और संपूर्ण अस्‍तित्‍व का रूप भी अविभक्‍त है। तुम उसके साथ एक हो। तुम उसके बिना नहीं हो सकते। और दूसरी बात भी सच है, लेकिन उसे समझना थोड़ा कठिन है: जगत भी तुम्‍हारे बिना नहीं हो सकता। जगत तुम्‍हारे बिना नहीं हो सकता। जैसे की तुम जगत के बिना नहीं हो सकते। तुम अलग-अलग रूपों में सदैव रहे हो और अलग-अलग रूपों में सदैव रहोगे। लेकिन तुम रहोगे ही। तुम इस जगत के एक अभिन्‍न अंग हो। तुम बाहरी नहीं हो, कोई अजनबी नहीं हो, कोई परदेशी नहीं हो। तुम एक अंतरंग, अभिन्‍न अंग हो। और जगत तुम्‍हें खो नहीं सकता। क्‍योंकि यदि वह तुम्‍हें खोता है तो स्‍वयं भी खो देगा। रूप विभक्‍त नहीं है। अविभक्‍त है। वे एक है। केवल आभास ही सीमाएं और परिधियां खड़ी करते है।

यदि तुम इस पर मनन करो। इसमें प्रवेश करो, तो यह एक अनुभूति बन सकती है। यह एक अनुभूति बन जाती है। कोई सिद्धांत नहीं, कोई विचार नहीं, बल्‍कि एक अनुभूति है, हां, मैं जगत के साथ एक हूं और जगत मेरे साथ एक है।

यही जीसस यहूदियों से कह रहे थे। लेकिन वह नाराज हुए,क्‍योंकि जीसस ने कहा, ‘मैं और स्‍वर्ग में मेरे पिता एक ही है।’ यहूदी नजारा हुए। जीसस क्‍या दावा कर रहे थे? क्‍या वह यह दावा कर रहे थे कि वह और परमात्‍मा एक ही है? यह तो ईश्‍वर विरोधी बात हो गई। उन्‍हें दंड मिलना चाहिए। लेकिन वह तो मात्र एक विधि दे रहे थे। और कुछ भी नहीं। वह मात्र यह विधि दे रहे थे कि यह विभक्‍त नहीं है, कि तुम और पूर्ण एक ही हो–‘मैं और स्‍वर्ग में मेरे पिता एक ही है।’ लेकिन यह कोई दावा नहीं था, यह मात्र एक विधि थी।

और जब जीसस ने कहा कि ‘मैं और मेरे पिता एक ही है, तो उनका यह अर्थ नहीं था। कि तुम और पिता परमात्‍मा अलग-अलग हो। जब उन्‍होंने कहा, ‘मैं तो उसमें हर ‘मैं’ आ गया। जहां भी ‘मैं’ है वह उस मैं और परमात्‍मा एक है। लेकिन इसे गलत समझा गया। और यहूदी तथा ईसाइयों, दोनों ने ही इसे गलत समझा। ईसाइयों ने भी गलत समझा। क्‍योंकि वे कहते है कि जीसस परमात्‍मा के इकलौते बेटे है। परमात्‍मा के इकलौते बेटे ताकि कोई और यह दावा न कर सके कि वह भी परमात्‍मा का बेटा है।’

मैं एक बड़ी मजेदार पुस्‍तक पढ़ रहा था। उसका शीर्षक है, ”तीन क्राइस्‍ट।” एक पागलख़ाने में तीन आदमी थे और तीनों ही यह दावा करते थे कि वे क्राइस्‍ट है। यह एक सच्‍ची घटना है। कोई कहानी नहीं है। तो एक मनोविश्‍लेषक ने तीनों को अध्‍ययन किया। फिर उसके मन में एक विचार आया कि यह उन तीनों को आपस में मिलवाया जाए तो देखें क्‍या होता है। बड़ी दिल्‍लगी रहेगी। वे एक दूसरे को कैसे परिचय देंगे और क्‍या उनकी प्रतिक्रिया होगी। तो उसने उन तीनों को इकट्ठा किया और आपस में परिचय करने के लिए एक कमरे में छोड़ दिया।

पहला बोला, ”मैं इकलौता बेटा हूं, जीसस क्राइस्‍ट।”

दूसरा हंसा और उसने अपने मन में सोचा कि यह जरूर कोई पागल होगा। वह बोला: ”तुम कैसे हो सकते हो। मेरी और देखो। परमात्‍मा का बेटा यहां है।”

तीसरे ने सोचा कि दोनों मूर्ख है। कि दोनों पागल हो गए है। उसने कहा, ”तुम क्‍या बात करते हो। मेरी और देखो। परमात्‍मा का बेटा यहां है।”

फिर उस मनोविश्‍लेषक ने उनसे अलग-अलग पूछा। ”तुम्‍हारी प्रतिक्रिया क्‍या है।”

उन तीनों ने कहा, ”बाकी दोनों पागल हो गये है।”

और ऐसा केवल पागलों के साथ ही नहीं है। यदि तुम ईसाइयों से पूछो कि वे कृष्‍ण के विषय में क्‍या सोचते है तो वे उसे परमात्‍मा समझते है। तो वे कहेंगे कि उस पार से केवल एक ही आगमन हुआ है। वे है जीसस क्राइस्‍ट। इतिहास में केवल एक ही बार परमात्‍मा संसार में उतरा है। और जीसस क्राइस्ट के रूप में। कृष्‍ण भले है, महान है, लेकिन परमात्‍मा नहीं है।

यदि तुम हिंदुओं से पूछो, वे जीसस पर हंसेंगे। वही पागलपन चलता है। और वास्‍तविकता यह है कि सब परमात्‍मा के बेटे है–सब। इससे अन्‍यथा संभव ही नहीं है। तुम एक ही स्‍त्रोत से आते हो। चाहे तुम जीसस हो, कि कृष्‍ण हो, कि अ, ब, स कुछ भी हो, या कुछ भी नहीं हो, तुम एक ही स्त्रोत से आते हो। और हर ”मैं” हर चेतना, हर क्षण दिव्‍य से संबंधित है। जीसस केवल एक विधि दे रहे थे। वह गलत समझे गए।

यह विधि वही है: ”सत्‍य में रूप अविभक्‍त है। सर्वव्‍यापी आत्‍मा तथा तुम्‍हारा अपना रूप अविभक्‍त है। दोनों को इसी चेतना से निर्मित जानो।”

न केवल यह अनुभव करो कि तुम इस चेतना से बने हो। बल्‍कि अपने आस-पास की हर चीज को इसी चेतना से निर्मित जानो। क्‍योंकि यह अनुभव करना तो बड़ा सरल है कि तुम इस चेतना से बने हो। इससे तुम्‍हें बड़े अंहकार का भाव हो सकता है। अहंकार को इससे बड़ी तृप्‍ति मिल सकती है। लेकिन अनुभव करो कि दूसरा भी इसी चेतना से बना है। फिर यह एक विनम्रता बन जाती है।

जब सब कुछ दिव्‍य है तो तुम्‍हारा मन अहंकारी नहीं हो सकता। जब सब कुछ दिव्‍य है तो तुम विनम्र हो जाते हो। फिर तुम्‍हारे कुछ होने का कुछ श्रेष्‍ठ होने का प्रश्‍न नहीं रह जाता, फिर पूरा अस्‍तित्‍व दिव्‍य हो जाता है। और जहां भी तुम देखते हो, दिव्‍य को ही देखते हो। देखने वाला दृष्‍टा और देखा गया दृश्‍य दोनों दिव्‍य है। क्‍योंकि रूप विभक्‍त नहीं है। सब रूपों के पीछे अरूप छिपा हुआ है।

ओशो

विज्ञान भैरव तंत्र, भाग—पांच,

प्रवचन-75

साभार:-(oshosatsang.org)

विज्ञान भैरव तंत्र विधि–104 (ओशो)

meditation

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तीसरी विधि:

‘हे शक्‍ति, प्रत्‍येक आभास सीमित है, सर्वशक्‍तिमान में विलीन हो रहा है।’

जो कुछ भी हम देखते है सीमित है, जो कुछ भी हम अनुभव करते है सीमित है। सभी आभास सीमित है। लेकिन यदि तुम जाग जाओ तो हर सीमित चीज असीम में विलीन हो रही है। आकाश की और देखो। तुम केवल उसका सीमित भाग देख पाओगे। इसलिए नहीं कि आकाश सीमित है, बल्‍कि इसलिए कि तुम्‍हारी आंखें सीमित है। तुम्‍हारा अवधान सीमित है। लेकिन यदि तुम पहचान सको कि यह सीमा अवधान के कारण है, आंखों के कारण है, आकाश के सीमित होने के कारण नहीं है तो फिर तुम देखोगें कि सीमाएं असीम में विलीन हो रही है। जो कुछ भी हम देखते है वह हमारी दृष्‍टि के कारण ही सीमित हो जाता है। वरना तो अस्‍तित्‍व असीम है। वरना तो सब चीजें एक दूसरे में विलीन हो रही है। हर चीज अपनी सीमाएं खो रही है। हर क्षण लहरें महासागर में विलीन हो रही है। और न किसी को कोई अंत है, न आदि। सभी कुछ शेष सब कुछ भी है।

सीमा हमारे द्वारा आरोपित की गई है। यह हमारे कारण है, क्‍योंकि हम अनंत को देख नहीं पाते, इसलिए उसको विभाजित कर देते है। ऐसा हमने हर चीज के साथ किया है। तुम अपने घर के आस-पास बाड़ लगा लेते हो। और कहते हो कि ‘यह जमीन मेरी है, और दूसरी और किसी और की जमीन है।’ लेकिन गहरे में तुम्‍हारी और तुम्‍हारे पड़ोसी की जमीन एक ही है। वह बाड़ केवल तुम्‍हारे ही कारण है। जमीन बंटी हुई नहीं है। पड़ोसी और तुम बंटे हुए हो अपने-अपने मन के कारण।

देश बंटे हुए है तुम्‍हारे मन के कारण। कहीं भारत समाप्‍त होता है और पाकिस्‍तान शुरू होता है। लेकिन जहां अब पाकिस्‍तान है कुछ वर्ष पहले वहां भारत था। उस समय भारत पाकिस्‍तान की आज की सीमाओं तक फैला हुआ था। लेकिन अब पाकिस्‍तान बंट गया, सीमा आ गई लेकिन जमीन वही है।

मैंने एक कहानी सुनी है जो तब घटी जब भारत और पाकिस्‍तान में बंटवारा हुआ। भारत और पाकिस्‍तान की सीमा पर ही एक पागलखाना था। राजनीतिज्ञों को कोई बहुत चिंता नहीं थी कि पागलखाना कहां जाए। भारत में कि पाकिस्‍तान में। लेकिन सुपरिनटैंडैंट को चिंता थी। तो उसने पूछा कि पागलखाना कहां रहेगा। भारत में या पाकिस्‍तान में। दिल्‍ली से किसी ने उसे सूचना भेजी कि वह वहां रहने वाले पागलों से ही पूछ ले और मतदान ले-ले कि वे कहां जाना चाहते है।

सुपरिन्‍टेंड़ेंट अकेला आदमी था जो पागल नहीं था और उसने उनको समझाने की कोशिश कि। उसने सब पागलों को इकट्ठा किया और उन्‍हें कहां, ‘अब यह तुम्‍हारे ऊपर है, यदि तुम पाकिस्‍तान में जाना चाहते हो तो पाकिस्‍तान में जा सकते हो।’

लेकिन पागलों ने कहां, ‘हम यही रहना चाहते है। हम कहीं भी नहीं जाना चाहते।’ उसने उन्‍हें समझाने की बहुत कोशिश की। उसने कहां, ‘तुम यहीं रहोगे। उसकी चिंता मत करो। तुम यहीं रहोगे लेकिन तुम जाना कहां चाहते हो।’ वे पागल बोले, ‘लोग कहते है कि हम पागल है, पर तुम तो और भी पागल लगते हो। तुम कहते हो कि तुम भी यहीं रहोगे और हम भी यहीं रहेंगे। कहीं जाने की चिता नहीं है।’

सुपरिन्‍टेंड़ेंट तो मुश्‍किल में पड़ गया कि इन्‍हें पूरी बात किस तरह समझाई जाए। एक ही उपाय था। उसने एक दीवार खड़ी कर दी और पागल खाने के दो बराबर हिस्‍सों में बांट दिया। एक हिस्‍सा पाकिस्‍तान हो गया एक हिस्‍सा भारत बन गया। और कहते है कि कई बार पाकिस्‍तान वाले पागल खाने के कुछ पागल दीवार पर चढ़ आते है। और भारत वाले पागल भी दीवार कूद जाते है और वे अभी भी हैरान है कि क्‍या हो गया है। हम है उसी जगह पर और तुम पाकिस्‍तान चले गए हो हम भारत चले गए है। और गया कोई कहीं भी नहीं।

वे पागल समझ ही नहीं सकते, वे कभी भी नहीं समझ पाएंगे, क्‍योंकि दिल्‍ली और कराची में और भी बड़े पागल है।

हम बांटते चले जाते है। जीवन अस्‍तित्‍व बंटा हुआ नहीं है। सभी सीमाएं मनुष्‍य की बनाई हुई है। वे उपयोगी है यदि तुम उसके पीछे पागल न हो जाओ और यदि तुम्‍हें पता हो कि वे बस कामचलाऊ है, मनुष्‍य की बनाई हुई है। मात्र उपयोगिता के लिए है; असली नहीं है, यथार्थ नहीं है, बस मान्‍यता मात्र है, कि वे उपयोगी तो है, लेकिन उसमें कोई सच्‍चाई नहीं है।

‘हे शक्‍ति, प्रत्‍येक आभास सीमित है, सर्वशक्‍तिमान में विलीन हो रहा है।’

तो तुम जब भी कुछ सीमित देखो तो हमेशा याद रखो कि सीमा के पार वह विलीन हो रहा है, सीमा तिरोहित हो रही है। हमेशा पार और पार देखो।

इसे तुम एक ध्‍यान बना सकते हो। किसी वृक्ष के नीचे बैठ जाओ और देखो, और जो भी तुम्‍हारी दृष्‍टि में आए, उसके पार जाओ, पार जाओ, कहीं भी रूको मत। बस यह खोजों कि यह वृक्ष कहां समाप्‍त हो रहा है। यह वृक्ष तुम्‍हारे बग़ीचे में यह छोटा सा वृक्ष पूरा अस्‍तित्‍व अपने में समाहित किए हुए है। हर क्षण यह अस्‍तित्‍व में विलीन हो रहा है।

यदि कल सूर्य न निकले तो यह वृक्ष मर जाएगा। क्‍योंकि इस वृक्ष का जीवन सूर्य के जीवन के साथ जुड़ा हुआ है। उनके बीच दूरी बड़ी है। सूर्य की किरणें पृथ्‍वी तक पहुंचने में समय लगता है। दस मिनट लगते है। दस मिनट बहुत लंबा समय है। क्‍योंकि प्रकाश बहुत तेज गति से चलता है। प्रकाश एक सेकेंड में एक लाख छियासी हजार मील चलता है। और सूर्य से इस वृक्ष तक प्रकाश पहुंचने में दस मिनट लगते है। दूरी बड़ी है, विशाल है। लेकिन यदि सूर्य न रहे तो वृक्ष तत्‍क्षण मर जायेगा। वे दोनों एक साथ है। वृक्ष हर क्षण सूर्य में विलीन हो रहा है। और सूर्य हर क्षण वृक्ष में विलीन हो रहा है। हर क्षण सूर्य वृक्ष में प्रवेश कर रहा है। उसे जीवंत कर रहा है।

दूसरी बात, जो अभी विज्ञान को ज्ञान नहीं है, लेकिन धर्म कहता है कि एक और घटना घट रही है। क्‍योंकि प्रति संवेदन के बिना जीवन में कुछ भी नहीं रह सकता। जीवन में सदा एक प्रति संवेदन होता है। और ऊर्जा बराबर हो जाती है। वृक्ष भी सूर्य को जीवन दे रहा होगा। वे एक ही है। फिर वृक्ष समाप्‍त हो जाता है सीमा समाप्‍त हो जाती है।

जहां भी तुम देखो, उसके पार देखो, और कहीं भी रूको मत। देखते जाओ। देखते जाओ, जब तक कि तुम्‍हारा मन न खो जाए। जब तक तुम अपने सारे सीमित आकार न खो बैठो। अचानक तुम प्रकाशमान हो जाओगे।

पूरा अस्‍तित्‍व एक है, वह एकता ही लक्ष्‍य है। और अचानक मन आकार से सीमा से परिधि से थक जाता है। और जैसे-जैसे तुम पार जाने के प्रयत्‍न में लगे रहते हो, पार और पार जाते चले जाते हो। मन छूट जाता है। अचानक मन गिर जाता है। और तुम अस्‍तित्‍व को विराट अद्वैत की तरह देखते हो। सब कुछ एक दूसरे में समाहित हो रहा है। सब कुछ एक दूसरे में परिवर्तित हो रहा है।

‘हे शक्‍ति, प्रत्‍येक आभास सीमित है, सर्वशक्‍तिमान में विलीन हो रहा है।’

इसे तुम एक ध्‍यान बना ले सकते हो। एक घंटे के लिए बैठ जाओ और इसे करके देखो। कहीं कोई सीमा मत बनाओ। जो भी सीमा हो उसके पार खोजने का प्रयास करो और चले जाओ। जल्‍दी ही मन थक जाता है। क्‍योंकि मन असीम के साथ नहीं चल सकता। मन केवल सीमित से ही जुड़ सकता है। असीम के साथ मन नहीं जुड़ सकता; मन ऊब जाता है। थक जाता है। कहता है, ‘बहुत हुआ,अब बस करो।’ लेकिन रूको मत, चलते जाओ। एक क्षण आएगा जब मन पीछे छूट जाता है। और केवल चेतना ही बचती है। उस क्षण में तुम्‍हें अखंडता का अद्वैत का ज्ञान होगा। यही लक्ष्‍य है। यह चेतना का सर्वोच्‍च शिखर है। और मनुष्‍य के मन के लिए यह परम आनंद है, गहनत्‍म समाधि है।

ओशो

विज्ञान भैरव तंत्र, भाग—पांच,

प्रवचन-75

साभार:-(oshosatsang.org)

विज्ञान भैरव तंत्र विधि–103 (ओशो)

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दूसरी विधि:

अपनी संपूर्ण चेतना से कामना के, जानने के आरंभ में ही जानो।

इस विधि के संबंध में मूल बात है ‘संपूर्ण चेतना’। यदि तुम किसी भी चीज पर अपनी संपूर्ण चेतना लगा दो तो वह एक रूपांतरणकारी शक्‍ति बन जाएगी। जब भी तुम संपूर्ण होते हो, किसी चीज में भी, तभी रूपांतरण होता है। लेकिन यह कठिन है। क्‍योंकि हम जहां भी है, बस आंशिक ही है। समग्रता में नहीं है।

यहां तुम मुझे सुन रहे हो। यह सुनना ही रूपांतरण हो सकता है। यदि तुम समग्रता से सुनो, इस क्षण में अभी और यहीं, यदि सुनना तुम्‍हारी समग्रता हो, तो वह सुनना एक ध्‍यान बन जाएगा। तुम आनंद के अलग ही आयाम में, एक दूसरी ही वास्‍तविकता में प्रवेश कर जाओगे।

लेकिन तुम समग्र नहीं हो। मनुष्‍य के मन के साथ यही मुश्‍किल है, वह सदैव आंशिक ही होता है। एक हिस्‍सा सुन रहा है। बाकी हिस्‍से शायद कहीं और हो, या शायद सोए ही हुए हों, या सोच रहे हो कि क्‍या कहा जा रहा है। या भीतर विवाद कर रहे हो। उसमें एक विभाजन पैदा होता है और विभाजन से ऊर्जा का अपव्‍यय होता है।

तो जब भी कुछ करो, उसमे अपने पूरे प्राण डाल दो। जब तुम कुछ भी नहीं बचाते, छोटा सा हिस्‍सा भी अलग नहीं रहता, जब तुम एक समग्र, संपूर्ण छलांग ले लेते हो। तुम्‍हारे पूरे प्राण उसमें लग जाते है। तभी कोई कृत्‍य ध्‍यान पूर्ण होता है।

कहते है एक बार रिंझाई अपने बग़ीचे में काम कर रहा था—रिंझाई एक झेन गुरु था—और कोई आया। वह आदमी कुछ दार्शनिक प्रश्‍न पूछने आया था। वह एक दार्शनिक खोजी था। उसे नहीं पता था कि जो आदमी बग़ीचे में काम कर रहा है वही रिंझाई है। उसने सोचा कि यह कोई माली है। कोई नौकर होगा। तो उसने पूछा, ‘रिंझाई कहां है?’ रिंझाई ने कहां, ‘रिंझाई तो हमेशा यहीं है।’ स्‍वभावत: उस आदमी ने सोचा कि माली कुछ पागल लगता है। क्‍योंकि उसने कहा रिंझाई तो हमेशा यही है। तो उसने सोचा कि इस आदमी से और कुछ पूछना ठीक नहीं होगा। और वह किसी से पूछने के लिए जाने लगा। रिंझाई ने कहा, ‘कहीं मत जाओं क्‍योंकि तुम उसे कहीं भी नहीं पाओगे।’ लेकिन वह तो उस पागल आदमी से बच कर भाग गया।

फिर उसने औरों से पूछा तो वे बोले, ‘जिस पहले व्‍यक्‍ति से तुम मिले थे वहीं तो रिंझाई है।’ तो वह वापस आया और बोला, ‘मुझे क्षमा करे, बहुत खेद है मुझे, मैंने सोचा कि आप पागल है। मैं कुछ पूछने आया हूं। मैं जानता चाहता हूं कि सत्‍य क्‍या है। उसे जानने के लिए मैं क्‍या करूं?’ रिंझाई ने कहा, ‘तुम जो करना चाहो वहीं करो, लेकिन समग्रता में रहो1’

सवाल यही नहीं है कि तुम क्‍या करते हो। वह बात ही असंगत है। सवाल यह है कि तुम उसे समग्रता से करो।

‘उदाहरण के लिए’, रिंझाई बोला, जब मैं यह गड्ढा खोद रहा था। तो मेरी समग्रता गड्ढा खोदना हो गई थी। पीछे कोई रिंझाई नहीं था। पूरा का पूरा खोदने में लग गया है। असल में कोई खोदने वाला नहीं बचा। बस खोदने की क्रिया ही बची है। यदि खोदने वाला बचे तो तुम बंट गए।‘

तुम मुझे सून रहे हो, यदि सुनने वाला बचे तो तुम समग्र नहीं हुए। यदि केवल सुनना ही हो और पीछे कोई सुनने वाला न बचे तो तुम समग्र हो गए। अभी और यही। फिर यह क्षण ही ध्‍यान बन जाता है।

इस सूत्र में शिव कहते है, ‘अपनी संपूर्ण चेतना से कामना के, जानने के आरंभ में ही जानो।’

यदि तुम्‍हारे भीतर कोई कामना उठे तो तंत्र उससे लड़ने को नहीं कहता। वह व्‍यर्थ है। कामना से कोई भी नहीं लड़ सकता। वह मूर्खता भी है, क्‍योंकि जब भी अपने भीतर तुम किसी चीज से लड़ने लगते हो तो तुम स्‍वयं से ही लड़ रहे हो। तुम विक्षिप्‍त हो जाओगे, तुम्‍हारा व्‍यक्‍तित्‍व खंडित हो जाएगा।

और इन सारे तथाकथित धर्मों ने मनुष्‍यता को धीरे-धीरे विक्षिप्‍त होने में सहयोग दिया है। हर कोई बंटा हुआ है। हर कोई खंडित है और स्‍वयं से लड़ रहा है। क्‍योंकि तथाकथित धर्मों ने तुम्‍हें बताया है। कि यह बुरा है, यह मत करो। लेकिन यदि कामना उठती है तो तुम क्‍या कर रहे हो। तुम कामना से लड़ रहे हो। तंत्र कहता है कि कामना से मत लड़ो।

लेकिन इसका यह अर्थ नहीं है कि तुम उसके शिकार हो जाओ। इसका यह अर्थ नहीं है कि तुम उसमें लिप्‍त हो जाओ। तंत्र तुम्‍हें बड़ी सूक्ष्‍म विधि देता है1 जब कामना उठे तो आरंभ में ही अपनी समग्रता से जागरूक हो जाओ। अपनी समग्रता से उसको देखो। बस दृष्‍टि बन जाओ। द्रष्‍टा को पीछे मत छोड़ो। अपनी समग्रता से उसका देखो। बस दृष्‍टि बन जाओ। द्रष्‍टा को पीछे मत छोड़ो। अपनी पूरी चेतना को इस उठती हुई कामना पर लगा दो। यह बड़ा सूक्ष्‍म उपाय है। लेकिन बहुत अद्भुत है। इसके प्रभाव चमत्‍कारिक है।

तीन बातें समझने जैसी है। पहली, जब कामना उठ ही रही है तो कुछ तुम कर नहीं सकते। तब वह अपना रास्‍ता पूरा करेगी। अपना वर्तुल पूरा करेगी। और तुम कुछ भी नहीं कर सकते। आरंभ में ही कुछ किया जा सकता है। बीज को तभी और वही जला देना चाहिए। एक बार बीज अंकुरित हो जाए और वृक्ष विकसित होने लगे तो कुछ करना कठिन होगा, लगभग असंभव ही होगा। तुम जो भी करोगे उससे और संताप ही पैदा होगा। ऊर्जा ही नष्‍ट होगी। विक्षिप्‍तता, निर्बलता ही पैदा होगी। तो जब कामना उठे आरंभ ही हो। पहली झलक में ही पहले आभास में ही कि कामना उठ रही है। अपनी संपूर्ण चेतना को, अपने प्राणों की समग्रता को उसे देखने में लगा दो। कुछ भी मत करो। और कुछ करने की जरूरत भी नहीं। समग्र प्राणों से देखने पर दृष्‍टि इतनी आग्‍नेय हो जाती है कि बिना किसी संघर्ष के, बिना किसी विवाद के, बिना किसी विरोध के, बीज जल जाता है। समग्र प्राणों से गहरे देखने की बात है। और उठती हुई कामना पूरी तरह दग्‍ध हो जाती है।

और जब कामना बिना किसी संघर्ष के समाप्‍त हो जाती है तो वह तुम्‍हें इतना शक्‍ति शाली कर जाती है। इतनी उर्जा से, इतने गहन होश से भर देती है कि तुम कल्‍पना भी नहीं कर सकते। यदि तुम लड़ोगे तो हारोगे। यदि तुम न भी हारों ओर कामना ही हार जाए तब भी बात वही होगी। कोई ऊर्जा नहीं बचेगी। चाहे तुम जीतों चाहे हारों। तुम थके हारे ही अनुभव करोगे। दोनों ही बातों में तुम अंत में कमजोर रहो जाओगे। क्‍योंकि कामना तुम्‍हारी उर्जा से लड़ रही थी। और तुम भी उसी ऊर्जा से लड़ रहे थे। ऊर्जा एक ही स्‍त्रोत से आ रही थी। तुम एक ही स्‍त्रोत से उलीच रहे थे। तो कुछ भी परिणाम हो, स्‍त्रोत निर्बल ही होगा।

लेकिन यदि कामना आरंभ में ही समाप्‍त हो जाए, बिना विरोध के—याद रखो,यह मूल बात है—बिना किसी संघर्ष के,बस देखने भर से विरोध भरी दृष्‍टि से नहीं,नष्‍ट करने वाले मन से नहीं। शत्रुता से नहीं। बस देखने भर से: उस समग्र दृष्‍टि की सघनता से ही बीज जल जाता है। और जब कामना उठती हुई कामना, आकाश में धुएँ की तरह विलीन हो जाती है तो तुम एक अद्भुत ऊर्जा से भर जाते हो। वह ऊर्जा ही आनंद है। वह तुम्‍हें एक सौंदर्य,एक गरिमा देगी।

तथाकथित संत जो अपनी कामनाओं से लड़ रहे है, कुरूप है। जब मैं कहता हूं कुरूप तो मेरा अर्थ है वे सदैव क्षुद्र से उलझे है, संघर्ष कर रहे है। उनका पूरा व्‍यक्‍तित्‍व गरिमाहीन हो जाता है। ओर वे हमेशा कमजोर होते है। हमेशा ऊर्जा की कमी होती है। क्‍योंकि उनकी सारी ऊर्जा अंतर्युद्ध में नष्‍ट हो जाती है।

बुद्ध पुरूष बिलकुल भिन्‍न होता है। और बुद्ध के व्‍यक्‍तित्‍व में जो गरिमा प्रकट हूं कुरूप तो मेरा अर्थ है वे सदैव क्षुद्र से उलझे है, संघर्ष या युद्ध के, बिना किसी अंतर्हिंसा के नष्‍ट हो गई कामनाओं के कारण है।

‘अपनी संपूर्ण चेतना से कामना है, जानने के आरंभ में ही जानो।’

उसी क्षण में बस जानो, अवलोकन करो, देखो। कुछ भी मत करो। और कुछ भी नहीं चाहिए। बस इतना ही चाहिए कि तुम्‍हारे समग्र प्राण वहां उपस्‍थित हो। तुम्‍हारी पूर्ण उपस्‍थिति चाहिए। बिना किसी हिंसा के परम बुद्धत्‍व उपलब्‍ध करने का यक एक राज है।

और याद रखो, परमात्‍मा के राज्‍य में तुम हिंसा से प्रवेश नहीं कर सकते। नहीं,वे द्वार तुम्‍हारे लिए कभी नहीं खुलेंगे, भले तुम कितनी ही दस्‍तक दो। खटखटाओं और खटखटाते ही जाओ। तुम अपना सिर फोड़ ले सकते हो लेकिन वे द्वार कभी नहीं खुलेंगे। लेकिन जो भीतर गहरे में अहिंसक है और किसी चीज से नहीं लड़ रहे। उनके लिए वे द्वार सदा खुले है, कभी बंद ही नहीं थे।

जीसस कहते है, दस्‍तक दो और तुम्‍हारे लिए द्वार खुल जाएंगे। मैं तुमसे कहता हूं कि दस्‍तक देने की भी जरूरत नहीं है। देखो द्वार खुले ही हुए है। वे सदा से ही खुले हुए है। वे कभी बंद नहीं थे। बस एक गहन समग्र संपूर्ण, अखंड दृष्‍टि से देखो।

ओशो

विज्ञान भैरव तंत्र, भाग—पांच,

प्रवचन-75

साभार:-(oshosatsang.org)