मुद्रा विज्ञान एवम चिकित्सा

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मुद्रा विज्ञान हमारे वैदिक ऋषियों की अद्भुत देन है।आदि काल मे मुद्रा विज्ञान घर घर मे एक सामान्य ज्ञान था जो जन जन को अनजाने ही स्वस्थ्य रखता था।यह ज्ञान लुप्त हो गया था और पिछले 12 वर्षों से इसमें बहुत खोज व प्रयोग हुए हैं।
दोनों हाथों की दस उंगलियों के द्वारा,मनुष्य अपने शरीर को पूरी तरह से आरोग्य एवं स्वस्थ रख सकता है।दोनों हाथ में अस्तित्व द्वारा दिए हुए दिव्य औषधालय बसते हैं जो साधारण सर्दी जुकाम से लेकर केंसर तक हर रोज के उपचार करने में पूरे समर्थ हैं।हर तरह के नए व पुराने रोग जैसे, डिप्रेशन,अनिद्रा तनाव, हाई ब्लड प्रेशर,हृदय रोग स्कंधवाद ,जोड़ो के दर्द,मधुमेह,चर्म रोग,सोरायसिस,हृदय रोग,दमा, एडिक्शन और सभी अंगों की बीमारी,इस प्राकृतिक चिकित्सा और नैसर्गिक पद्धति द्वारा पूरी तरह से ठीक की जा सकती है।कोई दवा नही, कोई डॉक्टर नही।अद्भुत ,एकदम मुफ्त।

क्षिति जल पावक गगन समीरा,
 पंचभूत मय रचित शरीरा।

सारा अस्तित्व और हमारा शरीर,पंच महाभूत,पृथ्वी,जल,अग्नि वायु और आकाश से रचित है।और ये पांच तत्व जब, एक सही अनुपात में होते हैं तो शरीर निरोग होता है। अनुपात का संतुलन बिगड़ जाता है तभी शरीर भी रोगी हो जाता है। हमारे हाथों में इस संतुलन को ठीक करने के स्विच,दस उंगलियों में प्रकृति द्वारा प्रदान किए गए हैं जिनसे मुद्राओं द्वारा हम तत्व संतुलित कर सकते हैं।इनके द्वारा सभी रोगों का पूरी तरह से निदान कर सकते हैं व सभी रोग जड़ से समाप्त हो सकते हैं।

हमारे शरीर में तत्व निचले 5 चक्रों में पाए जाते हैं पृथ्वी तत्व मूलाधार चक्र में,जल स्वाधिष्ठान चक्र में, अग्नि तत्व मणिपुर चक्र में,अनाहत चक्र में वायु तत्व और विशुद्ध चक्र मेंआकाश तत्व हैं। मन आज्ञा चक्र में स्थित है व सहस्त्रार में चेतन है। इसी तरह से हमारा शरीर पंच प्राणों से चलता है कर्म करता है और इनमें भी यह पंच महाभूत विराजमान हैं।पृथ्वी तत्व अपान वायु में, व्यान वायु में जल, समान वायु में अग्नि, प्राण वायु में वायु तत्व एवं उदान वायु में आकाश तत्व है।हमारी दोनों हाथों की उंगलियों में इन महभूतों को सक्रिय व संतुलन करने के साधन है।संतुलन से पूरा शरीर पूरी तरह से निरोग किया जा सकता है। इस विज्ञान को ऋषियों ने मुद्रा विज्ञान कहा है। मुद्रा का मतलब होता है जो मुद,आनन्द को लेकर आता है।पूर्ण स्वास्थ्य ही परम् आनंद है।

पहला सुख निरोगी काया।

सारे विश्व में शायद मुद्रा चिकित्सा ही एक सबसे सरलतम, ऐसी पद्धति है जिसके द्वारा, पुराने से पुराने रोग जड़ से ठीक किये जा सकते हैं।

ओशोधारा नानक धाम मे सतगुरु ओशो सिद्धार्थ जी व आचार्य डॉ पुरी व डॉ गुप्ता जी ने इस वैदिक चिकित्सा पद्धति को परम स्वास्थ्य प्रदान करने के लिए फिर से संकलित किया व पूरी तरह से विकसित किया है और पिछले 10 सालों में हजारों साधकों व जनमानस पर प्रयोग करके उन्हें पूर्ण आरोग्य प्रदान किया है। ओशोधारा संघ द्वारा 3 दिन के मुद्रा चिकित्सा शिविर लिए जाते हैं जिसमें साधक को पूरी तरह से इस पद्धति में पूर्ण ज्ञान दिया जाता है। एक दिन के शिविर भी साधक के स्वयं एवं परिवार के लिए मुद्रा चिकित्सा विज्ञान का व्यवहारिक ज्ञान उपलब्ध कराते हैं। जिसे आप अपने स्वम में उपयोग कर स्वास्थ्य लाभ को प्राप्त कर सकते हैं।

हमारा प्रयास है कि यह चिकित्सा हर जन जन, घर घर मे जाए,ताकि सभी बहुत सरलता से मुफ्त में, अपने ज्यादातर रोगों का निदान कर सके।देश का करोड़ो रूपये जो दवाओं में जाता है उसे बचाया जा सके।आपका कीमती समय भी अस्पताल के चक्कर से बचाया जा सके।
धन्यवाद

आचार्य ध्यान पवन
ओशोधारा वाशी

🙏!! प्रकृति संतुलन मांगती है !!🙏

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हेनरी फोर्ड ने अपने संस्मरण में लिखवाया है कि
मैं भी एक पागल हूं।
क्योंकि जब एयरकंडीशनिंग आई,
तो मैंने अपने सब भवन एयरकंडीशन कर दिए।
कार भी एयरकंडीशन हो गई।
अपने एयरकंडीशन भवन से निकलकर
मैं अपनी पोर्च में अपनी एयरकंडीशन
कार में बैठ जाता हूं।
फिर तो बाद में उसने अपना
पोर्च भी एयरकंडीशन करवा लिया।
कार निकलेगी,
तब आटोमेटिक दरवाजा खुल जाएगा।
कार जाएगी, दरवाजा बंद हो जाएगा।
फिर इसी तरह वह अपने एयरकंडीशंड
पोर्च में दफ्तर के पहुंच जाएगा।
फिर उतरकर एयरकंडीशंड
दफ्तर में चला जाएगा।
फिर उसको तकलीफ शुरू हुई।
तो डाक्टरों से उसने पूछा कि क्या करें?
तो उन्होंने कहा कि आप रोज सुबह एक घंटा
और रोज शाम एक घंटा काफी
गरम पानी के टब में पड़े रहें।
गरम पानी के टब में पड़े रहने से
हेनरी फोर्ड ने लिखा है कि
मेरा स्वास्थ्य बिलकुल ठीक हो गया।
क्योंकि एक घंटे सुबह मुझे
पसीना-पसीना हो जाता,
शाम को भी पसीना-पसीना हो जाता।
लेकिन तब मुझे पता चला कि
मैं यह कर क्या रहा हूं!
दिनभर पसीना बचाता हूं,
तो फिर दो घंटे में इंटेंसली पसीने
को निकालना पड़ता है,
तब संतुलन हो पाता है।
प्रकृति पूरे वक्त संतुलन मांगेगी।
तो जो लोग बहुत विश्राम में हैं,
उन्हें श्रम करना पड़ेगा।
जो लोग बहुत श्रम में हैं,
उन्हें विश्राम करना पड़ेगा।
और जो व्यक्ति भी इस
संतुलन से चूक जाएगा,
ध्यान तो बहुत दूर की बात है,
वह जीवन के साधारण सुख
से भी चूक जाएगा।
ध्यान का आनंद तो बहुत दूर है,
वह जीवन के साधारण जो
सुख मिल सकते हैं,
उनसे भी वंचित रह जाएगा।

# गीतादर्शन ✍

मानसिक तनाव से मुक्ति पाने के उपाय

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मानसिक तनाव से मुक्ति पाने के लिए कुछ टिप्स

तनाव कम करने और मानसिक तनाव से मुक्ति पाने के लिए सबसे सरल और उपयोगी ‘शिथिलीकरण’ क्रिया है। प्राकृतिक रूप से हम यह कार्य रात में सोकर पूरा करते है। योग साधना में ‘शिथिलीकरण’ को ‘शव आसन’ कहते हैं, जो निर्जीव स्थिति लाकर आराम कुर्सी , पलंग, गद्दा, जमीन पर चित बैठकर, पीठ के बल लेटकर, हाथ-पैर सीधे रखकर किया जाता है।

शरीर के अंगप्रत्यंगों के अलावा मस्तिष्क को भी निष्क्रिय पड़ा रहने देने का अभ्यास करें तथा गहरी निद्रा की मन:स्थिति बनाएं, इस उपाय से पूर्ण शांति मिलेगी। तनाव प्रबंधन के लिए ध्यान यानि मैडिटेशन का भी विशेष महत्व होता है |

मानसिक तनाव से मुक्ति पाने के लिए हर हाल में खुश रहने का प्रयास करें। हर तरह की स्थिति का सामना करते हुए अपनी योग्यता में विश्वास जगाए रखें साथ ही मन में कोई घुटन पैदा हो रही हो, तो उसे मन तक ही सीमित न रखें। किसी प्रियजन, विश्वासी मित्र, रिश्तेदार से शेयर करें। इससे आपका मन हलका हो जाएगा।

एक साथ यदि कई काम आ जाएं, तो घबराएं नहीं।
प्राथमिकता और महत्व के अनुसार एक-एक करके उन्हें निपटाते जाएं। शीघ्र ही आपका बोझ दूर हो जाएगा।

मिलने-जुलने वाले सहयोगियों से सदा अच्छे संबंध रखने का प्रयत्न करें, जिससे आप हमेशा प्रसन्नता एवं तनाव रहित जीवन अनुभव करेंगे। उनसे बड़ी-बड़ी आशाएं न बांधे और न ही उनके संबंध में हवाई कल्पनाएं गढ़ें।

मानसिक तनाव की अवस्था में संगीत सुनना, रोचक टी. वी. कार्यक्रम, पिक्चर देखना, पत्र पत्रिकाएं पढ़ना, बागवानी करना, पेंटिंग करना मन बहलाने के लिए जरूरी हैं। ऐसा करने से कुछ ही समय में आपको मानसिक तनाव से मुक्तिपाने में मदद मिलेगी।

नियमित शारीरिक व्यायाम करें, इससे आपकी मानसिक क्षमता बढ़ेगी। मानसिक तनाव से मुक्ति पाने के लिए  यह एक उत्तम उपाय है।

योगासन, प्राणायाम, शवासन आदि से जहां हमारे शरीर को चुस्त रखने में मदद मिलती है, वहीं – मस्तिष्क को भी आराम पहुंचकर चित्त प्रसन्न होता है।

सदैव आशावादी दृष्टिकोण अपनाएं। निराशाजनक व असफलताओं के बारे में न सोचें। जीवन को एक खेल की भावना से जिएं और जीतने की आशा से खेलें।

मानसिक तनाव से मुक्ति पाने के लिए अनावश्यक संकल्पों या अपनी शक्ति से अधिक बड़े टारगेट नहीं बनाने चाहिए – हम अपने जीवन में कई सारे संकल्प करते हैं – हमें यह करना है – हमें वह करना है| पत्नी, बच्चे, कामकाज, घर-गृहस्थी, समाज, धर्म, शौक, इन सभी संकल्पों को पूरा करने में हम लगे रहते हैं इनमे से कई संकल्प पूरे नहीं होने से चिंता तनाव उत्पन्न होता है | गीता के अनुसार सिर्फ कर्म करना ही मनुष्य का धर्म है उसके फल का लालच नहीं करना चाहिए |

मानसिक तनाव से मुक्ति पाने के लिए स्वयं को व्यस्त रखना भी एक उत्तम उपाय है। क्योंकि यदि आप व्यस्त रहते हैं, तो बेकार की चीजों में मन का भटकाव नहीं होगा और काफी सकून से रहेंगे।
नियमित और संयमित जीवनशैली को अपनाने से तनाव पैदा नहीं होता है।
मानसिक तनाव से मुक्ति पाने के लिए सदैव मुस्कराने की आदत डालें
मुस्कान खुशी, आनंद व हर्ष का प्रतीक है। कहा जाता है कि मुस्कान अनगिनत अनकहे शब्दों की कह जाती है। विज्ञान में कहा गया है कि जब हम मुस्कराते हैं तब केवल 2 मांसपेशियां इस्तेमाल होती हैं। इसके विपरीत गुस्सा करने में 32 मांसपेशियां काम करती हैं।

एक मुस्कान मानसिक तनाव से मुक्ति पाने में आपकी बहुत मदद कर सकती है | जब भी हंसें, खुलकर हंसे ।

अपने चहरे पर सदैव एक सौम्य-सी मुस्कान रखें।
हमेशा ऐसी बात ही सोचें जो आपको अच्छी लगे।

सकारात्मक सोच के पक्षधर बनें।

कभी किसी से ज्यादा अपेक्षाएं न करें। जो मिल जाए वही सर्वोत्तम समझें।

स्वयं को दूसरे के अनुरूप बनाने का प्रयास न करें।

अपनी पहचान अलग बनाए।
जब भी झगड़ा होने लगे, मुस्कराते जाइए, गुस्सा तुरंत शांत हो जाएगा।

ज्यादा गुस्सा आने पर एक से दस तक गिनती करें | इससे आपका ध्यान तेज गुस्से से हट जायेगा |

हमेशा जिंदादिल व्यक्तियों की संगत में रहें और खिल-खिलाते रहें।

यदि कोई आपकी परवाह न करे तो इसी चिंता में खुद को डुबोए न रखें। आगे बढ़ने के प्रयास करें।

भूतकाल में क्या हुआ, भविष्य में क्या होगा, इस चिंता में अपना वक्त बर्बाद न करें। वर्तमान में जिएं।
छोटी-छोटी बातों से खुश होना सीखें।

विकट परिस्थितियों में भी अपना मानसिक संतुलन बनाए रखें।

त्याग करना सीखें। त्याग से ही आत्मसंतुष्टि प्राप्त होती है।

अपना स्वर और स्वभाव अधिक-से-अधिक मधुर और विनोद-प्रिय बनाने का प्रयास करें।

स्वयं को विनोद-प्रिय बनाएं तथा जीवन में हास्य रंग अपनाएं।

कभी भी प्रशंसा के पीछे न भागें क्योंकि उम्मीद पूरी न होने से हताशा उत्पन्न होती है जो तनाव का कारण बनती है ।

अपनी हर गलती से, भूल से एक नया सबक सीखें।

मानसिक तनाव से मुक्ति पाने के लिए कभी-कभी खुद में या ‘रूटीनवर्क में कुछ परिवर्तन भी करें।

अपने पुराने दोस्तों को भी याद किया करें। उनसे संपर्क भी बनाए रखें।

किसी के काम में या जीवन में दखल न देने की आदत डालें।
मानसिक तनाव से मुक्ति पाने और अपने आप को सांत्वना देने के लिए अपने दुख व कष्टों को, दूसरों के मुकाबले छोटा व कम ही समझने का प्रयास करें।

मानसिक तनाव से मुक्ति पाने के लिए खानपान सम्बन्धी टिप्स

क्या खाएं

ताजे मीठे फलों का सेवन करें। उनका जूस पिएं।
हरी सब्जियां और सलाद का नियमित सेवन करें।

क्या ना खाएं

कड़क चाय, कॉफी, शराब जैसी नशीली चीजों का सेवन न करें।
भारी, गरिष्ठ, तली, ज्यादा मिर्च-मसालेदार चटपटी चीजें न खाएं।

हम कभी काम पर ध्यान नहीं करते

पुरुष, चार हजार व स्त्री लाख बार सम्भोग से गुजर सकती है: ओशो
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कामवासना उठती है हजार बार। थोड़े अनुभव नहीं हैं। एक पुरुष अपने जीवन में, साधारण स्वस्थ पुरुष, चार हजार संभोग कर सकता है, करता है । चार हजार बार काम के अनुभव से गुजरता है एक पुरुष। स्त्री तो लाख बार गुजर सकती है। उसकी क्षमता गहन है। इसलिए पुरुष वेश्याएं नहीं हो सके; स्त्रियां वेश्याएं हो सकीं।

लाख बार भी काम के अनुभव से गुजरकर यह पता नहीं चलता कि यह काम-ऊर्जा, यह सेक्स-एनर्जी क्या है?
क्योंकि हम कभी काम पर ध्यान नहीं करते
कभी हम सेक्स पर मेडिटेशन नहीं करते

इस जगत में जो भी ज्ञान उपलब्ध होता है, वह ध्यान से उपलब्ध होता है–जो भी ज्ञान
चाहे विज्ञान की प्रयोगशाला में उपलब्ध होता हो; और चाहे योग की अंतःप्रयोगशाला में उपलब्ध होता हो। जो भी ज्ञान जगत में उपलब्ध होता है, वह ध्यान से उपलब्ध होता है।
ध्यान ज्ञान को पाने का इंस्ट्रूमेंट, उपाय, विधि, मेथड है ।

कभी आपने ध्यान किया है सेक्स पर?

आप कहेंगे, बहुत बार किया है
चिंतन किया है, ध्यान नहीं किया
सोचते तो बहुत हैं; जितना करते नहीं, उतना सोचते हैं।

काम के अनुभव से जितना गुजरते हैं, उससे लाख गुना ज्यादा काम के विचार से गुजरते हैं
चौबीस घंटे घूम-फिरकर काम मन में सरकता रहता है।

चिंतन तो किया है, ध्यान नहीं किया
चिंतन का अर्थ है, जो भीतर वासना घटती है, उसके साथ ही बह जाते हैं; दूर खड़े होकर देख नहीं पाते । मन में उठा काम का विचार, तो आप भी काम के विचार के साथ आइडेंटिफाइड हो जाते हैं; तादात्म्य हो जाता है।

आप ही काम हो जाते हैं, यू बिकम दि सेक्स
फिर ऐसा नहीं होता कि काम की ऊर्जा उठी है, मैं दूर खड़ा देखता हूं, क्या है?

एक वैज्ञानिक प्रयोगशाला में प्रवेश करता है, परीक्षण करता, खोज करता, प्रयोग करता, निरीक्षण करता, दूर खड़े होकर देखता, क्या हो रहा है?

अगर वैज्ञानिक जो कर रहा है, उसके साथ आइडेंटिफाइड हो जाए…जैसे एक वैज्ञानिक एक केमिकल पर, एक रासायनिक द्रव्य पर खोज कर रहा है।

वह खुद को ही समझ ले कि मैं ही रासायनिक द्रव्य हूं, तो हो गई खोज फिर कभी नहीं होगी। वह आदमी ही खो गया, जो खोज कर सकता था।

केमिकल द्रव्य खोज कर सकते होते, तो उन्होंने कभी की खोज कर ली होती वैज्ञानिक की शर्त यह है कि वह आब्जर्व कर सके, निरीक्षण कर सके आब्जर्वेशन विज्ञान का मूल आधार है।

जिसे विज्ञान आब्जर्वेशन कहता है, निरीक्षण कहता है, उसे ही योग, धर्म, ध्यान कहता है
वह धर्म की पारिभाषिक शब्दावली ध्यान है
ध्यान का मतलब है, जो भी देख रहे हैं, उससे दूर खड़े होकर देख सकें, टु बी ए विटनेस। एक गवाह की तरह देख सकें; सम्मिलित न हो जाएं

जिस इंद्रिय के साथ आपका एकात्म हो जाता है, उसे आप कभी न जान पाएंगे जिस इंद्रिय के रस के साथ आप इतने डूब जाते हैं कि भूल जाते हैं कि मैं देखने वाला हूं, बस, फिर ध्यान नहीं हो पाता फिर कभी इंद्रियों के रस का ज्ञान नहीं हो पाता क्रोध उठे, तो क्रोध से जरा दूर खड़े होकर देखें, क्या है?

लेकिन हम भगवान पर तो ध्यान करते हैं, जिसका हमें कोई पता नहीं जिसका हमें पता नहीं, उस पर तो ध्यान होगा कैसे ध्यान तो उस पर हो सकता है, जिसका हमें पता है। भगवान पर ध्यान करते हैं, जिसका हमें कोई पता नहीं है। क्रोध पर, काम पर कभी ध्यान नहीं करते, जिसका हमें पता है।

और मजा यह है कि जो काम, क्रोध और बाकी इंद्रियों के समस्त उपद्रव के प्रति, ऊर्जा के प्रति, विस्फोट के प्रति ध्यान करने में समर्थ हो जाता है; जैसे-जैसे उसका ध्यान बढ़ता है इंद्रियों पर, वैसे-वैसे इंद्रियां विजित होती चली जाती हैं, हारती चली जाती हैं
वह जीतता चला जाता है; उतना रिकवर करता चला जाता है; उतनी जमीन वापस लेता चला जाता है
उतनी-उतनी इंद्रिय अपनी ताकत छोड़ती चली जाती है, जहां-जहां ध्यान की किरण प्रवेश कर जाती है

क्रोध को जिसने जान लिया, वह क्रोध नहीं कर सकता। काम को जिसने जान लिया, वह कामातुर नहीं हो सकता लोभ को जिसने जान लिया, वह लोभ में नहीं पड़ सकता
अहंकार को जिसने पहचाना, वह अहंकार के बाहर है।

ओशो, गीता दर्शन, प्रवचन- 35

तुम जब नए-नए ध्यान करने बैठोगे तो….

Dhyan

तुम जब नए-नए ध्यान करने बैठोगे तो पुरानी आदत लौट-लौट कर हमला बोलेगी। फिकर मत करना! तीन से छह महीने तक हमले होते हैं। तीन से छह महीने तक अगर तुमने इतनी हिम्मत रखी कि हमले बर्दाश्त कर लिए और तुम रोज बैठते ही गए; तुमने कहा कोई हरज नहीं, कुछ न मिला तो कोई हरज नहीं, खोया भी क्या; कुछ करते भी तो क्या कर लेते, कर-कर के भी क्या पा लिया है–छह महीने अगर तुमने यह तय रखा कि एक घंटा बैठे ही रहेंगे, कुछ फिकर न करेंगे, जो हो, हो, तो तुम एक दिन पाओगे अचानक एक नई सुगंध उठने लगी तुम्हारे भीतर। ऐसी सुगंध, जिससे तुम परिचित नहीं हो। तुम्हारे नासापुट भरने लगे एक अपूर्व सुवास से! सब फूल फीके होने लगेंगे। और तुम्हारे भीतर एक किरण जगने लगेगी, जिसके सामने सूरज छोटे पड़ जाते हैं, और तुम्हारे भीतर एक शांति का आकाश फैलने लगेगा, जिसके सामने यह बड़ा आकाश भी एक छोटा-सा आंगन है।और जिस दिन यह अपूर्व क्रांति तुम्हारे भीतर उतरनी शुरू होती है, उस दिन तुम्हें पहली बार पता चलता है : तुम कौन हो!

ओशो

ध्यान प्रयोग : लाओत्से कहता है, चलो, लेकिन ध्यान नाभि का रखो।

Laotse

लाओत्से कहता है, चलो, लेकिन ध्यान नाभि का रखो।

बैठो, ध्यान नाभि का रखो। उठो, ध्यान नाभि का रखो। कुछ भी करो, लेकिन तुम्हारी चेतना नाभि के आस-पास घूमती रहे। एक मछली बन जाओ और नाभि के आस-पास घूमते रहो। और शीघ्र ही तुम पाओगे कि तुम्हारे भीतर एक नई शक्तिशाली चेतना का जन्म हो गया।

इसके अदभुत परिणाम हैं। और इसके बहुत प्रयोग हैं। आप यहां एक कुर्सी पर बैठे हुए हैं। लाओत्से कहता है कि आपके कुर्सी पर बैठने का ढंग गलत है। इसीलिए आप थक जाते हैं। लाओत्से कहता है, कुर्सी पर मत बैठो। इसका यह मतलब नहीं कि कुर्सी पर मत बैठो, नीचे बैठ जाओ। *लाओत्से कहता है, कुर्सी पर बैठो, लेकिन कुर्सी पर वजन मत डालो। वजन अपनी नाभि पर डालो।

अभी आप यहीं प्रयोग करके देख सकते हैं। एम्फेसिस का फर्क है। जब आप कुर्सी पर वजन डाल कर बैठते हैं, तो कुर्सी सब कुछ हो जाती है, आप सिर्फ लटके रह जाते हैं कुर्सी पर, जैसे एक खूंटी पर कोट लटका हो। खूंटी टूट जाए, कोट तत्काल जमीन पर गिर जाए। कोट की अपनी कोई केंद्रीयता नहीं है, खूंटी केंद्र है। आप कुर्सी पर बैठते हैं–लटके हुए कोट की तरह।

लाओत्से कहता है, आप थक जाएंगे। क्योंकि आप चैतन्य मनुष्य का व्यवहार नहीं कर रहे हैं और एक जड़ वस्तु को सब कुछ सौंपे दे रहे हैं। *लाओत्से कहता है, कुर्सी पर बैठो जरूर, लेकिन फिर भी अपनी नाभि में ही समाए रहोसब कुछ नाभि पर टांग दो। और घंटों बीत जाएंगे और आप नहीं थकोगे।

अगर कोई व्यक्ति अपनी नाभि के केंद्र पर टांग कर जीने लगे अपनी चेतना को, तो थकान–मानसिक थकान–विलीन हो जाएगी। एक अनूठा ताजापन उसके भीतर सतत प्रवाहित रहने लगेगा। एक शीतलता उसके भीतर दौड़ती रहेगी। और एक आत्मविश्वास, जो सिर्फ उसी को होता है जिसके पास केंद्र होता है, उसे मिल जाएगा।

तो पहली तो इस साधना की व्यवस्था है कि अपने केंद्र को खोज लें।

और जब तक नाभि के करीब केंद्र न आ जाए ठीक जगह नाभि से दो इंच नीचे, ठीक नाभि भी नहीनाभि से दो इंच नीचे जब तक केंद्र न आ जाए, तब तक तलाश जारी रखें।* और फिर इस केंद्र को स्मरण रखने लगें। श्वास लें तो यही केंद्र ऊपर उठे, श्वास छोड़ें तो यही केंद्र नीचे गिरे। तब एक सतत जप शुरू हो जाता है–सतत जप। श्वास के जाते ही नाभि का उठना, श्वास के लौटते ही नाभि का गिरना–अगर इसका आप स्मरण रख सकें…।

कठिन है शुरू में। क्योंकि स्मरण सबसे कठिन बात है और सतत स्मरण बड़ी कठिन बात है। आमतौर से हम सोचते हैं कि नहीं, ऐसी क्या बात है? मैं एक आदमी का नाम छह साल तक याद रख सकता हूं।

यह स्मरण नहीं है; यह स्मृति है। इसका फर्क समझ लें। स्मृति का मतलब होता है, आपको एक बात मालूम है, वह आपने स्मृति के रेकार्डींग को दे दी। स्मृति ने उसे रख ली। आपको जब जरूरत पड़ेगी, आप फिर रिकार्ड से निकाल लेंगे और पहचान लेंगे। स्मरण का अर्थ है: सतत, कांसटेंट रिमेंबरिंग।

– ओशो
ताओ उपनिषद

तुम मुक्त होने को हो!

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तुम मुक्त होने को हो!
किन्तु राजी नही हो! परमात्मा है या नहीं? संसार किसने बनाया? आत्मा मरने के बाद बचती है या नहीं? परमात्मा निर्गुण है या सगुण? ये सारे सवाल ही व्यर्थ है, ये सब चालाकियां है, जीवन के असली सवालो से बचने के उपाय हैं! ये कोई सवाल ही नहीं हैं! इनके हल होने से कुछ हल नहीं होता। नास्तिक मानता है ईश्वर नहीं है, तो भी वह वैसे ही जीता है। आस्तिक मानता है ईश्वर है, तो भी उसके जीवन में कोई भेद नहीं। अगर नास्तिक और आस्तिक के जीवन को देखो तो तुम एक सा पाओगे। तो फिर उनके विचारों का क्या परिणाम है? परलोक है या नहीं, इससे तुम नहीं बदलते, और जब तक तुम न बदल जाओ, तब तक समय व्यर्थ ही गंवाया।
मेरी उत्सुकता तुम्हारी आंतरिक क्रांति में है; और तुम पूछते हो कि संसार किसने बनाया? पहले इसका पता चल जाए, तब करेंगे ध्यान, क्यों बनाया? पहले इसका पता चल जाए, तब बदलेंगे जीवन को! क्या कारण है परमात्मा का संसार बनाने में? क्यों यह लीला उसने रची? जब तक इसका पता न चल जाए, तब तक हम ना बदलेंगे, पहले पूरा जान लेंगे, तब करेंगे! तुम पल-पल मर रहे हो, किसी भी क्षण डूब जाओगे, ये उत्तर, ये प्रश्न, सब व्यर्थ हैं, क्योकि जीवन प्रश्न नही, उत्तर है! और उत्तर का कोई उत्तर नही होता! बस करना होता है !!

~ओशो

विज्ञान भैरव तंत्र विधि–112 (ओशो)

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चौथी विधि:

‘आधारहीन, शाश्‍वत, निश्‍चल आकाश में प्रविष्‍ट होओ।’

इस विधि में आकाश के, स्‍पेस के तीन गुण दिए गए है।

1–आधारहीन: आकाश में कोई आधार नहीं हो सकता।

2–शाश्‍वत: वह कभी समाप्‍त नहीं हो सकता।

3–निश्‍चल: वह सदा ध्‍वनि-रहित व मौन रहता है।

इस आकाश में प्रवेश करो। वह तुम्‍हारे भीतर ही है।

लेकिन मन सदा आधार खोजता है। मेरे पास लोग आते है और मैं उनसे कहता हूं, ‘आंखें बंद कर के मौन बैठो और कुछ भी मत करो।’ और वे कहते है, हमें कोई अवलंबन दो, सहारा दो। सहारे के लिए कोई मंत्र दो। क्‍योंकि हम खाली बैठ नहीं सकते है। खाली बैठना कठिन है। यदि मैं उन्‍हें कहता हूं कि मैं तुम्‍हें मंत्र दे दूं तो ठीक है। तब वह बहुत खुश होते है। वे उसे दोहराते रहते है। तब सरल है।

आधार के रहते तुम कभी रिक्‍त नहीं हो सकते। यही कारण है कि वह सरल है। कुछ न कुछ होना चाहिए। तुम्‍हारे पास करने के लिए कुछ न कुछ होना चाहिए। करते रहने से कर्ता बना रहता है। करते रहने से तुम भरे रहते हो—चाहे तुम ओंकार से भरे हो। ओम से भरे हो, राम से भरे हो। जीसस से, आवमारिया से। किसी भी चीज से—किसी भी चीज से भरे हो, लेकिन तुम भरे हो। तब तुम ठीक रहते हो। मन खालीपन का विरोध करता है। वह सदा किसी चीज से भरा रहना चाहता है। क्‍योंकि जब तक वह भरा है तब तक चल सकता है। यदि वह रिक्‍त हुआ तो समाप्‍त हो जाएगा। रिक्‍तता में तुम अ-मन को उपलब्‍ध हो जाओगे। वही कारण है कि मन आधार की खोज करता है।

यदि तुम अंतर-आकाश, इनर स्‍पेस में प्रवेश करना चाहता हो तो आधार मत खोजों। सब सहारे—मंत्र, परमात्‍मा, शास्‍त्र–जो भी तुम्‍हें सहारा देता है वह सब छोड़ दो। यदि तुम्‍हें लगे कि किसी चीज से तुम्‍हें सहारा मिल रहा है तो उसे छोड़ दो और भीतर आ जाओ। आधारहीन।

यह भयपूर्ण होगा; तुम भयभीत हो जाओगे। तुम वहां जा रहे हो जहां तुम पूरी तरह खो सकते हो। हो सकता है तुम वापस ही न आओ। क्‍योंकि वहां सब सहारे खो जाएंगे। किनारे से तुम्‍हारा संपर्क छूट जाएगा। और नदी तुम्‍हें कहां ले जाएगी। किसी को पता नहीं। तुम्‍हारा आधार खो सकता है। तुम एक अनंत खाई में गिर सकते हो। इसलिए तुम्‍हें भय पकड़ता है। और तुम आधार खोजने लगते हो। चाहे वह झूठा ही आधार क्‍यों न हो, तुम्‍हें उससे राहत मिलती है। झूठा आधार भी मदद देता है। क्‍योंकि मन को कोई अंतर नहीं पड़ता कि आधार झूठा है या सच्‍चा है, कोई आधार होना चाहिए।

एक बार एक व्‍यक्‍ति मेरे पास आया। वह ऐसे घर में रहना था जहां उसे लगता था कि भूत-प्रेत है, और वह बहुत चिंतित था। चिंता के कारण उसका भ्रम बढ़ने लगा। चिंता से वह बीमार पड़ गया, कमजोर हो गया। उसकी पत्‍नी ने कहा, यदि तुम इस घर से जरा रुके तो मैं तो रहीं हूं। उसके बच्‍चों को एक संबंधी के घर भेजना पडा।

वह आदमी मेरे पास आया और बोला, अब तो बहुत मुश्‍किल हो गयी है। मैं उन्‍हें साफ-साफ देखता हूं। रात वे चलते है, पूरा घर भूतों से भरा हुआ है। आप मेरी मदद करें।

तो मैंने उसे अपना एक चित्र दिया और कहा, इसे ले जाओ। अब उन भूतों से मैं निपट लुंगा। तुम बस आराम करो। और सो जाओ। तुम्हें चिंता करने की जरूरत नहीं है। उनसे मैं निपट लुंगा। उन्‍हें मैं देख लूंगा। अब यह मेरा काम है। और तुम बीच में मत आना। अब तुम्‍हें चिंता नहीं करनी है।

वह अगले ही दिन आया और बोला, ‘बड़ी राहत मिली मैं चेन से सोया। आपने तो चमत्‍कार कर दिया।’ और मैंने कुछ भी नहीं किया था। बस एक आधार दिया। आधार से मन भर जाता है। वह खाली न रहा; वहां कोई उसके साथ था।

सामान्‍य जीवन में तुम कई झूठे सहारों को पकड़े रहते हो, पर वे मदद करते है। और जब तक तुम स्‍वयं शक्‍तिशाली न हो जाओ, तुम्‍हें उनकी जरूरत रहेगी। इसीलिए में कहता हूं कि यह परम विधि है—कोई आधार नहीं।

बुद्ध मृत्‍युशय्या पर थे और आनंद ने उनसे पूछा, ‘आप हमें छोड़कर जा रहे है, अब हम क्‍या करेंगें? हम कैसे उपलब्‍ध होंगे? जब आप ही चले जाएंगे तो हम जन्‍मों-जन्‍मों के अंधकार में भटकते रहेंगे, हमारा मार्गदर्शन करने के लिए कोई भी नहीं रहेगा, प्रकाश तो विदा हो रहा है।’

तो बुद्ध ने कहा,तुम्‍हारे लिए यह अच्‍छा रहेगा। जब मैं नहीं रहूंगा तो तुम अपना प्रकाश स्‍वयं बनोंगे। अकेले चलो, कोई सहारा मत खोजों, क्‍योंकि सहारा ही अंतिम बाधा है।

और ऐसा ही हुआ। आनंद संबुद्ध नहीं हुआ था। चालीस वर्ष से वह बुद्ध के साथ था, वह निकटतम शिष्‍य था, बुद्ध की छाया की भांति था, उनके साथ चलता था। उनके साथ रहता था। उनका बुद्ध के साथ सबसे लंबा संबंध था। चालीस वर्ष तक बुद्ध की करूणा उस पर बरसती रही थी। लेकिन कुछ भी नहीं हुआ। आनंद सदा की भांति आज्ञानी ही रहा। और जिस दिन बुद्ध ने शरीर छोड़ा उसके दूसरे ही दिन आनंद संबुद्ध हो गया—दूसरे ही दिन।

वह आधार ही बाधा था। जब बुद्ध ने रहे तो आनंद कोई आधार न खोज सका। यह कठिन है। यदि तुम किसी बुद्ध के साथ रहो वह बुद्ध चला जाए, तो कोई भी तुम्‍हें सहारा नहीं दे सकता। अब कोई भी ऐसा न रहेगा जिसे तुम पकड़ सकोगे। जिसने किसी बुद्ध को पकड़ लिया वह संसार में किसी और को पकड़ पायेगा। यह पूरा संसार खाली होगा। एक बार तुमने किसी बुद्ध के प्रेम और करूणा को जान लिया हो तो कोई प्रेम, कोई करूणा उसकी तुलना नहीं कर सकती। एक बार तुमने उसका स्‍वाद ले लिया तो और कुछ भी स्‍वाद लेने जैसा न रहा।

तो चालीस वर्ष में पहली बार आनंद अकेला हुआ। किसी भी सहारे को खोजने का कोई उपाय नहीं था। उसने परम सहारे को जाना था। अब छोटे-छोटे सहारे किसी काम के नहीं, दूसरे ही दिन वह संबुद्ध हो गया। वह निश्‍चित ही आधारहीन, शाश्‍वत निश्‍चल अंतर-आकाश में प्रवेश कर गया होगा।

तो स्‍मरण रखो कोई सहारा खोजने का प्रयास मत करो। आधारहीन ही जानो। यदि इस विधि को कहने का प्रयास कर रहे हो तो आधारहीन हो जाओ। यही कृष्‍ण मूर्ति सिखा रहा है। ‘आधारहीन हो जाओ, किसी गुरु को मत पकड़ो, किसी शस्‍त्र को मत पकड़ो। किसी भी चीज को मत पकड़ो।’

सब गुरु यही करते रहे है। हर गुरू का सारा प्रयास ही यह होता हे। कि पहले वह तुम्‍हें अपनी और आकर्षित करे,ताकि तुम उससे जुड़ने लगो। और जब तुम उससे जुड़ने लगते हो, जब तुम उसके निकट और घनिष्ठ होने लगते हो, तब वह जानता है कि पकड़ छुड़ानी होगा। और अब तुम किसी और को नहीं पकड़ सकते—यह बात ही खतम हो गई। तुम किसी और के पास नहीं जा सकते—यह बात असंभव हो गई। तब वह पकड़ को काट डालता है। और अचानक तुम आधारहीन हो जाते हो। शुरू-शुरू में तो बड़ा दुःख होगा। तुम रोओगे और चिल्‍लाओगे और चीखोगे। और तुम्हें लगेगा कि सब कुछ खो गया। तुम दुःख की गहनत्म गहराइयों में गिर जाओगे। लेकिन वहां से व्‍यक्‍ति उठता है, अकेला और आधारहीन।

‘आधारहीन, शाश्‍वत, निश्‍चल आकाश में प्रविष्‍ट होओ।’

उस आकाश को न कोई आदि है न कोई अंत। और वह आकाश पूर्णत: शांत है, वहां कुछ भी नहीं है—कोई आवाज भी नहीं। कोई आवाज भी नहीं। कोई बुलबुला तक नहीं। सब कुछ निश्‍चल है।

वह बिंदु तुम्‍हारे ही भीतर है। किसी भी क्षण तुम उससे प्रवेश कर सकते हो। यदि तुममें आधारहीन होने का साहस है तो इसी क्षण तुम उसमें प्रवेश कर सकते हो। द्वार खुला है। निमंत्रण सबके लिए है। लेकिन साहस चाहिए—अकेले होने का, रिक्‍त होने का, मिट जाने का और मरने का। और यदि तुम अपने भीतर आकाश में मिट जाओ तो तुम ऐसे जीवन को पा लोगे जो कभी नहीं मरता, तुम अमृत को उपलब्‍ध हो जाओगे।

आज इतना ही।

इति शुभमस्तु: ओशो

साभार:-(oshosatsang.org)

विज्ञान भैरव तंत्र विधि–111 (ओशो)

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तीसरी विधि:

‘हे प्रिये, ज्ञान और अज्ञान, अस्‍तित्‍व और अनस्‍तित्‍व पर ध्‍यान दो। फिर दोनों को छोड़ दो ताकि तुम हो सको।’

ज्ञान और अज्ञान, अस्‍तित्‍व और अनस्‍तित्‍व पर ध्‍यान दो।

जीवन के विधायक पहलू पर ध्‍यान करो और ध्‍यान को नकारात्‍मक पहलू पर ले जाओ, फिर दोनों को छोड़ दो क्‍योंकि तुम दोनों ही नहीं हो।

फिर दोनों को छोड़ सको ताकि तुम हो सको।

इसे इस तरह देखो: जन्‍म पर ध्‍यान दो। एक बच्‍चा पैदा हुआ, तुम पैदा हुए। फिर तुम बढ़ते हो, जवान होते हो—इसे पूरे विकास पर ध्‍यान दो। फिर तुम बूढ़े होते हो। और मर जाते हो। बिलकुल आरंभ से, उस क्षण की कल्‍पना करो जब तुम्‍हारे पिता और माता ने तुम्‍हें धारण किया था। और मां के गर्भ में तुमने प्रवेश किया था। बिलकुल पहला कोष्ठ। वहां से अंत तक देखो, जहां तुम्‍हारा शरीर चिता पर जल रहा है। और तुम्‍हारे संबंधी तुम्‍हारे चारों और खड़े है। फिर दोनों को छोड़ दो, वह जो पैदा हुआ और वह जो मरा। वह जो पैदा हुआ और वह जो मरा। फिर दोनों को छोड़ दो और भीतर देखो। वहां तुम हो, जो न कभी पैदा हुआ और न कभी मरा।

‘ज्ञान और अज्ञान, अस्‍तित्‍व और अनस्‍तित्‍व….फिर दोनों को छोड़ दो, ताकि तुम हो सको।’

यह तुम किसी भी विधायक-नकारात्‍मक घटना से कर सके हो। तुम यहां बैठे हो, मैं तुम्‍हारी और देखता हूं। मेरा तुमसे संबंध होता है। जब मैं अपनी आंखें बंद कर लेता हूं तो तुम नहीं रहते और मेरा तुमसे कोई संबंध नहीं हो पाता। फिर संबंध और असंबंध दोनों को छोड़ दो। तुम रिक्‍त हो जाओगे। क्‍योंकि जब तुम ज्ञान और अज्ञान दोनों का त्‍याग कर देते हो तो तुम रिक्‍त हो जाते हो।

दो तरह के लोग है। कुछ ज्ञान से भरे है और कुछ अज्ञान से भरे है। ऐसे लोग है जो कहते है कि हम जाने है; उनका अहंकार उनके ज्ञान से बंधा हुआ है। और ऐसे लोग है जो कहते है, ‘हम अज्ञानी है।’वे अपने अज्ञान से भरे हुए है। वे कहते है कि ‘हम अज्ञानी है’, हम कुछ नहीं जानते। एक ज्ञान से बंधा हुआ है और दूसरा अज्ञान से, लेकिन दोनों के पास कुछ है, दोनों कुछ ढो रहे है।

ज्ञान और अज्ञान दोनों को हटा दो, ताकि तुम दोनो से अलग हो सको। न अज्ञानी, न ज्ञानी। विधायक और नकारात्‍मक दोनों को हटा दो। फिर तुम कौन हो? अचानक वह ‘कौन’ अचानक वह कौन तुम्‍हारे सामने प्रकट हो जायेगा। तुम उस अद्वैत के प्रति बोधपूर्ण हो जाओगे जो दोनों के पार है। विधायक और नकारात्‍मक दोनों को छोड़कर तुम रिक्‍त हो जाओगे। तुम कुछ भी नहीं रहोगे, न ज्ञानी और न अज्ञानी। घृणा और प्रेम दोनों को छोड़ दो। मित्रता और शत्रुता दोनों को छोड़ दो। और जब दोनों ध्रुव छूट जाते है, तुम रिक्‍त हो जाते हो।

और यह मन की एक चाल है। वह छोड़ तो सकता है। लेकिन दोनों को एक साथ नहीं। एक चीज को छोड़ सकता है। तुम अज्ञान को छोड़ सकते हो। फिर तुम ज्ञान से चिपक सकते हो हो। तुम पीड़ा को छोड़ सकते हो। फिर तम सुख को पकड़ लोगे। तुम शत्रुओं को छोड़ दोगे तो मित्र को पकड़ लोगे। और ऐसे लोग भी है जो बिलकुल उलटा करेंगे। वे मित्रों को छोड़कर शत्रुओं को पकड़ लेंगे। प्रेम को छोड़ कर घृणा को पकड़ लेंगे। धन को छोड़कर निर्धनता को पकड़ लेंगे और ज्ञान तथा शास्‍त्रों को छोड़कर अज्ञान से चिपक जाएंगे। ये लोग बड़े त्‍यागी कहलाते है। तुम जो कुछ भी पकड़े हो वे उसे छोड़कर विपरीत को पकड़ लेते है। लेकिन पकड़ते वे भी है।

पकड़ ही समस्‍या है। क्‍योंकि यदि तुम कुछ भी पकड़े हो तो तुम रिक्‍त नहीं हो सकते। पकड़ो मत। इस विधि काय हीं संदेश है। किसी भी विधायक या नकारात्‍मक चीज को मत पकड़ो क्‍योंकि न पकड़ने से ही तुम स्‍वयं को खोज पाओगे। तुम तो हो ही, पर पकड़ के कारण छिपे हुए हो। पकड़ छोड़ते ही तुम उघड़ जाओगे। प्रकट हो जाओगे।

ओशो

विज्ञान भैरव तंत्र, भाग—पांच,

प्रवचन-79

साभार:-(oshosatsang.org)

विज्ञान भैरव तंत्र विधि–110 (ओशो)

ब्रह्मांड

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दूसरी विधि:

‘हे गरिमामयी, लीला करो। यह ब्रह्मांड एक रिक्‍त खोल है जिसमें तुम्‍हारा मन अनंत रूप से कौतुक करता है।’

यह दूसरी विधि लीला के आयाम पर आधारित है। इसे समझे। यदि तुम निष्‍क्रिय हो तब तो ठीक है कि तुम गहन रिक्‍तता में, आंतरिक गहराइयों में उतर जाओ। लेकिन तुम सारा दिन रिक्‍त नहीं हो सकते और सारा दिन क्रिया शून्‍य नहीं हो सकते। तुम्‍हें कुछ तो करना ही पड़ेगा। सक्रिय होना एक मूल आवश्‍यकता है। अन्‍यथा तुम जीवित नहीं रह सकते। जीवन का अर्थ ही है सक्रियता। तो तुम कुछ घंटों के लिए तो निष्‍क्रिय हो सकते हो। लेकिन चौबीस घंटे में बाकी समय तुम्‍हें सक्रिय रहना पड़ेगा।

और ध्‍यान तुम्‍हारे जीवन की शैली होनी चाहिए। उसका एक हिस्‍सा नहीं। अन्‍यथा पाकर भी तुम उसे खो दोगे। यदि एक घंटे के लिए तुम निष्‍क्रिय हो तो तेईस घंटे के लिए तुम सक्रिय होओगे। सक्रिय शक्‍तियां अधिक होंगी और निष्‍क्रिय में जो तुम भी पाओगे वे उसे नष्‍ट कर देंगे। सक्रिय शक्‍तियां उसे नष्‍ट कर देंगी। और अगल दिन तुम फिर वही करोगे: तेईस घंटे तुम कर्ता को इकट्ठा करते रहोगे और एक घंटे के लिए तुम्‍हें उसे छोड़ना पड़ेगा। यह कठिन होगा।

तो कार्य और कृत्‍य के प्रति तुम्‍हें दृष्‍टिकोण बदलना होगा। इसीलिए यह दूसरी विधि है। कार्य को खेल समझना चाहिए, कार्य नहीं। कार्य को लीला की तरह, एक खेल की तरह लेना चाहिए। इसके प्रति तुम्‍हें गंभीर नहीं होना चाहिए। बस ऐसे ही जैसे बच्‍चे खेलते है। यह निष्‍प्रयोजन है। कुछ भी पाना नहीं है। बस कृत्‍य का ही आनंद लेना है।

यदि कभी-कभी तुम खेलो तो अंतर तुम्‍हें स्‍पष्‍ट हो सकता है। जब तुम कार्य करते हो तो अलग बात होती है। तुम गंभीर होते हो। बोझ से दबे होते हो। उत्‍तरदायी होते हो। चिंतित होते हो। परेशान होते हो। क्‍योंकि परिणाम तुम्‍हारा लक्ष्‍य होता है। स्‍वयं कार्य मात्र ही आनंद नहीं देता, असली बात भविष्‍य में, परिणाम में होती है। खेल में कोई परिणाम नहीं होता। खेलना ही आनंदपूर्ण होता है। और तुम चिंतित नहीं होते। खेल कोई गंभीर बात नहीं है। यदि तुम गंभीर दिखाई भी पड़ते हो तो बस दिखावा होता है। खेल में तुम प्रक्रिया का ही आनंद लेते हो।

कार्य में प्रक्रिया का आनंद नहीं लिया जाता। लक्ष्‍य, परिणाम महत्‍वपूर्ण होता है। प्रक्रिया को किसी न किसी तरह झेलना पड़ता है। कार्य करना पड़ता है। क्‍योंकि परिणाम पाना होता है। यदि परिणाम को तुम इसके बिना भी पा सकते तो तुम क्रिया को एक और सरका देते और परिणाम पर कूद पड़ते।

लेकिन खेल में तुम ऐसा नहीं करोगे, यदि परिणाम को तुम बिना खेले पा सको तो परिणाम व्‍यर्थ हो जाएगा। उसका महत्‍व ही प्रक्रिया के कारण है। उदाहरण के लिए, दो फुटबाल की टीमें खेल के मैदान में है, बस एक सिक्‍का उछाल कर वे तय कर सकते है कि कौन जीतेगा और कौन हारेगा। इतने श्रम इतनी लंबी प्रक्रिया से क्‍यों गुजरना। इसे बड़ी सरलता से एक सिक्‍का उछाल कर तय किया जा सकता है। परिणाम सामने आ जाएगा। एक टीम जीत जाएगी और दूसरी टीम हार जाएगी। उसके लिए मेहनत क्‍या करनी।

लेकिन तब कोई अर्थ नहीं रह जाएगा। कोई मतलब नहीं रह जाएगा। परिणाम अर्थपूर्ण नहीं है। प्रक्रिया का ही अर्थ है। यदि न कोई जीते और न कोई हारे तब भी खेल का मूल्‍य है। उस कृत्‍य का ही आनंद है।

लीला के इस आयाम को तुम्‍हारे पूरे जीवन मे जोड़ना है। तुम जो भी कर रहे हो, उस कृत्‍य में इतने समग्र हो जाओ। कि परिणाम असंगत हो जाए। शायद वह आ भी जाए, उसे आना ही होगा। लेकिन वह तुम्‍हारे मन में न हो। तुम बस खेल रहे हो और आनंद ले रहे हो।

कृष्‍ण का यही अर्थ है जब वे अर्जुन को कहते है कि भविष्‍य परमात्‍मा के हाथ में छोड़ दे। तेरे कर्मों का फल परमात्‍मा के हाथ में है, तू तो बस कर्म कर। यही सहज कृत्‍य लीला बन जाता है। यही समझने में अर्जुन को कठिनाई होती है, क्‍योंकि वह सकता है कि यदि यह सब लीला ही है। तो हत्‍या क्‍यों करें? युद्ध क्‍यों करें? यह समझ सकता है कि कार्य क्‍या है, पर वह यह नहीं समझ सकता कि लीला क्‍या है। और कृष्‍ण का पूरा जीवन ही एक लीला है।

तुम इतना गैर-गंभीर व्‍यक्‍ति कहीं नहीं ढूंढ सकते। उनका पूरा जीवन ही एक लीला है, एक खेल है, एक अभिनय है। वे सब चीजों का आनंद ले रहे है। लेकिन उनके प्रति गंभीर नहीं है। वे सघनता से सब चीजों का आनंद ले रहे है। पर परिणाम के विषय में बिलकुल भी चिंतित भी चिंतित नहीं है। जो होगा वह असंगत है।

अर्जुन के लिए कृष्‍ण को समझना कठिन है। क्‍योंकि वह हिसाब लगाता है, वह परिणाम की भाषा में सोचता है। वह गीता के आरंभ में कहता है, ‘यह सब असार लगता है। दोनों और मेरे मित्र तथा संबंधी लड़ रहे है। कोई भी जीते, नुकसान ही होगा क्‍योंकि मेरा परिवार मेरे संबंधी, मेरे मित्र ही नष्‍ट होंगे। यदि मैं जीत भी जाऊं तो भी कोई अर्थ नहीं होगा। क्‍योंकि अपनी विजय मैं किसे दिखलाऊंगा? विजय का अर्थ ही तभी होता है, जब मित्र,संबंधी, परिजन उसका आनंद लें। लेकिन कोई भी न होगा,केवल लाशों के ऊपर विजय होगी। कौन उसकी प्रशंसा करेगा। कौन कहेगा कि अर्जुन, तुमने बड़ा काम किया है। तो चाहे मैं जीतूं चाहे मैं हारूं, सब असार लगता है। सारी बात ही बेकार है।’

वह पलायन करना चाहता है। वह बहुत गंभीर है। और जो भी हिसाब-किताब लगता है वह उतना ही गंभीर होगा। गीता की पृष्‍ठभूमि अद्भुत है: युद्ध सबसे गंभीर घटना है। तुम उसके प्रति खेलपूर्ण नहीं हो सकते। क्‍योंकि जीवन मरण का प्रश्न है। लाखों जानों का प्रश्न है। तुम खेलपूर्ण नहीं हो सकते। और कृष्‍ण आग्रह करते है कि वहां भी तुम्‍हें खेलपूर्ण होना है। तुम यह मत सोचो कि अंत में क्‍या होगा, बस अभी और यही जाओ। तुम बस योद्धा का अपना खेल पूरा करो। फलकी चिंता मत करो। क्‍योंकि परिणाम तो परमात्‍मा के हाथों में है। और इससे भी कोई फर्क नहीं पड़ता कि परिणाम परमात्‍मा के हाथों में है या नहीं। असली बात यह है कि परिणाम तुम्‍हारे हाथ में नहीं है। असली बात यह है कि परिणाम तुम्‍हारे हाथ में नहीं है। तुम्‍हें उसे नहीं ढोना है। यदि तुम उसे ढोते हो तो तुम्‍हारा जीवन ध्‍यानपूर्ण नहीं हो सकता।

यह दूसरी विधि कहती है: ‘हे गरिमामयी लीला करो।’

अपने पूरे जीवन को लीला बन जाने दो।

‘यह ब्रह्मांड एक रिक्‍त खोल है जिसमें तुम्‍हारा मन अनंत रूप से कौतुक करता है।‘

तुम्‍हारा मन अनवरत खेलता चला जाता है। पूरी प्रक्रिया एक खाली कमरे में चलते हुए स्‍वप्‍न जैसी है। ध्‍यान में अपने मन को कौतुक करते हुए देखना होता है। बिलकुल ऐसे ही जैसे बच्‍चे खेलते है। और ऊर्जा के अतिरेक से कूदते-फांदते है। इतना ही पर्याप्‍त है। विचार उछल रहे है। कौतुक कर रहे है। बस एक लीला है। उसके प्रति गंभीर मत होओ। यदि कोई बुरा विचार भी आता है तो ग्‍लानि से मत भरो। या कोई शुभ विचार उठता है—कि तुम मानवता की सेवा करना चाहते हो—तो इसके कारण बहुत अधिक अहंकार से मत भर जाओ, ऐसा मत सोचो कि तुम बहुत महान हो गए हो। केवल उछलता हुआ मन है। कभी नीचे जाता है, कभी ऊपर आता है। यह तो बस ऊर्जा का बहाता हुआ अतिरेक है जो भिन्‍न-भिन्‍न रूप और आकार ले रही है। मन तो उमड़ कर बहता हुआ एक झरना मात्र है, और कुछ भी नहीं।

खेलपूर्ण होओ। शिव कहते है: ‘हे गरिमामयी लीला करो।’

खेलपूर्ण होने का अर्थ होता है कि वह कृत्‍य का आनंद ले रहा है। कृत्‍य ही स्‍वयं में पर्याप्‍त है। पीछे किसी लाभ की आकांक्षा नहीं है। वह कोई हिसाब नहीं लगा रहा है। जरा एक दुकानदार की और देखो। वह जो भी कर रहा है उसमें लाभ हानि का हिसाब लगा रहा हे। कि इससे मिलेगा क्‍या। एक ग्राहक आता है। ग्राहक कोई व्‍यक्‍ति नहीं बस एक साधन है। उससे क्‍या कमाया जा सकता है। कैसे उसका शोषण किया जा सकता है। गहरे में वह हिसाब लगा रहा कि क्‍या करना है। क्‍या नहीं करना है। बस शोषण के लिए वह हर चीज का हिसाब लगा रहा है। उसे इस आदमी से कुछ लेना-देना नहीं है। बस सौदे से मतलब है। किसी और चीज से नहीं। उसे बस भविष्‍य से, लाभ से मतलब है।

पूर्व में देखो: गांवों में अभी भी दुकानदार बस लाभ ही नहीं कमाते और ग्राहक बस खरीदने ही नहीं आते। वे सौदे का आनंद लेते है। मुझे अपने दादा की याद है। वह कपड़ों के दुकानदार थे। और मैं तथा मेरे परिवार के लोग हैरान थे। क्‍योंकि इसमें उन्‍हें बहुत मजा आता था। घंटो-घंटो ग्राहकों के साथ वह खेल चलता था। यदि कोई चीज दस रूपये की होती तो वह उसे पचास रूपए मांगते। और वह जानते थे कि यह झूठ है। और उनके ग्राहक भी जानते थे कि वह चीज दस रूपये के आस-पास होनी चाहिए। और वे दो रूपये से शुरू करते। फिर घंटो तक लम्‍बी बहस होती। मेरे पिता और चाचा गुस्‍सा होते कि ये क्‍या हो रहा है। आप सीधे-सीधे कीमत क्‍यों नहीं बता देते। लेकिन उनके की अपने ग्राहक थे। जब वे लोग आते तो पूछते की दादा कहां है। क्‍योंकि उनके साथ तो खेल हो जाता था। चाहे हमे एक दो रूपये कम ज्‍यादा देना पड़े,इसमे कोई अंतर नहीं पड़ता।

उन्‍हें इसमे आनंद आता, वह कृत्‍य ही अपने आप में आनंद था। दो लोग बात कर रहे है, दोनों खेल रहे है। और दोनों जानते है कि यह एक खेल है। क्‍योंकि स्‍वभावत: एक निश्‍चित मूल्‍य ही संभव था।

पश्‍चिम में अब मूल्‍यों को निश्‍चित कर लिया गया है। क्‍योंकि लोग अधिक हिसाबी और लाभ उन्‍मुक्‍त हो गए है। समय क्‍यों व्‍यर्थ करना। जब बात को मिनटों में निपटाया जा सकता है। तो कोई जरूरत नहीं है। तुम सीधे-सीधे निश्‍चित मूल्‍य लिख सकते हो। घंटों तक क्यों जद्दोजहद करना? लेकिन तब सारा खेल खो जाता है। और एक दिनचर्या रह जाती है। इसे तो मशीनें भी कर सकती है। दुकानदार की जरूरत ही नहीं है। न ग्राहक की जरूरत है।

मैने एक मनोविश्‍लेषक के संबंध में सुना है कि वह इतना व्‍यस्‍त था और उसके पास इतने मरीज आते थे कि हर किसी से व्‍यक्‍तिगत संपर्क रख पाना कठिन था। तो वह अपने टेप रिकार्डर से मरीजों के लिए सब संदेश भर देता था जो स्‍वयं उनसे कहना चाहता था।

एक बार ऐसा हुआ कि एक बहुत अमीर मरीज का सलाह के लिए मिलने का समय था। मनोविश्‍लेषक एक होटल में भीतर जा रहा था। अचानक उसने उस मरीज को वहां बैठे देखा। तो उसने पूछा, तुम यहां क्‍या कर रहे हो। इस समय तो तुम्‍हें मेरे पास आना था। मरीज ने कहा कि: ‘मैं भी इतना व्‍यस्‍त हूं कि मैंने अपनी बातें टेप रिकार्डर में भर दी है। दोनों टेप रिकार्डर आपस में बातें कर रहे है। जो आपको मुझसे कहना है वह मेरे टेप रिकार्डर में भर गया है। और जो मुझे आपको कहना है वह मेरे टेप रिकार्डर से आपके टेप रिकार्डर में रिकार्ड हो गया है। इससे समय भी बच गया और हम दोनों खाली है।’

यदि तुम हिसाबी हो जाओ तो व्‍यक्‍ति समाप्‍त हो जाता है। और मशीन बन जाता है। भारत के गांवों में अभी भी मोल-भाव होता है। यह एक खेल है। और रस लेने जैसा है। तुम खेल रहा हो। दो प्रतिभाओं के बीच एक खेल चलता है। और दोनों व्‍यक्‍ति गहरे संपर्क में आते है। लेकिन फिर समय नहीं बचता। खेलने से तो कभी भी समय की बचत नहीं हो सकती। और खेल में तुम समय की चिंता भी नहीं करते। तुम चिंता मुक्‍त होते हो। और जो भी होता है उसी समय तुम उसका रस लेते हो। खेलपूर्ण होना ध्‍यान प्रक्रियाओं के गहनत्म आधारों में से एक है। लेकिन हमारा मन दुकानदार है। हम उसके लिए प्रशिक्षित किया गया है। तो जब हम ध्‍यान भी करते है तो परिणाम उन्‍मुख होते है। और चाहे जो भी हो तुम असंतुष्‍ट ही होते हो।

मेरे पास लोग आते है और कहते है, ‘हां ध्‍यान तो गहरा हो रहा है। मैं अधिक आनंदित हो रहा हूं, अधिक मौन और शांत अनुभव कर रहा हूं। लेकिन और कुछ भी नहीं हो रहो।’

और क्‍या नहीं हो रहा? मैं जानता हूं ऐसे लोग एक दिन आएँगे और पूछेंगे, ‘हां मुझे निर्वाण का अनुभव तो हाँ रहा है, पर और कुछ नहीं हो रहा है। वैसे तो मैं आनंदित हूं, पर और कुछ नहीं हो रहा है।’ और क्‍या चाहिए। वह कोई लाभ ढूंढ रहा है। और जब तक कोई ठोस लाभ उसके हाथों में नहीं आ जाता। जिसे वह बैंक में जमा कर सके। वह संतुष्‍ट नहीं हो सकता। मौन और आनंद इतने अदृष्‍य है। कि तुम उन पर मालकियत नहीं कर सकते हो। तुम उन्‍हें किसी को दिखा भी नहीं सकते हो।

रोज मेरे पास लोग आते है और कहते है कि वह उदास है। वे कसी ऐसी चीज की आशा कर रहे है जिसकी आशा दुकानदारी में भी नहीं होनी चाहिए। और ध्‍यान में वे उसकी आशा कर रहे है। दुकानदार, हिसाबी-किताबी मन ध्‍यान के भी बीच में आ जाता है—इससे क्‍या लाभ हो सकता है।

दुकानदार खेलपूर्ण नहीं होता। और यदि तुम खेलपूर्ण नहीं हो तो तुम ध्‍यान में नहीं उतर सकते। अधिक से अधिक खेलपूर्ण हो जाओ। खेल में समय व्‍यतीत करो। बच्‍चों के साथ खेलना ठीक रहेगा। यदि कोई और न भी हो तो तुम कमरे में अकेले उछल-कूद कर सकते हो। नाच सकते हो। और खेल सकते हो, आनंद ले सकते हो।

यह प्रयोग करके देखो। दुकानदारी में से जितना समय निकाल सको। निकाल कर जरा खेल में लगाओ। जो भी चाहो करो। चित्र बना सकते हो। सितार बजा सकते हो। तुम्‍हें जो भी अच्‍छा लगे। लेकिन खेलपूर्ण होओ। किसी लाभ की आकांक्षा मत करो। भविष्‍य की और मत देखो। वर्तमान की और देखो। और तब तुम भीतर भी खेलपूर्ण हो सकते हो। तब तुम अपने विचारों पर उछल सकते हो। उनके साथ खेल सकते हो। उन्‍हें इधर-उधर फेंक सकते हो। उनके साथ नाच सकते हो। लेकिन उनके प्रति गंभीर नहीं होओगे।

दो प्रकार के लोग है। एक वे जो मन के संबंध में पूर्णतया अचेत है। उनके मन में जो भी होता है उसके प्रति वे मूर्छित होते है। उन्‍हें नहीं पता कि कहां उनका मन उन्‍हें भटकाए जा रहा है। यदि मन की किसी भी चाल के प्रति तुम सचेत हो सको तो तुम हैरान होओगे। कि मन मैं क्‍या हो रहा है।

मन एसोसिएशन में चलता है। राह पर एक कुत्‍ता भौंकता है। भौंकना तुम्‍हारे मस्‍तिष्‍क तक पहुंचता है। और वह कार्य करना शुरू कर देता है। कुत्‍ते के इस भौंकने को लेकर तुम संसार के अंत तक जा सकते हो। हो सकता है कि तुम्‍हें किसी मित्र की याद आ जाए। जिसके पास एक कुत्‍ता है। अब यह कुत्‍ता तो तुम भूल गए पर वह मित्र तुम्‍हारे मन में आ गया। और उसकी एक पत्‍नी है जो बहुत सुंदर है—अब तुम्‍हारा मन चलने लगा। अब तुम संसार के अंत तक जा सकते हो। और तुम्‍हें पता नहीं चलता कि एक कुत्‍ता तुम पर चाल चल गया। बस भौंका ओर तुम्‍हें रास्‍ते पर ले आया। तुम्‍हारे मन ने दौड़ना शुरू कर दिया।

तुम्‍हें बड़ी हैरानी होगी यह जानकर कि वैज्ञानिक इस बारे में क्‍या कहते है। वे कहते है कि यह मार्ग तुम्‍हारे मन में सुनिश्‍चित हो जाता है। यदि यही कुत्‍ता इसी परिस्थिति में दोबारा भौंके तो तुम इसी पर चल पड़ोगे: वहीं मित्र,वहीं कुत्‍ता, वहीं सुंदर पत्‍नी। दोबारा उसी रास्‍ते पर तुम घूम जाओगे।

अब मनुष्‍य के मस्‍तिष्‍क में इलेक्‍ट्रोड डालकर उन्‍होने कई प्रयोग किए है। वे मस्‍तिष्‍क में एक विशेष स्‍थान को छूते है। और एक विशेष स्‍मृति उभर आती है। अचानक तुम पाते हो कि तुम पाँच वर्ष के हो, एक बग़ीचे में खेल रहे हो। तितलियों के पीछे दौड़ रहे हो। फिर पूरी की पूरी शृंखला चली आती है। तुम्‍हें अच्‍छा लग रहा है। हवा, बगीचा,सुगंध, सब कुछ जीवंत हो उठती है। वह मात्र स्‍मृति ही नहीं होती, तुम उसे दोबारा जीते हो। फिर इलेक्‍ट्रोड वापस निकाल लिए जाता है। और स्‍मृति रूक जाती हे। यदि इलेक्‍ट्रोड पुन: उसी स्‍थान को छू ले तो पुन: वही स्‍मृति शुरू हो जाती है। तुम पुन: पाँच साल के हो जाते हो। उसी बग़ीचे में, उसी तितली के पीछे दौड़ने लगते हो। वहीं सुगंध और वहीं घटना चक्र शुरू हो जाता है। जब इलेक्‍ट्रोड निकाल लिया जाता है। लेकिन इलेक्ट्रोड को वापस उसी जगह रख दो स्‍मृति वापस आ जाती है।

यह ऐसे ही है जैसे यांत्रिक रूप से कुछ स्‍मरण कर रहे हो। और पूरा क्रम एक निश्‍चित जगह से प्रारंभ होता है और निश्‍चित परिणति पर समाप्‍त होता है। फिर पुन: प्रारंभ से शुरू होता है। ऐसे ही जैसे तुम टेप रिकार्डर में कुछ भर देते हो। तुम्‍हारे मस्‍तिष्‍क में लाखों स्‍मृतियां है। लाखों कोशिकाएं स्‍मृतियां इकट्ठी कर रही है। और यह सब यांत्रिक है।

मनुष्‍य के मस्‍तिष्‍क के साथ किए गए ये प्रयोग अद्भुत है। और इनसे बहुत कुछ पता चलता है। स्‍मृतियां बार-बार दोहरायी जा सकती है। एक प्रयोगकर्ता ने एक स्‍मृति को तीन सौ बार दोहराया और स्‍मृति वही की वही रही—वह संग्रहीत थी। जिस व्‍यक्‍ति पर यह प्रयोग किया गया उसे तो बड़ा विचित्र लगा क्‍योंकि वह उस प्रक्रिया का मालिक नहीं था। वह कुछ भी नहीं कर सकता था। जब इलेक्ट्रोड उस स्‍थान को छूता तो स्‍मृति शुरू हो जाती और उसे देखना पड़ता।

तीन सौ बार दोहराने पर वह साक्षी बन गया। स्‍मृति को तो वह देखता रहा, पर इस बात के प्रति वह जाग गया कि वह और उसकी स्‍मृति अलग-अलग है। यह प्रयोग ध्‍यानियों के लिए बहुत सहयोगी हो सकता है। क्‍योंकि जब तुम्‍हें पता चलता है कि तुम्‍हारा मन और कुछ नहीं बस तुम्‍हारे चारों और एक यांत्रिक संग्रह है। तो तुम उससे अलग हो जाते हो।

इस मन को बदला जा सकता है। अब तो वैज्ञानिक कहते है कि देर अबेर हम उन केंद्रों को काट डालेंगे जो तुम्‍हें विषाद ओर संताप देते है, क्‍योंकि बार-बार एक ही स्‍थान छुआ जाता है। और पूरी की पूरी प्रक्रिया को दोबारा जीना पड़ता है।

मैंने कई शिष्‍यों के साथ प्रयोग किए है। वही बात दोहराओं और वे बार-बार उसी दुष्‍चक्र में गिरते जाते हे। जब तक कि वे इस बात के साक्षी न हो जाएं कि यह एक यांत्रिक प्रक्रिया है। तुम्‍हें इस बात का पता है कि यदि तुम अपनी पत्‍नी से हर सप्‍ताह वहीं-वहीं बात कहते हो तो वह क्‍या प्रतिक्रिया करेगी। सात दिन में जब वह भूल जाए तो फिर वही बात कहो: वहीं प्रतिक्रिया होगी।

इसे रिकार्ड कर लो, प्रतिक्रिया हर बार वही होगी। तुम भी जानते हो, तुम्‍हारी पत्‍नी भी जानती है। एक ढांचा निश्‍चित है। और वही चलता रहता है। एक कुत्‍ता भी भौंक कर तुम्‍हारी प्रक्रिया की शुरूआत कर सकता है। कहीं कुछ छू जाता है। इलेक्‍ट्रोड प्रवेश कर जाता है। तुमने एक यात्रा शुरू कर दी।

यदि तुम जीवन में खेलपूर्ण हो तो भीतर तुम कन के साथ भी खेलपूर्ण हो सकते हो। फिर ऐसा समझो जैसे टेलीविजन के पर्दे पर तुम कुछ देख रहे हो। तुम उसमे सम्‍मिलित नहीं हो। बस एक द्रष्‍टा हो। एक दर्शक हो। तो देखो और उसका आनंद लो। न कहो अच्‍छा है, न कहो बुरा है, न निंदा करो, न प्रशंसा करो। क्‍योंकि वे गंभीर बातें है।

यदि तुम्‍हारे पर्दे पर कोई नग्‍न स्‍त्री आ जाती है तो यह मत कहो कि यह गलत है, कि कोई शैतान तुम पर चाल चल रहा है। कोई शैतान तुम पर चाल नहीं चल रहा,इसे देखो जैसे फिल्‍म के पर्दे पर कुछ देख रहे हो।

और इसके प्रति खेल का भाव रखो। उस स्‍त्री से कहो कि प्रतीक्षा करो। उसे बाहर धकेलने की कोशिश मत करो। क्‍योंकि जितना तुम उसे बाहर धकेलोगे। उतना ही वह भीतर धुसेगी। अब महिलाएं तो हठी हाथी है। और उसका पीछा भी मत करो। यदि तुम उसके पीछे जाते हो तो भी तुम मुश्‍किल में पड़ोगे। न उसके पीछू जाओ। न उस से लड़ो,यही नियम है। बस देखो और खेलपूर्ण रहो। बस हेलो या नमस्‍कार कर लो और देखते रहो, और उसके बेचैन मत होओ। उस स्‍त्री को इंतजार करने दो।

जैसे वह आई थी वैसे ही अपने आप चली जाएगी। वह अपनी मर्जी से चलती है। उसका तुमसे कोई लेना-देना नहीं है। वह बस तुम्‍हारे स्‍मृतिपट पर है। किसी परिस्‍थिति वश वह चली आई बस एक चित्र की भांति। उसके प्रति खेलपूर्ण रहो।

यदि तुम अपने मन के साथ खेल सको तो वह शीध्र ही समाप्‍त हो जाएगा। क्‍योंकि मन केवल तभी हो सकता है। जब तुम गंभीर होओ। गंभीर बीच की कड़ी है। सेतु है।

‘हे गरिमामयी लीला करो। यह ब्रह्मांड एक रक्‍त खोल है। जिसमें तुम्‍हारा मन अनंत रूप से कौतुक करता है।’

ओशो

विज्ञान भैरव तंत्र, भाग—पांच,

प्रवचन-79

साभार:-(oshosatsang.org)