मृत्यु का आध्यात्मिक अर्थ

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एक ही उपाय है: पांचवां दिन।

चार दिन जिंदगी के।
ये जिंदगी के चार दिन ऐसे ही बीत जाते हैं—
दो आरजू में, दो इंतजार में।
दो मांगने में, दो प्रतीक्षा करने में।
कुछ हाथ कभी लगता नहीं।
पांचवां दिन असली दिन है।

जब भी तुम्हें समझ आ गई इस बात की, कि मेरा होना ही मेरे होने में अड़चन है…

क्योंकि मेरे होने का मतलब है कि मैं परमात्मा से अलग हूं।
मेरे होने का मतलब है कि मैं इस विराट से अलग हूं।
मेरे होने का मतलब है कि मैं एक नहीं, संयुक्त नहीं, इस परिपूर्ण के साथ एकरस नहीं।
यही तो अड़चन है।
यही दुख है।
यही नरक है।
दीवाल हट जाए।
यह मेरे होने का भाव खो जाए —मृत्यु।

मृत्यु का अर्थ यह नहीं कि तुम जाकर गरदन काट लो अपनी। मृत्यु का यह अर्थ नहीं कि जाकर जहर पी लो।

मृत्यु का अर्थ है: अहंकार काट दो अपना।

मैं हूं तुझसे अलग, यह बात भूल जाए।
मैं हूं तुझमें।
मैं हूं ऐसे ही तुझमें जैसे लहर सागर में।
लहर सागर से अलग नहीं हो सकती। कितनी ही छलांग ले और कितनी ही ऊंची उठे, जहाजों को डुबाने वाली हो जाए। पहाड़ों को डूबा दे—लेकिन लहर सागर से अलग नहीं हो सकती। लहर सागर में है, सागर की है।

ऐसे ही तुम हो—
विराट चैतन्य के सागर की एक छोटी सी लहर।
एक ऊर्मि!
एक किरण!

अपने को अलग मानते हो, वहीं अड़चन शुरू हो जाती है। वहीं से परमात्मा और तुम्हारे बीच संघर्ष शुरू हो जाता है।

और उससे लड़ कर क्या तुम जीतोगे?
कैसे जीतोगे?
क्षुद्र विराट से कैसे जीतेगा?
अंश अंशी से कैसे जीतेगा?
लहर सागर से लड़ कर कैसे जीतेगी?

कितनी ही बड़ी हो, सागर के समक्ष तो बड़ी छोटी है। यह भाव तुम्हारा चला जाए, उसका नाम मृत्यु। मैं सागर की लहर हूं। सागर मुझमें, मैं सागर में। मेरा अलग—थलग होना नहीं है।

और उसी क्षण तुम पाओगे पांचवां दिन घट गया। फिर भी तुम जी सकते हो।

बुद्ध का पांचवां दिन घटा, फिर चालीस साल और जीए। मगर वह जिंदगी फिर और थी। कुछ गुण धर्म और था उस जिंदगी का। उस जिंदगी का रस और था, उत्सव और था। फिर सच में जीए। उसके पहले जिंदगी क्या जिंदगी थी?

ओशो ✍ : पद घुंघरू बांध – मीरा बाई